महाभारतम्-01-आदिपर्व-248
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युधिष्ठिरस्य राज्यपरिपालनप्रकारवर्णनम्।। 1 ।।
तत्रैव निवसता श्रीकृष्णेन सहार्जुनस्य जलक्रीडार्थं यमुनां प्रति गमनम्।। 2 ।।
सस्त्रीकयोस्तयोर्जलक्रीडावर्णनम्।। 3 ।।
ब्राह्मणरूपस्याग्नेस्तत्रागमनम्।। 4 ।।
वैशंपायन उवाच। | 1-248-1x |
इन्द्रप्रस्थे वसन्तस्ते जघ्रुरन्यान्नराधिपान्। शासनाद्धृतराष्ट्रस्य राज्ञः शान्तनवस्य च।। | 1-248-1a 1-248-1b |
आश्रित्य धर्मराजानं सर्वलोकोऽवसत्सुखम्। पुण्यलक्षणकर्माणं स्वदेहमिव देहिनः।। | 1-248-2a 1-248-2b |
स समं धर्मकामार्थान्सिषेवे भरतर्षभ। त्रीनिवात्मसमान्बन्धून्नीतिमानिव मानयन्।। | 1-248-3a 1-248-3b |
तेषां समविभक्तानां क्षितौ देहवतामिव। बभौ धर्मार्थकामानां चतुर्थ इव पार्थिवः।। | 1-248-4a 1-248-4b |
अध्येतारं परं वेदान्प्रयोक्तारं महाध्वरे। रक्षितारं शुभाँल्लोकाँल्लोभिरे तं जनाधिपम्।। | 1-248-5a 1-248-5b |
अधिष्ठानवती लक्ष्मीः परायणवती मतिः। वर्धमानोऽखिलो धर्मस्तेनासीत्पृथिवीक्षिताम्।। | 1-248-6a 1-248-6b |
भ्रातृभिः सहितौ राजा चतुर्भिरधिकं बभौ। प्रयुज्यमानैर्विततो वेदैरिव महाध्वरः।। | 1-248-7a 1-248-7b |
तं तु धौम्यादयो विप्राः परिवार्योपतस्थिरे। बृहस्पतिसमा मुख्याः प्रजापतिमिवामराः।। | 1-248-8a 1-248-8b |
धर्मराजे ह्यतिप्रीत्या पूर्णचन्द्र इवामले। प्रजानां रेमिरे तुल्यं नेत्राणि हृदयानि च।। | 1-248-9a 1-248-9b |
न तु केवलदैवेन प्रजा भावेन रेमिरे। यद्बभूव मनःकान्तं कर्मणा स चकार तत्।। | 1-248-10a 1-248-10b |
न ह्ययुक्तं न चासत्यं नासह्यं न च वाऽप्रियम्। भाषितं चारुभाषस्य जज्ञे पार्थस्य धीमतः।। | 1-248-11a 1-248-11b |
स हि सर्वस्य लोकस्य हितमात्मन एव च। चिकीर्षन्सुमहातेजा रेमे भरतसत्तम।। | 1-248-12a 1-248-12b |
तथा तु मुदिताः सर्वे पाण्डवा विगतज्वराः। अवसन्पृथिवीपालाँस्तापयन्तः स्वतेजसा।। | 1-248-13a 1-248-13b |
ततः कतिपयाहस्य बीभत्सुः कृष्णमब्रवीत्। उष्णानि कृष्ण वर्तन्ते गच्छावो यमुनां प्रति।। | 1-248-14a 1-248-14b |
सुहृज्जनवृतौ तत्र विहृत्य मधुसूदन। सायाह्ने पुनरेष्यावो रोचतां ते जनार्दन।। | 1-248-15a 1-248-15b |
वासुदेव उवाच। | 1-248-16x |
कुन्तीमातर्ममाप्येतद्रोचते यद्वयं जले। सुहृज्जनवृताः पार्थ विहरेम यथासुखम्।। | 1-248-16a 1-248-16b |
वैशंपायन उवाच। | 1-248-17x |
आमन्त्र्य तौ धर्मराजमनुज्ञाप्य च भारत। जग्मतुः पार्थगोविन्दौ सुहृज्जनवृतौ ततः।। | 1-248-17a 1-248-17b |
`विहरन्खाण्डवप्रस्थे काननेषु च माधवः। पुष्पितोपवनां दिव्यां ददर्श यमुनां नदीम्।। | 1-248-18a 1-248-18b |
तस्यास्तीरे वनं दिव्यं सर्वर्तुसुमनोहरम्। आलयं सर्वभूतानां खाण्डवं खड्गचर्मभृत्।। | 1-248-19a 1-248-19b |
ददर्श कृत्स्नं तं देशं सहितः सव्यसाचिना। ऋक्षगोमायुशार्दूलवृककृष्णमृगान्वितम्।। | 1-248-20a 1-248-20b |
शाखामृगगणैर्जुष्टं गजद्वीपिनिषेवितम्। शकबर्हिणदात्यूहहंससारसनादितम्।। | 1-248-21a 1-248-21b |
नानामृगसहस्रैश्च पक्षिभिश्च समावृतम्। मानार्हं तच्च सर्वेषां देवदानवरक्षसाम्।। | 1-248-22a 1-248-22b |
आलयं पन्नगेन्द्रस्य तक्षकस्य महात्मनः। वेणुशाल्मलिबिल्वातिमुक्तजंब्वाम्रचम्पकैः।। | 1-248-23a 1-248-23b |
अङ्कोलपनसाश्वत्थतालजम्बीरवञ्जुलैः। एकपद्मकतालैश्च शतशश्चैव रौहिणैः।। | 1-248-24a 1-248-24b |
नानावृक्षैः समायुक्तं नानागुल्मसमावृतम्। वेत्रकीचकसंयुक्तमाशीविषनिषेवितम्।। | 1-248-25a 1-248-25b |
विगतार्कं महाभोगविततद्रुमसङ्कटम्। व्यालदंष्ट्रिगणाकीर्णं वर्जितं सर्वमानुषैः।। | 1-248-26a 1-248-26b |
रक्षसां भुजगेन्द्राणां पक्षिणां च महालयम्। खाण्डवं सुमहाप्राज्ञः सर्वलोकविभागवित्।। | 1-248-27a 1-248-27b |
दृष्टवान्सर्वलोकेश अर्जुनेन समन्वितः। पीताम्बरधरो देवस्तद्वनं बहुधा चरन्।। | 1-248-28a 1-248-28b |
सद्रुमस्य सयक्षस्य सभूतगणपक्षिणः। खाण्डवस्य विनाशं तं ददर्श मधुसूदनः।।' | 1-248-29a 1-248-29b |
विहारदेशं संप्राप्य नानाद्रुममनुत्तमम्। गृहैरुच्चावचैर्युक्तं पुरन्दरपुरोपमम्।। | 1-248-30a 1-248-30b |
भक्ष्यैर्भोज्यैश्च पेयैश्च रसवद्बिर्महाधनैः। माल्यैश्च विविधैर्गन्धैस्तथा वार्ष्मेयपाण्डवौ।। | 1-248-31a 1-248-31b |
तदा विविशतुः पूर्णं रत्नैरुच्चावचैः शुभैः। यथोपजोषं सर्वश्च जनश्चिक्रीड भारत।। | 1-248-32a 1-248-32b |
स्त्रियश्च विपुलश्रोष्ण्यश्चारुपीनपयोधराः। मदस्खलितगामिन्यश्चिक्रीडुर्वामलोचनाः।। | 1-248-33a 1-248-33b |
वने काश्चिज्जले काश्चित्काश्चिद्वेश्मसु चाङ्गनाः। यथादेशं यथाप्रीति चिक्रीडुः पार्थकृष्णयोः।। | 1-248-34a 1-248-34b |
वासुदेवप्रिया नित्यं सत्यभामा च भामिनी। द्रौपदी च सुभद्रा च वासांस्याभरणानि च। प्रायच्छन्त महाराज स्त्रीणां ताः स्म मदोत्कटाः।। | 1-248-35a 1-248-35b 1-248-35c |
काश्चित्प्रहृष्टा ननृतुश्चुक्रुशुश्च तथा पराः। जहसुश्च परा नार्यः पपुश्चान्या वरासवम्।। | 1-248-36a 1-248-36b |
रुरुधुश्चापरास्तत्र प्रजघ्नुश्च परस्परम्। मन्त्रयामासुरन्याश्च रहस्यानि परस्परम्।। | 1-248-37a 1-248-37b |
वेणुवीणामृदङ्गानां मनोज्ञानां च सर्वशः। शब्देन पूर्यते हर्म्यं तद्वनं सुमहर्द्धिमत्।। | 1-248-38a 1-248-38b |
तस्मिंस्तदा वर्तमानो कुरुदाशार्हनन्दनौ। समीपं जग्मतुः कंचिदुद्देशं सुमनोहरम्।। | 1-248-39a 1-248-39b |
तत्र गत्वा महात्मानौ कृष्णौ परपुरञ्जयौ। महार्हासनयो राजंस्ततस्तौ सन्निषीदतुः।। | 1-248-40a 1-248-40b |
तत्र पूर्वव्यतीतानि विक्रान्तानीतराणि च। बहूनि कथयित्वा तौ रेमाते पार्थमाधवौ।। | 1-248-41a 1-248-41b |
तत्रोपविष्टौ मुदितौ नाकपृष्ठेऽश्विनाविव। अभ्यागच्छत्तदा विप्रो वासुदेवधनञ्जयौ।। | 1-248-42a 1-248-42b |
बृहच्छालप्रतीकाशः प्रतप्तकनकप्रभः। हरिपिङ्गोज्ज्वलश्मश्रुः प्रमाणायामतः समः।। | 1-248-43a 1-248-43b |
तरुणादित्यसङ्काशश्चीरवासा जटाधरः। पद्मपत्राननः पिङ्गस्तेजसा प्रज्वलन्निव।। | 1-248-44a 1-248-44b |
जगाम तौ कृष्णपार्थौ दिधक्षुः खाण्डवं वनम्। उपसृष्टं तु तं कृष्णो भ्राजमानं द्विजोत्तमम्। अर्जनो वासुदेवश्च तूर्णमुत्पत्य तस्थतुः।। | 1-248-45a 1-248-45b 1-248-45c |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि खाण्डवदाहपर्वणि अष्टचत्वारिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 248 ।। |
1-248-14 उष्णानि निधाधदिनानि।।
1-248-16 कुन्ती माता यस्येति नेकुन्तामातर्हेऽर्जुन।। 1-248-30 गृहैः मध्येयमुनं निर्मितैः क्रीडावाप्यादियुक्तैः।। 1-248-39 उद्देशं प्रदेशम्।। 1-248-43 हरिपिङ्गः नीलपीताखिलाङ्गः। ज्वलश्मश्रुः ज्वालावत्पीतश्मश्रुः।। अष्टचत्वारिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 248 ।।
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