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प्रथमपर्व
महाभारतम्-01-आदिपर्व-241
वेदव्यासः
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यतेः सुभद्रागृहे कृष्णेन स्थापनम्।। 1 ।।
श्रुतपूर्वपार्थलक्षणदर्शनेन इमं यतिं अर्जुनं शङ्कमानायाः सुभद्रायाः यतिंप्रति अर्जुनादिकुशलप्रश्नः।। 2 ।।
अर्जुनेन तत्वे कथिते मोहितायां सुभद्रायां रुक्मिण्या श्वश्रूसमीपे तद्वृत्तकथनम्।। 3 ।।
वासुदेवानुमत्या देवक्या सुभद्राश्वासनम्।। 4 ।।
गूढं सुभद्राया विवाहचिकीर्षया कृष्णेन महादेवपूजाव्याजेन सर्वयादवैः सह अन्तर्द्वीपगमनम्।। 5 ।।

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वैशंपायन उवाच। 1-241-1x
स तथेति प्रतिज्ञाय सहितो यतिना हरिः।
कृत्वा तु संविदं तेन प्रहृष्टः केशवोऽभवत्।।
1-241-1a
1-241-1b
पर्वते तौ विहृत्यैव यथेष्टं कृष्णपाण्डवौ।
तां पुरीं प्रविवेशाथ गृह्य हस्तेन पाण्डवम्।
प्रविश्य च गृहं रम्यं सर्वभोगसमन्वितम्।।
1-241-2a
1-241-2b
1-241-2c
पार्थमावेदयामास रुक्मिणीसत्यभामयोः।
हृषीकेशवचः श्रुत्वा ते उभे चोचतुर्भृशम्।।
1-241-3a
1-241-3b
मनोरथो महानेष हृदि नौ परिवर्तते।
कदा द्रक्षाव बीभत्सुं पाण्डवं पुरमागतम्।।
1-241-4a
1-241-4b
इत्येवं हर्षमाणे ते वदन्त्यौ सुभृशं प्रियम्।
रुग्मिणीसत्यभामे वै दृष्ट्वा प्रीतोऽभवद्यतिः।।
1-241-5a
1-241-5b
सर्वेषां हर्षमाणानां पार्थो हर्षमुपागमत्।
प्राप्तमज्ञातरूपेण चागतं चार्जुनं हरिः।।
1-241-6a
1-241-6b
सत्कृत्य पूज्यमानं तु प्रीत्या चैव ह्यपूजयत्।
स तं प्रियातिथिं श्रेष्ठं समीक्ष्य यतिमागतम्।।
1-241-7a
1-241-7b
सोदर्यां भगिनीं कृष्णः सुभद्रामिदमब्रवीत्।
अयं देशातिथिर्भद्रे संशितव्रतवानृषिः।।
1-241-8a
1-241-8b
प्राप्नोतु सततं पूजां तव कन्यापुरे वसन्।
आर्येण च परिज्ञातः पूजनीयो यतिस्त्वया।।
1-241-9a
1-241-9b
रागाद्भरस्व वार्ष्णेयि भक्ष्यैर्भोज्यैर्यतिं सदा।
एष यद्यदृषिर्ब्रूयात्कार्यमेव न संशयः।।
1-241-10a
1-241-10b
सखीभिः सहिता भद्रे भवास्य वशवर्तिनी।
पुरा हि यतयो भद्रे ये भैक्षार्थमनुव्रताः।।
1-241-11a
1-241-11b
ते बभूवुर्दशार्हाणां कन्यापुरनिवासिनः।
तेभ्यो भोज्यानि भक्ष्याणि यथाकालमतन्द्रिताः।
कन्यापुरगताः कन्याः प्रयच्छन्ति यशस्विनि।।
1-241-12a
1-241-12b
1-241-12c
वैशंपायन उवाच। 1-241-13x
सा तथेत्यब्रवीत्कृष्णं करिष्यामि यथाऽऽथ माम्।
तोषयिष्यामि वृत्तेन कर्मणा च द्विजर्षभम्।।
1-241-13a
1-241-13b
एवमेतेन रूपेण कंचित्कालं धनञ्जयः।
उवास भक्ष्यैर्भोज्यैश्च भद्रया परमार्चितः।।
1-241-14a
1-241-14b
तस्य सर्वगुणोपेतां वासुदेवसहोदरीम्।
पश्यतः सततं भद्रां प्रादुरासीन्मनोभवः।।
1-241-15a
1-241-15b
गूहयन्निव चाकारमालोक्य वरवर्णिनीम्।
दीर्घमुष्णं विनिश्वस्य पार्थः कामवशं गतः।।
1-241-16a
1-241-16b
स कृष्णां द्रौपदीं मेने न रूपे भद्रया समाम्।
प्राप्तां भूमान्विन्द्रसेनां साक्षाद्वा वरुणात्मजाम्।।
1-241-17a
1-241-17b
अतीतकाले संप्राप्ते सर्वास्तापि सुरस्त्रियः।
न समा भद्रया लोके इत्येवं मन्यतेऽर्जुनः।।
1-241-18a
1-241-18b
अतीतसमये काले सोदर्याणां धनञ्जयः।
न सस्मार सुभद्रायां कामाङ्कुशनिवारितः।।
1-241-19a
1-241-19b
क्रीडारतिपरां भद्रां सखीगणसमावृताम्।
प्रीयते स्मार्जुनः पश्यन्स्वाहामिव विभावसुः।।
1-241-20a
1-241-20b
पाण्डवस्य सुभद्रायाः सकाशे तु यशस्विनः।
समुत्पत्तिः प्रभावश्च गदेन कथितः पुरा।।
1-241-21a
1-241-21b
श्रुत्वा चाशनिनिर्घोषं केशवेनापि धीमता।
उपमामर्जुनं कृत्वा विस्तरः कथितः पुरा।।
1-241-22a
1-241-22b
क्रुद्धमानप्रलापश्च वृष्णीनामर्जुनं प्रति।
पौरुषं चोपमां कृत्वा प्रावर्तत धनुष्मताम्।।
1-241-23a
1-241-23b
अन्योन्यकलहे चापि विवादे चापि वृष्णयः।
अर्जुनोपि न मे तुल्यः कुतस्त्वमिति चाब्रुवन्।।
1-241-24a
1-241-24b
जातांश्च पुत्रान्गृह्णन्त आशिषो वृष्णयोऽब्रवन्।
अर्जुनस्य समो वीर्ये भव तात धनुर्धरः।।
1-241-25a
1-241-25b
तस्मात्सुभद्रा चकमे पौरुषाद्भरतर्षभम्।
सत्यसन्धस्य रूपेण चातुर्येण च मोहिता।।
1-241-26a
1-241-26b
चारणातिथिसंघानां गदस्य च निशम्य सा।
अदृष्टे कृतभावाभूत्सुभद्रा भरतर्षभे।।
1-241-27a
1-241-27b
कीर्तयन्ददृशे यो यः कथंचित्कुरुजाङ्गलम्।
तं तमेव तदा भद्रा बीभत्सुं स्म हि पृच्छति।।
1-241-28a
1-241-28b
अभीक्ष्णश्रवणादेवमभीक्ष्णपरिपृच्छनात्।
प्रत्यक्ष इव भद्रायाः पाण्डवः प्रत्यपद्यत।।
1-241-29a
1-241-29b
भुजौ भुजगसङ्काशौ ज्याघातेन किणीकृतौ।
पार्थोऽयमिति पश्यन्त्या निःशंसयमजायत।।
1-241-30a
1-241-30b
यथारूपं हि शुश्राव सुभद्रा भरतर्षभम्।
तथारूपमवेक्ष्यैनं परां प्रीतिमवाप सा।।
1-241-31a
1-241-31b
सा कदाचिदुपासीनं पप्रच्छ कुरुनन्दनम्।
कथं देशाश्च चरिता नानाजनपदाः कथम्।।
1-241-32a
1-241-32b
सरांसि सरितश्चैव वनानि च कथं यते।
दिशः काश्च कथं प्राप्ताश्चरता भवता सदा।।
1-241-33a
1-241-33b
स तथोक्तस्तदा भद्रां बहुनर्मामृतं ब्रुवन्।
उवाच परमप्रीतस्तथा बहुविधाः कथाः।।
1-241-34a
1-241-34b
निशण्य विविधं तस्य लोके चरितमात्मनः।
तथा परिगतो भावः कन्यायाः समपद्यत।।
1-241-35a
1-241-35b
पर्वसन्धौ तु कस्मिंश्चित्सुभद्रा भरतर्षभम्।
रहस्येकान्तमासाद्य हर्षमाणाऽभ्यभाषत।।
1-241-36a
1-241-36b
यतिना रचता देशान्खाण्डवप्रस्थवासिनी।
कश्चिद्भगवता दृष्टा पृथाऽस्माकं पितृष्वसा।।
1-241-37a
1-241-37b
भ्रातृभिः प्रीयते सर्वैर्दृष्टः कच्चिद्युधिष्ठिरः।
कच्चिद्धर्मपरो भीमो धर्मराजस्य धीमतः।।
1-241-38a
1-241-38b
निवृत्तसमयः कच्चिदपराधाद्धनञ्जयः।
नियमे कामभोगानां वर्तमानः प्रिये रतः।।
1-241-39a
1-241-39b
क्व नु पार्थश्चरत्यद्य बहिः स वसतीर्वसन्।
सुखोचितो ह्यदुःखार्हो दीर्घबाहुररिन्दमः।।
1-241-40a
1-241-40b
कच्चिच्छ्रुतो वा दृष्टो वा पार्थो भगवताऽर्जुनः।
निशम्य वचनं तस्यास्तामुवाच हसन्निव।।
1-241-41a
1-241-41b
आर्या कुशलिनी कुन्ती सहपुत्रा सहस्नुषा।
प्रीयते पश्यती पुत्रान्खाण्डवप्रस्थ आसते।।
1-241-42a
1-241-42b
अनुज्ञातश्च मात्रा च सोदरैश्च धनञ्जयः।
द्वारकामावसत्येको यतिलिङ्गेन पाण्डवः।।
1-241-43a
1-241-43b
पश्यन्ती सततं कस्मान्नाभिजानासि माधवि।
निशण्य वचनं तस्य वासुदेवसहोदरी।।
1-241-44a
1-241-44b
निश्वासबहुला तस्थौ क्षितिं विलिखती तदा।
ततः परमसंहृष्टः सर्वशस्त्रभृतां वरः।।
1-241-45a
1-241-45b
अर्जुनोऽहमिति प्रीतस्तामुवाच धनञ्जयः।
यथा तव गतो भावः श्रवणान्मयि भामिनि।।
1-241-46a
1-241-46b
त्वद्गतः सततं भावस्तथा तव गुणैर्मम।
प्रशस्तेऽहनि धर्मेण भद्रे स्वयमहं वृतः।।
1-241-47a
1-241-47b
सत्यवानिव सावित्र्या भविष्यामि पतिस्तव।। 1-241-48a
वैशंपायन उवाच। 1-241-49x
एवमुक्त्वा ततः पार्थः प्रविवेश लतागृहम्।
ततः सुभद्रा ललिता लज्जाभावसमन्विता।।
1-241-49a
1-241-49b
मुमोह शयने दिव्ये शयाना न तथोचिता।
नाकरोद्यतिपूजां सा लज्जाभावमुपेयुषी।।
1-241-50a
1-241-50b
कन्यापुरे तु यद्वृत्तं ज्ञात्वा दिव्येन चक्षुषा।
शशास रुक्मिणीं कृष्णो भोजनादि तदार्जुने।।
1-241-51a
1-241-51b
तदाप्रभृति तां भद्रां चिन्तयन्वै धनञ्जयः।
आस्ते स्म स तदाऽऽरामे कामेन भृशपीडितः।।
1-241-52a
1-241-52b
सुभद्रा चापि न स्वस्था पार्थं प्रति बभूव सा।
कृशा विवर्णवदना चिन्ताशोकपरायणा।।
1-241-53a
1-241-53b
निश्वासपरमा भद्रा मानसेन मनस्विनी।
न शय्यासनभोगेषु रतिं विन्दति केनचित्।।
1-241-54a
1-241-54b
न नक्तं न दिवा शेते बभूवोन्मत्तदर्शना।
एवं शोकपरां भद्रां देवी वाक्यमथाब्रवीत्।
मा शोकं कुरु वार्ष्णेयि धृतिमालम्ब्य शोभने।।
1-241-55a
1-241-55b
1-241-55c
रुक्मिण्येवं सुभद्रां तां कृष्णस्यानुमते तदा।
रहोगत्य तदा श्वश्रूं देवकीं वाक्यमब्रवीत्।।
1-241-56a
1-241-56b
अर्जुनो यतिरूपेण ह्यागतः सुसमाहितः।
कन्यापुरमथाविश्य पूजितो भद्रया मुदा।।
1-241-57a
1-241-57b
तं विदित्वा सुभद्रापि लज्जया परिमोहिता।
दिवानिशं शयाना सा नाकरोद्भोजनादिकम्।।
1-241-58a
1-241-58b
एवमुक्ता तया देवी भद्रां शोकपरायणाम्।
तत्समीपं समागत्य श्लक्ष्णं वाक्यमथाब्रवीत्।।
1-241-59a
1-241-59b
मा शोकं कुरु वार्ष्णेयि धृतिमालम्ब्य शोभने।
राज्ञे निवेदयित्वापि वसुदेवाय धीमते।।
1-241-60a
1-241-60b
कृष्णायापि तथा भद्रे प्रहर्षं कारयामि ते।
पश्चाज्जानामि ते वार्तां मा शोकं कुरु भामिनि।।
1-241-61a
1-241-61b
एवमुक्त्वा तु सा माता भद्रायाः प्रियकारिणी।
निवेदयामास तदा भद्रामानकदुन्दुभेः।।
1-241-62a
1-241-62b
रहस्येकासना तत्र भद्राऽस्वस्थेति चाब्रवीत्।
आरामे तु यतिः श्रीमानर्जुनश्चेति नः श्रुतम्।।
1-241-63a
1-241-63b
अक्रूराय च कृष्माय आहुकाय च सात्येकः।
निवेद्यतां महाप्राज्ञ श्रोतव्यं यदि बान्धवैः।।
1-241-64a
1-241-64b
वैशंपायन उवाच। 1-241-65x
वसुदेवस्तु तच्छ्रुत्वा अक्रूराहुकयोस्तथा।
निवेदयित्वा कृष्णेन मन्त्रयामास तैस्तदा।।
1-241-65a
1-241-65b
इदं कार्यमिदं कृत्यमिदमेवेति निश्चितः।
अक्रूरश्चोग्रसेनश्च सात्यकिश्च गदस्तथा।।
1-241-66a
1-241-66b
पृथुश्रवाश्च कृष्णश्च सहिताः शिनिना मुहुः।
रुक्मिणी सत्यभामा च देवकी रोहिणी तथा।।
1-241-67a
1-241-67b
वसुदेवेन सहिताः पुरोहितमते स्थिताः।
विवाहं मन्त्रयामासुर्द्वादशेऽहनि भारत।।
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अज्ञातं रौहिणेयस्य उद्धवस्य च भारत।
विवाहं तु सुभद्रायाः कर्तुकामो गदाग्रजः।।
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महादेवस्य पूजार्थं महोत्सव इति ब्रुवन्।
चतुस्त्रिंशदहोरात्रं सुभद्रार्तिप्रशान्तये।।
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नगरे घोषयास हितार्थं सव्यसाचिनः।
इतश्चतुर्थे त्वहनि अन्तर्द्वीपं तु गम्यताम्।।
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सदारैः सानुयात्रैश्च सपुत्रैः सहबाधवैः।
गन्तव्यं सर्ववर्मैश्च गन्तव्यं सर्वयादवैः।।
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एवमुक्तास्तु ते सर्वे तथा चक्रुश्च सर्वशः।
ततः सर्वदशार्हाणामन्तर्द्वीपे च भारत।।
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चतुस्त्रिंशदहोरात्रं बभूव परमोत्सवः।
कृष्णरामाहुकाक्रूरप्रद्युम्नशिनिसत्यकाः।।
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समुद्रं प्रययुर्हृष्टाः कुकुरान्धकवृष्णयः।
युक्तयन्त्रपताकाभिर्वृष्णयो ब्राह्मणैः सह।।
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समुद्रं प्रययुर्नौभिः सर्वे पुरनिवासिनः।
ततस्त्वरितमागत्य दाशार्हगणपूजितम्।।
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सुभद्रा पुण्डरीकाक्षमब्रवीद्यतिशासनात्।
कृत्यवान्द्वादशाहानि स्थाता स भगवानिह।।
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तिष्ठतस्तस्य कः कुर्यादुपस्थानविधिं सदा।
तमुवाच हृषीकेशः कस्त्वदन्यो विशेषतः।।
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तमृषिं प्रत्युपस्थातुमितो नार्हति माधवि।
त्वमेवास्मन्मतेनाद्य महर्षेर्वशवर्तिनी।।
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कुरु सर्वाणि कार्याणि कीर्तिं धर्ममवेक्ष्य च।
तस्य चातिथिमुख्यस्य सर्वेषां च तपस्विनाम्।।
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संविधानपरा भद्रे भव त्वं वशवर्तिनी।। 1-241-81a
वैशंपायन उवाच। 1-241-82x
एवमादिश्य भिक्षां च भद्रां च मधुसूदनः।
ययौ शङ्खप्रणादेन भेरीणां निस्वनेन च।।
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ततस्तु द्वीपमासाद्य दानधर्मपरायणाः।
उग्रसेनमुखाश्चान्ये विजहुः कुकुरान्धकाः।।
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पटहानां प्रणादैश्च भेरीणां निस्वनेन च।
सप्तयोजनविस्तार आयतो दशयोजनम्।।
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बभूव स महाद्वीपः सपर्वतमहावनः।
सेतुपुष्करिणीजालैराक्रीडः सर्वसात्वताम्।।
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वापीपल्वलसङ्घैश्च काननैश्च मनोरमैः।
वासुदेवस्य क्रीडार्थं योग्यः सर्वप्रहर्षतः।।
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कुकुरान्धकवृष्णीनां तथा प्रियकरस्तदा।
बभूव परमोपेतस्त्रिविष्टप इवापरः।।
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चतुस्त्रिंशदहोरात्रं दानधर्मपरायणाः।
उग्रसेनमुखाः सर्वे विजहुः कुकुरान्धकाः।।
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विचित्रमाल्याभरणाश्चित्रगन्धानुलेपनाः।
विहाराभिगताः सर्वे यादवा हर्षसंयुताः।।
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सुनृत्तगीतवादित्रै रममाणास्तदाऽभवन्।
प्रतियाते दशार्हाणामृषभे शार्ङ्गधन्वनि।
सुभध्रोद्वाहनं पार्थः प्राप्तकालममन्यत।।
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।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि
सुभद्राहरणपर्वणि
एकचत्वारिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 241 ।।
आदिपर्व-240 पुटाग्रे अल्लिखितम्। आदिपर्व-242
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