महाभारतम्-01-आदिपर्व-110
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संग्रहेण अम्बाचरित्रकथनम्।। 1 ।।
अम्बोवाच। | 1-110-1x |
अन्यपूर्वेति मां साल्वो नाभिनन्दति बालिशः। साहं धर्माच्च कामाच्च विहीना शोकधारिणी।। | 1-110-1a 1-110-1b |
अपतिः क्षत्रियान्सर्वानाक्रन्दामि समन्ततः। इयं वः क्षत्रिया माला या भीष्मं निहनिष्यति।। | 1-110-2a 1-110-2b |
अहं च भार्या तस्य स्यां यो भीष्मं घातयिष्यति। तस्याश्चङ्क्रम्यमाणायाः समाः पञ्च गताः पराः।। | 1-110-3a 1-110-3b |
नाभवच्छरणं कश्चित्क्षत्रियो भीष्मजाद्भयात्। अगच्छत्सोमकं साऽम्बा पाञ्चालेषु यशस्विनम्।। | 1-110-4a 1-110-4b |
सत्यसन्धं महेष्वासं सत्यधर्मपरायणम्। सा सभाद्वारमागम्य पाञ्चालैरभिरक्षितम्।। | 1-110-5a 1-110-5b |
पाञ्चालराजमाक्रन्दत्प्रगृह्य सुभुजा भुजौ। भीष्मेण हन्यमानां मां मज्जन्तीमिव च ह्रदे।। | 1-110-6a 1-110-6b |
यज्ञसेनाभिधावेह पाणिमालम्ब्य चोद्धर। तेन मे सर्वधर्माश्च रतिभोगाश्च केवलाः।। | 1-110-7a 1-110-7b |
उभौ च लोकौ कीर्तिश्च समूलौ सफलौ हृतौ। ***न्त्येवं न विन्दामि राजन्यं शरणं क्वचित्।। | 1-110-8a 1-110-8b |
किं नु निःक्षत्रियो लोको यत्रानाथोऽवसीदति। समागम्य तु राजानो मयोक्ता राजसत्तमाः।। | 1-110-9a 1-110-9b |
शृण्वन्तु सर्वे राजानो मयोक्तं राजसत्तमाः। इक्ष्वाकूणां तु ये वृद्धाः पाञ्चालानां च ये वराः।। | 1-110-10a 1-110-10b |
त्वत्प्रसादाद्विवाहेऽस्मिन्मा धर्मो मा पराजयेत्। प्रसीद यज्ञसेनेह गतिर्मे भव सोमक।। | 1-110-11a 1-110-11b |
यज्ञसेन उवाच। | 1-110-12x |
जानामि त्वां बोधयामि राजपुत्रि विशेषतः। यथाशक्ति यथाधर्मं बलं संधारयाम्यहम्।। | 1-110-12a 1-110-12b |
अन्यस्मात्पार्थिवाद्यत्ते भयं स्यात्पार्थिवात्मजे। तस्यापनयने हेतुं संविधातुमहं प्रभुः।। | 1-110-13a 1-110-13b |
नहि शान्तनवस्याहं महास्त्रस्य प्रहारिणः। ईश्वरः क्षत्रियाणां हि बलं धर्मोऽनुवर्तते।। | 1-110-14a 1-110-14b |
सा साधु व्रज कल्याणि न मां भीष्मो दहेद्बलात्। न प्रत्यगृह्णंस्ते सर्वे किमित्येव न वेद्म्यहम्।। | 1-110-15a 1-110-15b |
न हि भीष्मादहं धर्मं शक्तो दातुं कथंचन। | 1-110-16a |
वैशंपायन उवाच। | 1-110-16x |
इत्युक्ता स्रजमासज्य द्वारि राज्ञो व्यपाद्रवत्।। | 1-110-16b |
व्युदस्तां सर्वलोकेषु तपसा संशितव्रताम्। तामन्वगच्छद्द्रुपदः सान्त्वं जल्पन्पुनः पुनः।। | 1-110-17a 1-110-17b |
स्रजं गृहाण कल्याणि न नो वैरं प्रसञ्जय।। | 1-110-18a |
अम्बोवाच। | 1-110-19x |
एवमेव त्वया कार्यमिति स्म प्रतिकाङ्क्षते। न तु तस्यान्यथा भावो दैवमेतदमानुषम्।। | 1-110-19a 1-110-19b |
यश्चैनां स्रजमादाय स्वयं वै प्रतिमोक्षते। स भीष्मं समरे हन्ता मम धर्मप्रणाशनम्।। | 1-110-20a 1-110-20b |
वैशंपायन उवाच। | 1-110-21x |
तां स्रजं द्रुपदो राजा कंचित्कालं ररक्ष सः। ततो विस्रम्भमास्थाय तूष्णीमेतामुपैक्षत।। | 1-110-21a 1-110-21b |
तां शिखण्डिन्यबध्नात्तु बाला पितुरवज्ञया। तां पिता त्वत्यजच्छीघ्रं त्रस्तो भीष्मस्य किल्बिषात्।। | 1-110-22a 1-110-22b |
इषीकं ब्राह्मणं भीता साभ्यगच्छत्तपस्विनम्। गङ्गाद्वारि तपस्यन्तं तुष्टिहेतोस्तपस्विनी।। | 1-110-23a 1-110-23b |
उपचाराभितुष्टस्तामब्रवीदृषिसत्तमः। गङ्गाद्वारे विभजनं भविता नचिरादिव।। | 1-110-24a 1-110-24b |
तत्र गन्धर्वराजानं तुम्बुरुं प्रियदर्शनम्। आराधयितुमीहस्व सम्यक्परिचरस्व तम्।। | 1-110-25a 1-110-25b |
अहमप्यत्र साचिव्यं कर्तास्मि तव शोभने। तं तदाचर भद्रं ते स ते श्रेयो विधास्यति।। | 1-110-26a 1-110-26b |
ततो विभजनं तत्र गन्धर्वाणामवर्तत। तत्र द्वाववशिष्येतां गन्धर्वावमितौ जसौ।। | 1-110-27a 1-110-27b |
तयोरेकः समीक्ष्यैनां स्त्रीबुभूषुरुवाच ह। इदं गृह्णीष्व पुंलिङ्गं वृणे स्त्रीलिङ्गमेव ते।। | 1-110-28a 1-110-28b |
नियमं चक्रतुस्तत्र स्त्री पुमांश्चैव तावुभौ। ततः पुमान्समभवच्छिखण्डी परवीरहा।। | 1-110-29a 1-110-29b |
स्त्री भूत्वा ह्यपचक्राम स गन्धर्वो मुदान्वितः। लब्ध्वा तु महतीं प्रीतिं याज्ञसेनिर्महायशाः।। | 1-110-30a 1-110-30b |
ततो बुद्बुदकं गत्वा पुनरस्त्राणि सोऽकरोत्। तत्र चास्त्राणि दिव्यानि कृत्वा स सुमहाद्युतिः।। | 1-110-31a 1-110-31b |
स्वदेशमभिसंपदे पाञ्चालं कुरुनन्दन। सोऽभिवाद्य पितुः पादौ महेष्वासः कृताञ्जलिः।। | 1-110-32a 1-110-32b |
उवाच भवता भीष्मान्न भेतव्यं कथंचन।। | 1-110-33a |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि संभवपर्वणि दशाधिकशततमोऽध्यायः।। 110 ।। |
1-110-10 पाञ्चालानां च ये वराः ते राजानः मयोक्ता इति पूर्वेण संबन्धः।। 1-110-14 ईश्वरो नहि।। 1-110-16 भीष्मात् भीष्ममपेक्ष्य।। 1-110-24 विभजनं उत्सवविशेषः।। दशाधिकशततमोऽध्यायः।। 110 ।।
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