महाभारतम्-01-आदिपर्व-183
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पाण्डवानां द्रुपदनगरप्रथानम्।। 1 ।।
वैशंपायन उवाच। | 1-183-1x |
एतच्छ्रुत्वा ततः सर्वे पाण्डवा भरतर्षभ। मनसा द्रौपदीं जग्मुरनङ्गशरपीडिताः।।' | 1-183-1a 1-183-1b |
ततस्तां रजनीं राजञ्छल्यविद्धा इवाभवन्। सर्वे चास्वस्थमनसो बभूवुस्ते महाबलाः।। | 1-183-2a 1-183-2b |
ततः कुन्ती सुतान्दृष्ट्वा सर्वांस्तद्गतचेतसः। युधिष्ठिरमुवाचेदं वचनं सत्यवादिनी।। | 1-183-3a 1-183-3b |
चिररात्रोषिताः स्मेह ब्राह्मणस्य निवेशने। रममाणाः पुरे रम्ये लब्धभैक्षा महात्मनः।। | 1-183-4a 1-183-4b |
यानीह रमणीयानि वनान्युपवनानि च। सर्वाणि तानि दृष्टानि पुनःपुनररिन्दम।। | 1-183-5a 1-183-5b |
पुनर्दृष्टानि तानीह प्रीणयन्ति न नस्तथा। भैक्षं च न तथा वीर लभ्यते कुरुनन्दन।। | 1-183-6a 1-183-6b |
ते वयं साधु पञ्चालान्गच्छाम यदि मन्यसे। अपूर्वदर्शनं वीर रमणीयं भविष्यति।। | 1-183-7a 1-183-7b |
सुभिक्षाश्चैव पञ्चालाः श्रूयन्ते शत्रुकर्शन। यज्ञसेनश्च राजाऽसौ ब्रह्मण्य इति सुश्रुम।। | 1-183-8a 1-183-8b |
एकत्र चिरवासश्च क्षमो न च मतो मम। ते तत्र साधु गच्छामो यदि त्वं पुत्र मन्यसे।। | 1-183-9a 1-183-9b |
युधिष्ठिर उवाच। | 1-183-10x |
भवत्या यन्मतं कार्यं तदस्माकं परं हितम्। अनुजांस्तु न जानामि गच्छेयुर्नेति वा पुनः।। | 1-183-10a 1-183-10b |
वैशंपायन उवाच। | 1-183-11x |
ततः कुन्ती भीमसेनमर्जुनं यमजौ तथा। उवाच गमनं ते च तथेत्येवाब्रुवंस्तदा।। | 1-183-11a 1-183-11b |
तत आमन्त्र्य तं विप्रं कुन्ती राजसुतैः सह। प्रतस्थे नगरीं रम्यां द्रुपदस्य महात्मनः।। | 1-183-12a 1-183-12b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि चैत्ररथपर्वणि त्र्यशीत्यधिकशततमोऽध्यायः।। 183 ।। |
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