महाभारतम्-01-आदिपर्व-149
← आदिपर्व-148 | महाभारतम् प्रथमपर्व महाभारतम्-01-आदिपर्व-149 वेदव्यासः |
आदिपर्व-150 → |
द्रुपदस्य याजोपयाजसमीपगमनम्।। 1 ।।
उपयाजेन द्रोणविनाशकपुत्रोत्पादनार्थं याजनाय प्रार्थिते याजनस्य प्रत्याख्यानम्।। 2 ।।
याजेनाङ्गीकारे यजनारम्भः।। 3 ।।
अपत्यप्रदहविःप्राशनार्थं द्रुपदपत्न्या आह्वाने गर्वात्तया विलम्बनम्।। 4 ।।
क्रुद्धाभ्यां याजोपयाजाभ्यां अग्नौ हृविषो होमेनाग्निकुण्डाद्धृष्टद्युम्नस्योत्पत्तिः।। 5 ।।
द्वितीयहविषो होमेन पाञ्चाल्या उत्पत्तिः।। 6 ।।
तयोर्नामकरणम्।। 7 ।।
द्रोणाद्धृष्टद्युम्नस्यास्त्रशिक्षणम्।। 8 ।।
`वैशंपायन उवाच। | 1-149-1x |
द्रोणेन वैरं द्रुपदो न सुष्वाप स्मरंस्तदा। क्षात्रेण वै बलेनास्य नाऽशशंसे पराजयम्।। | 1-149-1a 1-149-1b |
हीनं विदित्वा चात्मानं ब्राह्मेणापि बलेन च। द्रुपदोऽमर्षणाद्राजा कर्मसिद्धान्द्विजोत्तमान्।। | 1-149-2a 1-149-2b |
अन्विच्छन्परिचक्राम ब्राह्मणावसथान्बहून्। नास्ति श्रेष्ठं ममापत्यं धिग्बन्धूनिति च ब्रुवन्।। | 1-149-3a 1-149-3b |
निश्वासपरमो ह्यासीद्द्रोणं प्रतिचिकीर्षया। न सन्ति मम मित्राणि लोकेऽस्मिन्नास्ति वीर्यवान्।। | 1-149-4a 1-149-4b |
पुत्रजन्म परीप्सन्वै पृथिवीमन्वयादिमाम्। प्रभावशिक्षाविनयाद्द्रोणस्यास्त्रबलेन च।। | 1-149-5a 1-149-5b |
कर्तुं प्रयतमानो वै न शशाक पराजयम्। अभितः सोऽथ कल्माषीं गङ्गातीरे परिभ्रमन्।। | 1-149-6a 1-149-6b |
ब्राह्मणावसथं पुण्यमाससाद महीपतिः। तत्र नास्नातकः कश्चिन्न चासीदव्रतो द्विजः।। | 1-149-7a 1-149-7b |
तथैव तौ महाभागौ सोऽपश्यच्छंसितव्रतौ। याजोपयाजौ ब्रह्मर्षी भ्रातरौ पृषतात्मजः।। | 1-149-8a 1-149-8b |
संहिताध्ययने युक्तौ गोत्रतश्चापि काश्यपौ। अरण्ये युक्तरूपौ तौ ब्राह्मणावृषिसत्तमौ।। | 1-149-9a 1-149-9b |
स उपामन्त्रयामास सर्वकामैरतन्द्रितः। बुद्ध्वा तयोर्बलं बुद्धिं कनीयांसमुपह्वरे।। | 1-149-10a 1-149-10b |
प्रपेदे छन्दयन्कामैरुपयाजं धृतव्रतम्। गुरुशुश्रूषणे युक्तः प्रियकृत्सर्वकामदम्।। | 1-149-11a 1-149-11b |
पाद्येनासनदानेन तथाऽर्घ्येण फलैश्च तम्। अर्हयित्वा यथान्यायमुपयाजोऽब्रवीत्ततः।। | 1-149-12a 1-149-12b |
येन कार्यविशेषेण त्वमस्मानभिकाङ्क्षसे। कृतश्चायं समुद्योगस्तद्ब्रवीतु भवानिति।। | 1-149-13a 1-149-13b |
वैशंपायन उवाच। | 1-149-14x |
स बुद्ध्वा प्रीतिसंयुक्तमृषीणामुत्तमं तदा। उवाच छन्दयन्कामैर्द्रुपदः स तपस्विनम्।। | 1-149-14a 1-149-14b |
येन मे कर्मणा ब्रह्मन्पुत्रः स्याद्द्रोणमृत्येव। उपयाज चरस्वैतत्प्रदास्यामि धनं तव।। | 1-149-15a 1-149-15b |
उपयाज उवाच। | 1-149-16x |
नाहं फलार्थी द्रुपद योऽर्थी स्यात्तत्र गम्यताम्। | 1-149-16a |
वैशंपायन उवाच। | 1-149-16x |
प्रत्याख्यातस्तु तेनैवं स वै सज्जनसंनिधौ।। | 1-149-16b |
आराधयिष्यन्द्रुपदः स तं पर्यचरत्तदा। ततः संवत्सरस्यान्ते द्रुपदं द्विजसत्तमः।। | 1-149-17a 1-149-17b |
उपयाजोऽब्रवीद्वाक्यं काले मधुरया गिरा। ज्येष्ठो भ्राता न मेऽत्याक्षीद्विचरन्विजने वने।। | 1-149-18a 1-149-18b |
अपरिज्ञातशौचायां भूमौ निपतितं फलम्। तदपश्यमहं भ्रातुरसांप्रतमनुव्रजन्।। | 1-149-19a 1-149-19b |
विमर्शं हि फलादाने नायं कुर्यात्कथंचन। नापश्यत्फलं दृष्ट्वा दोषांस्तस्याऽऽनुबन्धिकान्।। | 1-149-20a 1-149-20b |
विविनक्ति न शौचार्थी सोऽन्यत्रापि कथं भवेत्। संहिताध्ययनस्यान्ते पञ्चयज्ञान्निरूप्य च।। | 1-149-21a 1-149-21b |
भैक्षमुञ्छेन सहितं भुञ्जानस्तु तदा तदा। कीर्तयत्येव राजर्षे भोजनस्य रसं पुनः।। | 1-149-22a 1-149-22b |
संहिताध्ययनं कुर्वन्वने गुरुकुले वसन्। भैक्षमुच्छिष्टमन्येषां भुङ्क्ते स्म सततं तथा।। | 1-149-23a 1-149-23b |
कीर्तयन्गुणमन्नानामथ प्रीतो मुहुर्मुहुः। एवं फलार्थिनस्त्समान्मन्येऽहं तर्कचक्षुषा।। | 1-149-24a 1-149-24b |
तं वै गच्छेह नृपते त्वां स संयाजयिष्यति।। | 1-149-25a |
वैशंपायन उवाच। | 1-149-26x |
उपयाजवचः श्रुत्वा याजस्याश्रममभ्यगात्। जुगुप्समानो नृपतिर्मनसेदं विचिन्तयन्।। | 1-149-26a 1-149-26b |
भृशं संपूज्य पूजार्हमृषिं याजमुवाच ह। गोशतानि ददान्यष्टौ याज याजय मां विभो।। | 1-149-27a 1-149-27b |
द्रोणवैरान्तरे तप्तं विषण्णं शरणागतम्। ब्रह्मबन्धुप्रणिहितं न क्षत्रं क्षत्रियो जयेत्।। | 1-149-28a 1-149-28b |
तस्माद्द्रोणभयार्तं मां भवांस्त्रातुमिहार्हति। येन मे कर्मणा ब्रह्मन्पुत्रः स्याद्द्रोणमृत्यवे।। | 1-149-29a 1-149-29b |
अर्जुनस्यापि वै भार्या भवेद्या वरवर्णिनी। स हि ब्रह्मविदां श्रेष्ठो ब्राह्मे क्षात्रेऽप्यनुत्तमः।। | 1-149-30a 1-149-30b |
ततो द्रोणस्तु माऽजैषीत्सखिविग्रहकारणात्। क्षत्रियो नास्ति तुल्योऽस्य पृथिव्यां कश्चिदग्रणीः।। | 1-149-31a 1-149-31b |
भारताचार्यमुख्यस्य भारद्वाजस्य धीमतः। द्रोणस्य शरजालानि रिपुदेहहराणि च।। | 1-149-32a 1-149-32b |
षडरत्नि धनुश्चास्य खड्गमप्रतिम तथा। स हि ब्राह्मणवेषेण क्षात्रं वेगमसंशयम्।। | 1-149-33a 1-149-33b |
प्रतिहन्ति महेष्वासो भारद्वाजो महामनाः। कार्तवीर्यसमो ह्येष खट्वाङ्गप्रतिमो रणे।। | 1-149-34a 1-149-34b |
क्षत्रोच्छेदाय विहितो जामदग्न्य इवास्थितः।। | 1-149-35a |
सहितं क्षत्रवेगेन ब्रह्मवेगेन सांप्रतम्। उपपन्नं हि मन्येऽहं भारद्वाजं यशस्विनम्।। | 1-149-36a 1-149-36b |
नेषवस्तमपाकुर्युर्न च प्रासा न चासयः। ब्राह्मं तस्य महातेजो मन्त्राहुतिहुतं यथा।। | 1-149-37a 1-149-37b |
तस्य ह्यस्त्रबलं घोरमप्रसह्यं परैर्भुवि। शत्रून्समेत्य जयति क्षत्रं ब्रह्मपुरस्कृतम्।। | 1-149-38a 1-149-38b |
ब्रह्मक्षत्रे च सहिते ब्रह्मतेजो विशिष्यते। सोऽहं क्षत्रबलाद्दीनो ब्रह्मतेजः प्रपेदिवान्।। | 1-149-39a 1-149-39b |
द्रोणाद्विशिष्टमासाद्य भवन्तं ब्रह्मवित्तमम्। द्रोणान्तकमहं पुत्रं लभेयं युधि दुर्जयम्।। | 1-149-40a 1-149-40b |
द्रोणमृत्युर्यथा मेऽद्य पुत्रो जायेत वीर्यवान्। तत्कर्म कुरु मे याज निर्वपाम्यर्बुद्धं गवाम्।। | 1-149-41a 1-149-41b |
वैशंपायन उवाच। | 1-149-42x |
तथेत्युक्त्वा तुं तं याजो यज्ञार्थमुपकल्पयन्। गुर्वर्थ इति चाकाममुपयाजमचोदयत्।। | 1-149-42a 1-149-42b |
द्रुपदं च महाराजमिदं वचनमब्रवीत्। मा भैस्त्वं संप्रदास्यामि कर्मणा भवतः सुतम्।। | 1-149-43a 1-149-43b |
क्षिप्रमुत्तिष्ठ चाव्यग्रः संभारानुपकल्पय। | 1-149-44a |
वैशंपायन उवाच। | 1-149-44x |
एवमुक्त्वा प्रतिज्ञाय कर्म चास्याददे मुनिः।। | 1-149-44b |
ब्राह्मणो द्विपदां श्रेष्ठो यथाविधि कथाक्रमम्। याजो द्रोणविनाशाय याजयामास तं नृपम्।। | 1-149-45a 1-149-45b |
गुर्वर्थेऽयोजयत्कर्म याजस्यापि समीपतः। ततस्तस्य नरेन्द्रस्य उपयाजो महातपाः।। | 1-149-46a 1-149-46b |
आचव्यौ कर्म वैतानं तथा पुत्रफलाय वै। इह पुत्रो महावीर्यो महातेजा महाबलः। इष्यते यद्विधो राजन्भविता स तथाविधः।। | 1-149-47a 1-149-47b 1-149-47c |
वैशंपायन उवाच। | 1-149-48x |
भारद्वाजस्य हन्तारं सोऽभिसन्धाय पार्थिवः। आजहेऽथ तदा राजन्द्रुपदः कर्म सिद्धये।। | 1-149-48a 1-149-48b |
ब्राह्मणो द्विपदां श्रेष्ठो जुहाव च यथाविधि। कौसवी नाम तस्यासीद्या वै तां पुत्रगृद्धिनः।। | 1-149-49a 1-149-49b |
सौत्रामणिं तथा पत्नीं ततः कालेऽभ्ययात्तदा। याजस्तु सवनस्यान्ते देवीमाह्वापयत्तदा।। | 1-149-50a 1-149-50b |
प्रेहि मां राज्ञि पृषति मिथुनं त्वामुपस्थितम्। कुमारश्च कुमारी च पितृवंशविवृद्धये।। | 1-149-51a 1-149-51b |
पृषत्युवाच। | 1-149-52x |
नालिप्तं वै मम मुखं पुण्यान्गन्धान्बिभर्मि च। न पत्नी तेऽस्मि सूत्यर्थे तिष्ठ याज मम प्रिये।। | 1-149-52a 1-149-52b |
याज उवाच। | 1-149-53x |
याजेन श्रपितं हव्यमुपयाजेन मन्त्रितम्। कथं कामं न संदध्यात्पृषति प्रेहि तिष्ठ वा।। | 1-149-53a 1-149-53b |
वैशंपायन उवाच। | 1-149-54x |
एवमुक्त्वा तु याजेन हुते हविषि संस्कृते। उत्तस्थौ पावकात्तस्मात्कुमारो देवसंनिभः।। | 1-149-54a 1-149-54b |
ज्वालावर्णो घोररूपः किरीटी वर्म धारयन्। वीरः सखङ्गः सशरो धनुष्मान्स नदन्मुहुः।। | 1-149-55a 1-149-55b |
सोऽभ्यरोहद्रथवरं तेन च प्रययौ तदा। जातमात्रे कुमारे च वाक्किलान्तर्हिताब्रवीत्।। | 1-149-56a 1-149-56b |
एष शिष्यश्च मृत्युश्च भारद्वाजस्य जायते। भयापहो राजपुत्रः पाञ्चालानां यशस्करः।। | 1-149-57a 1-149-57b |
राज्ञः शोकापहो जात एष द्रोणवधाय हि। इत्यवोचन्महद्भूतमदृश्यं खेचरं तदा।। | 1-149-58a 1-149-58b |
ततः प्रणेदुः पाञ्चालाः प्रहृष्टाः साधुसाध्विति। द्वितीयायां च होत्रायां हुते हविषि मन्त्रिते।। | 1-149-59a 1-149-59b |
कुमारी चापि पाञ्चाली वेदिमध्यात्समुत्थिता। प्रत्याख्याते पृषत्या च याजके भरतर्षभ।। | 1-149-60a 1-149-60b |
पुनः कुमारी पाञ्चाली सुभगा वेदिमध्यगा। अन्तर्वेद्यां समुद्भूता कन्या सा सुमनोहरा।। | 1-149-61a 1-149-61b |
श्यामा पद्मपलाशाक्षी नीलकुञ्चितमूर्धजा। मानुषं विग्रहं कृत्वा साक्षाच्छ्रीरिव वर्णिनी।। | 1-149-62a 1-149-62b |
ताम्रतुङ्गनखी सुभ्रूश्चारुपीनपयोधरा। नीलोत्पलसमो गन्धो यस्याः क्रोशात्प्रधावति।। | 1-149-63a 1-149-63b |
या बिभर्ति परं रूपं यस्या नास्त्युपमा भुवि। देवदानवयक्षाणामीप्सिता वरवर्णिनी।। | 1-149-64a 1-149-64b |
तां चापि जातां सुश्रोणीं वागुवाचाशरीरिणी। सर्वयोषिद्वरा कृष्णा क्षयं क्षत्रस्य नेष्यति।। | 1-149-65a 1-149-65b |
सुरकार्यमियं काले करिष्यति सुमध्यमा। अस्या हेतोः क्षत्रियाणां महदुत्पत्स्यते भयम्।। | 1-149-66a 1-149-66b |
तच्छ्रुत्वा सर्वपाञ्चालाः प्रणेदुः सिंहसङ्घवत्। न चैनान्हर्षसंपन्नानियं सेहे वसुन्धरा।। | 1-149-67a 1-149-67b |
तथा तु मिथुनं जज्ञे द्रुपदस्य महात्मनः। कुमारश्च कुमारी च मनोज्ञौ तौ नरर्षभौ।। | 1-149-68a 1-149-68b |
श्रिया परमया युक्तौ क्षात्रेण वपुषा तथा। तौ दृष्ट्वा पृषती याजं प्रपेदे सा सुतार्थिनी।। | 1-149-69a 1-149-69b |
न वै मदन्यां जननीं जानीयातामिमाविति। तथेत्युवाच तां याजो राज्ञः प्रियचिकीर्षया।। | 1-149-70a 1-149-70b |
तयोस्तु नामनी चक्रुर्द्विजाः संपूर्णमानसाः। धृष्टत्वादप्रधृष्यत्वात् द्युम्नाद्युत्संभवादपि।। | 1-149-71a 1-149-71b |
धृष्टद्युम्नः कुमारोऽयं द्रुपद्सय भवत्विति। कृष्णेत्येवाभवत्कन्या कृष्णा भूत्सा हि वर्णतः।। | 1-149-72a 1-149-72b |
तथा तन्मिथुनं जज्ञे द्रुपदस्य महामखे। वैदिकाध्ययने पारं धृष्टद्युम्नो गतस्तदा।। | 1-149-73a 1-149-73b |
धृष्टद्युम्नं तु पाञ्चाल्यमानीय स्वं निवेशनम्। उपाकरोदस्त्रहेतोर्भारद्वाजः प्रतापवान्।। | 1-149-74a 1-149-74b |
अमोक्षणीयं दैवं हि भावि मत्वा महामतिः। तथा तत्कृतवान्द्रोण आत्मकीर्त्यनुरक्षणात्।। | 1-149-75a 1-149-75b |
सर्वास्त्राणि स तु क्षिप्रमाप्तवान्परया धिया।। | 1-149-76a |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि संभवपर्वणि ऊनपञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः।। 149 ।। |
1-149-63 क्रोशात् क्रोशमभिव्याप्य।। 1-149-71 द्युम्नाद्युत्संभवात् हिरण्यादिभिः सह जातत्वात्।। ऊनपञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः।। 149 ।।
आदिपर्व-148 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आदिपर्व-150 |