महाभारतम्-01-आदिपर्व-252
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खाण्डवदाहं दृष्ट्वा त्रस्तैर्देवैः प्रार्थितेनेन्द्रेण जलवर्षणम्।। 1 ।।
वैशंपायन उवाच। | 1-252-1x |
तौ रथाभ्यां रथश्रेष्ठौ दावस्योभयतः स्थितौ। दिक्षु सर्वासु भूतानां चक्राते कदनं महत्।। | 1-252-1a 1-252-1b |
यत्र यत्र च दृश्यन्ते प्राणिनः खाण्डवालयाः। पलायन्तः प्रवीरौ तौ तत्रतत्राभ्यधावताम्।। | 1-252-2a 1-252-2b |
छिद्रं न स्म प्रपश्यन्ति रथयोराशुचारिणोः। आविद्धावेव दृश्येते रथिनौ तौ रथोत्तमौ।। | 1-252-3a 1-252-3b |
खाण्डवे दह्यमाने तु भूतान्यथ सहस्रशः। उत्पेतुर्भैरवान्नादान्विनदन्तः समन्ततः।। | 1-252-4a 1-252-4b |
दग्धैकदेशा बहवो निष्टप्ताश्च तथाऽपरे। स्फुटिताक्षा विशीर्णाश्च विप्लुताश्च तथाऽपरे।। | 1-252-5a 1-252-5b |
समालिङ्ग्य सुतानन्ये पितॄन्भ्रातॄनथाऽपरे। त्यक्तुं न शेकुः स्नेहेन तत्रैव निधनं गताः।। | 1-252-6a 1-252-6b |
सन्दष्टदशनाश्चान्ये समुत्पेतुरनेकशः। ततस्तेऽतीव घूर्णन्तः पुनरग्नौ प्रपेदिरे।। | 1-252-7a 1-252-7b |
दग्धपक्षाक्षिचरणा विचेष्टन्तो महीतले। तत्रतत्र स्म दृश्यन्ते विनश्यन्तः शरीरिणः।। | 1-252-8a 1-252-8b |
जलाशयेषु तप्तेषु क्वाथ्यमानेषु वह्निना। गतसत्वाः स्म दृश्यन्ते कूर्ममत्स्याः समन्ततः।। | 1-252-9a 1-252-9b |
शरीरैरपरे दीप्तैर्देहवन्त इवाग्नयः। अदृश्यन्त वने तत्र प्राणिनः प्राणिसंक्षये।। | 1-252-10a 1-252-10b |
कांश्चिदुत्पततः पार्थः शरैः संछिद्य खण्डशः। पातयामास विहगान्प्रदीप्ते वसुरेतसि।। | 1-252-11a 1-252-11b |
ते शराचितसर्वाङ्गा निनदन्तो महारवान्। ऊर्ध्वमुत्पत्य वेगेन निपेतुः खाण्डवे पुनः।। | 1-252-12a 1-252-12b |
शरैरभ्याहतानां च सङ्घशः स्म वनौकसाम्। विरावः शुश्रुवे घोरः समुद्रस्येव मथ्यतः।। | 1-252-13a 1-252-13b |
वह्नेश्चापि प्रदीप्तस्य खमुत्पेतुर्महार्चिषः। जनयामासुरुद्वेगं सुमहान्तं दिवौकसाम्।। | 1-252-14a 1-252-14b |
तेनार्चिषा सुसन्तप्ता देवाः सर्षिपुरोगमाः। ततो जग्मुर्महात्मानः सर्व एव दिवौकसः। शतक्रतुं सहस्राक्षं देवेशमसुरार्दनम्।। | 1-252-15a 1-252-15b 1-252-15c |
देवा ऊचुः। | 1-252-16x |
किं न्विमे मानवाः सर्वे दह्यन्ते चित्रभानुना। कच्चिन्न संक्षयः प्राप्तो लोकानाममरेश्वर।। | 1-252-16a 1-252-16b |
वैशंपायन उवाच। | 1-252-17x |
तच्छ्रुत्वा वृत्रहा तेभ्यः स्वयमेवान्ववेक्ष्य च। खाण्डवस्य विमोक्षार्थं प्रययौ हरिवाहनः।। | 1-252-17a 1-252-17b |
महता रथबृन्देन नानारूपेण वासवः। आकाशं समवाकीर्य प्रववर्ष सुरेश्वरः।। | 1-252-18a 1-252-18b |
ततोऽक्षमात्रा व्यसृजन्धाराः शतसहस्रशः। चोदिता देवराजेन जलदाः खाण्डवं प्रति।। | 1-252-19a 1-252-19b |
असंप्राप्तास्तु ता धारास्तेजसा जातवेदसः। ख एव समुशुष्यन्त नकाश्चित्पावकं गताः।। | 1-252-20a 1-252-20b |
ततो नमुचिहा क्रुद्धो भृशमर्चिष्मतस्तदा। पुनरेव महामेघैरम्भांसि व्यसृजद्बहु।। | 1-252-21a 1-252-21b |
अर्चिर्धाराभिसंबद्धं धूमविद्युत्समाकुलम्। बभूव तद्वनं घोरं स्तनयित्नुसमाकुलम्।। | 1-252-22a 1-252-22b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि खाण्डवदाहपर्वणि द्विपञ्चाशदधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 252 ।। |
1-252-3 आविद्धावेव अलातचक्रवद्भ्रामितावेव।।
द्विपञ्चाशदधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 252 ।।
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