महाभारतम्-01-आदिपर्व-235
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अर्जुनस्य मणलूरग्रामगमनम्।। 1 ।।
पुत्रिकापुत्रकधर्मेण चित्राङ्गदापरिग्रहः।। 2 ।।
वैशंपायन उवाच। | 1-235-1x |
कथयित्वा च तत्सर्वं ब्राह्मणेभ्यः स भारत। प्रययौ हिमवत्पार्श्वं ततो वज्रधरात्मजः।। | 1-235-1a 1-235-1b |
अगस्त्यवटमासाद्य वसिष्ठस्य च पर्वतम्। भृगुतुङ्गे च कौन्तेयः कृतवाञ्शौचमात्मनः।। | 1-235-2a 1-235-2b |
प्रददौ गोसहस्राणि सुबहूनि च भारत। निवेशांश्च द्विजातिभ्यः सोऽददत्कुरुसत्तमः।। | 1-235-3a 1-235-3b |
हिरण्यबिन्दोस्तीर्थे च स्नात्वा पुरुषसत्तमः। दृष्टवान्पाण्डवश्रेष्ठः पुण्यान्यायतनानि च।। | 1-235-4a 1-235-4b |
अवतीर्य नरश्रेष्ठो ब्राह्मणैः सह भारत। प्राचीं दिशमभिप्रेप्सुर्जगाम भरतर्षभः।। | 1-235-5a 1-235-5b |
आनुपूर्व्येण तीर्थानि दृष्टवान्कुरुसत्तमः। नदीं चोत्पलिनीं रम्यामरण्यं नैमिषं प्रति।। | 1-235-6a 1-235-6b |
नन्दामपरनन्दां च कौशिकीं च यशस्विनीम्। महानदीं गयां चैव गङ्गामपि च भारत।। | 1-235-7a 1-235-7b |
एवं तीर्थानि सर्वाणि पश्यमानस्तथाश्रमान्। आत्मनः पावनं कुर्वन्ब्राह्मणेभ्यो ददौ च गाः।। | 1-235-8a 1-235-8b |
अङ्गवङ्गकलिङ्गेषु यानि तीर्थानि कानिचित्। जगाम तानि सर्वाणि पुण्यान्यायतनानि च।। | 1-235-9a 1-235-9b |
दृष्ट्वा च विधिवत्तानि धनं चापि ददौ ततः। कलिङ्गराष्ट्रद्वारेषु ब्राह्मणाः पाण्डवानुगाः। अभ्यनुज्ञाय कौन्तेयमुपावर्तन्त भारत।। | 1-235-10a 1-235-10b 1-235-10c |
स तु तैरभ्यनुज्ञातः कुन्तीपुत्रो धनञ्जयः। सहायैरल्पकैः शूरः प्रययौ यत्र सागरः।। | 1-235-11a 1-235-11b |
स कलिङ्गानतिक्रम्य देशानायतनानि च। हर्म्याणि रमणीयानि प्रेक्षणाणो ययौ प्रभुः।। | 1-235-12a 1-235-12b |
महेन्द्रपर्वतं दृष्ट्वा तापसैरुपशोभितम्। `गोदावर्यां ततः स्नात्वा तामतीत्य महाबलः।। | 1-235-13a 1-235-13b |
कावेरीं तां समासाद्य सङ्गमे सागरस्य च। स्नात्वा संपूज्य देवांश्च पितॄंश्च मुनिभिः सह'।। | 1-235-14a 1-235-14b |
समुद्रतीरेण शनैर्मणलूरं जगाम ह।। | 1-235-15a |
तत्र सर्वाणि तीर्थानि पुण्यान्यायतनानि च। अभिगम्य महाबाहुरभ्यगच्छन्महीपतिम्।। | 1-235-16a 1-235-16b |
मणलूरेश्वरं राजन्धर्मज्ञं चित्रवाहनम्। तस्य चित्राङ्गदा नाम दुहिता चारुदर्शना।। | 1-235-17a 1-235-17b |
तां ददर्श पुरे तस्मिन्विचरन्तीं यदृच्छया। दृष्ट्वा च तां वरारोहां चकमे चैत्रवाहनीम्।। | 1-235-18a 1-235-18b |
अभिगम्य च राजानमवदत्स्वं प्रयोजनम्। देहि मे खल्विमां राजन्क्षत्रियाय महात्मने।। | 1-235-19a 1-235-19b |
तच्छ्रुत्वा त्वब्रवीद्राजा कस्य पुत्रोऽसि नाम किम्। उवाच तं पाण्डवोऽहं कुन्तीपुत्रो धनञ्जयः।। | 1-235-20a 1-235-20b |
तमुवाचाथ राजा स सान्त्वपूर्वमिदं वचः। राजा प्रभञ्जनो नाम कुलेऽस्मिन्संबभूव ह।। | 1-235-21a 1-235-21b |
अपुत्रः प्रसवेनार्थी तपस्तेपे स उत्तमम्। उग्रेण तपसा तेन देवदेवः पिनाकधृक्।। | 1-235-22a 1-235-22b |
ईश्वरस्तोषितः पार्थ देवदेवः उमापतिः। स तस्मै भघवान्प्रादादेकैकं प्रसवं कुले।। | 1-235-23a 1-235-23b |
एकैकः प्रसवस्तस्माद्भवत्यस्मिन्कुले सदा। तेषां कुमाराः सर्वेषां पूर्वेषां मम जज्ञिरे।। | 1-235-24a 1-235-24b |
एका च मम कन्येयं कुलस्योत्पादनी भृशम्। पुत्रो ममायमिति मे भावना पुरुषर्षभ।। | 1-235-25a 1-235-25b |
पुत्रिकाहेतुविधिना संज्ञिता भरतर्षभ। तस्मादेकः सुतो योऽस्यां जायते भारत त्वया।। | 1-235-26a 1-235-26b |
एतच्छुल्कं भवत्वस्याः कुलकृज्जायतामिह। एतेन समयेनेमां प्रतिगृह्णीष्व पाण्डव।। | 1-235-27a 1-235-27b |
स तथेति प्रतिज्ञाय तां कन्यां प्रतिगृह्य च। `मासे त्रयोदशे पार्थः कृत्वा वैवाहिकीं क्रियाम्।' उवास नगरे तस्मिन्मासांस्त्रीन्स तया सह।। | 1-235-28a 1-235-28b 1-235-28c |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि अर्जुनवनवासपर्वणि पञ्चत्रिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 235 ।। |
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