महाभारतम्-01-आदिपर्व-065
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विस्तरश्रवणेच्छया जनमेजयस्य प्रश्नः।। 1 ।। परशुरामेण लोके निःक्षत्रिये कृते ब्राह्मणेभ्यः क्षत्रस्य पुनरुत्पत्तिः।। 2 ।। तत्कालस्य धर्मभूयिष्ठत्वम्।। 3 ।। देवैर्निर्जितानां दानवानां भूमावुत्पत्तिः।। 4 ।। तद्भूरिभारार्तया पृथ्व्या प्रार्थितस्य ब्रह्मणो देवान्प्रत्यंशावतरणाज्ञापनम्।। 5 ।। अवतारार्थं इन्द्रेण नारायणप्रार्थना।। 6 ।।
जनमेजय उवाच। | 1-65-1x |
य एते कीर्तिता ब्रह्मन्ये चान्ये नानुकीर्तिताः। सम्यक्ताञ्श्रोतुमिच्छामिराज्ञश्चान्यान्सहस्रशः।। 1 ।। | 1-65-1a 1-65-1b |
यदर्थमिह संभूता देवकल्पा महारथाः। भुवि तन्मे महाभाग सम्यगाख्यातुमर्हसि।। | 1-65-2a 1-65-2b |
वैशम्पायन उवाच। | 1-65-3x |
रहस्यं खल्विदं राजन्देवानामिति नः श्रुतम्। तत्तु ते कथयिष्यामि नमस्कृत्वा स्वयंभुवे।। | 1-65-3a 1-65-3b |
त्रिःसप्तकृत्वः पृथिवीं कृत्वा निःक्षित्रयां पुरा। जामदग्न्यस्तपस्तेपे महेन्द्रे पर्वतोत्तमे।। | 1-65-4a 1-65-4b |
तदा निःक्षत्रिये लोके भार्गवेण कृते सति। ब्राह्मणान्क्षत्रिया राजन्सुतार्थिन्योऽभिचक्रमुः।। | 1-65-5a 1-65-5b |
ताभिः सह समापेतुर्ब्राह्मणाः संशितव्रताः। ऋतावृतौ नरव्याघ्र न कामान्नानृतौ तथा।। | 1-65-6a 1-65-6b |
तेभ्यश्च तेभिरे गर्भं क्षत्रियास्ताः सहस्रशः। ततः सुषुविरे राजन्क्षत्रियान्वीर्यवत्तरान्।। | 1-65-7a 1-65-7b |
कुमारांश्च कुमारीश्च पुनः क्षत्राभिवृद्धये। एवं तद्ब्राह्मणैः क्षत्रं क्षत्रियासु तपस्विभिः।। | 1-65-8a 1-65-8b |
जातं वृद्धं च धर्मेण सुदीर्गेणायुषान्वितम्। चत्वारोऽपि ततो वर्णा बभूवुर्ब्राह्मणोत्तराः।। | 1-65-9a 1-65-9b |
अभ्यगच्छन्नृतौ नारीं न कामान्नानृतौ तथा। तथैवान्यानि भूतानि तिर्यग्योनिगतान्यपि।। | 1-65-10a 1-65-10b |
ऋतौ दारांश्च गच्छन्ति तत्तथा भरतर्षभ। ततोऽवर्धन्त धर्मेण सहस्रशतजीविनः।। | 1-65-11a 1-65-11b |
ताः प्रजाः पृथिवीपाल धर्मव्रतपरायणाः। आधिभिर्व्याधिभिश्चैव विमुक्ताः सर्वशो नराः।। | 1-65-12a 1-65-12b |
अथेमां सागरोपान्तां गां गजेन्द्रगताखिलाम्। अध्यतिष्ठत्पुनः क्षत्रं सशैलवनपत्तनाम्।। | 1-65-13a 1-65-13b |
प्रशासति पुनः क्षत्रे धर्मेणेमां वसुन्धराम्। ब्राह्मणाद्यास्ततो वर्णा लेभिरे मुदमुत्तमाम्।। | 1-65-14a 1-65-14b |
कामक्रोधोद्भवान्दोषान्निरस्य च नराधिपाः। धर्मेण दण्डं दण्डेषु प्रणयन्तोऽन्वपालयन्।। | 1-65-15a 1-65-15b |
तथा धर्मपरे क्षत्रे सहस्राक्षः शतक्रतुः। स्वादु देशे च काले च ववर्षाप्याययन्प्रजाः।। | 1-65-16a 1-65-16b |
न बाल एव म्रियते तदा कश्चिज्जनाधिप। न च स्त्रियं प्रजानाति कश्चिदप्राप्तयौवनाम्।। | 1-65-17a 1-65-17b |
एवमायुष्मतीभिस्तु प्रजाभिर्भरतर्षभ। इयं सागरपर्यन्ता ससापूर्यत मेदिनी।। | 1-65-18a 1-65-18b |
ईजिरे च महायज्ञैः क्षत्रिया बहुदक्षिणैः। साङ्गोपनिषदान्वेदान्विप्राश्चाधीयते तदा।। | 1-65-19a 1-65-19b |
न च विक्रीणते ब्र्हम ब्राह्मणाश्च तदा नृप। न च शूद्रसमभ्याशे वेदानुच्चारयन्त्युत।। | 1-65-20a 1-65-20b |
कारयन्तः कृषिं गोभिस्तथा वैश्याः क्षिताविह। युञ्जते धुरि नो गाश्च कृशाङ्गांश्चाप्यजीवयन्।। | 1-65-21a 1-65-21b |
फेनपांश्च तथा वत्सान्न दुहन्ति स्म मानवाः। न कूटमानैर्वणिजः पण्यं विक्रीणते तदा।। | 1-65-22a 1-65-22b |
कर्माणि च नरव्याघ्र धर्मोपेतानि मानवाः। धर्ममेवानुपश्यन्तश्चक्रुर्धर्मपरायणाः।। | 1-65-23a 1-65-23b |
स्वकर्मनिरताश्चासन्सर्वे वर्णा नराधिप। एवं तदा नरव्याघ्र धर्मो न ह्रसते क्वचित्।। | 1-65-24a 1-65-24b |
काले गावः प्रसूयन्ते नार्यश्च भरतर्षभ। भवन्त्यृतुषु वृक्षाणां पुष्पाणि च फलानि च।। | 1-65-25a 1-65-25b |
एवं कृतयुगे सम्यग्वर्तमाने तदा नृप। आपूर्यत मही कृत्स्ना प्राणिभिर्बहुभिर्भृशम्।। | 1-65-26a 1-65-26b |
एवं समुदिते लोके मानुषे भरतर्षभ। असुरा जज्ञिरे क्षेत्रे राज्ञां तु मनुजेश्वर।। | 1-65-27a 1-65-27b |
आदित्यैर्हि तदा दैत्या बहुशो निर्जिता युधि। ऐश्वर्याद्धंशिताः स्वर्गात्संबभूवुः क्षिताविह।। | 1-65-28a 1-65-28b |
इह देवत्वमिच्छन्तो मानुषेषु तपस्विनः। जज्ञिरे भुवि भूतेषु तेषु तेष्वसुरा विभो।। | 1-65-29a 1-65-29b |
गोष्वश्वेषु च राजेन्द्र खरोष्ट्रमहिषेषु च। क्रव्यात्सु चैव भूतेषु गजेषु च मृगेषु च।। | 1-65-30a 1-65-30b |
जातैरिह महीपाल जायमानैश्च तैर्मही। न शशाकात्मनात्मानमियं धारयितुं धरा।। | 1-65-31a 1-65-31b |
अथ जाता महीपालाः केचिद्बहुमदान्विताः। दितेः पुत्रा दनोश्चैव तदा लोकादिह च्युताः।। | 1-65-32a 1-65-32b |
वीर्यवन्तोऽवलिप्तास्ते नानारूपधरा महीम्। इमां सागरपर्यन्तां परीयुररिमर्दनाः।। | 1-65-33a 1-65-33b |
ब्राह्मणान्क्षत्रियान्वैश्याञ्शूद्रांश्चैवाप्यपीडयन्। अन्यानि चैव सत्वानि पीडयामासुरोजसा।। | 1-65-34a 1-65-34b |
त्रासयन्तोऽभिनिघ्नन्तः सर्वभूतगणांश्च ते। विचेरुः सर्वशो राजन्महीं शतसहस्रशः।। | 1-65-35a 1-65-35b |
आश्रमस्थान्महर्षींश्च धर्षयन्तस्ततस्ततः। अब्रह्मण्या वीर्यमदा मत्ता मदबलेन च।। | 1-65-36a 1-65-36b |
एवं वीर्यबलोत्सिक्तैर्भूरियं तैर्महासुरैः। पीड्यमाना मही राजन्ब्रह्माणमुपचक्रमे।। | 1-65-37a 1-65-37b |
न ह्यमी भूतसत्वौघाः पन्नगाः सनगां महीम्। तदा धारयितुं शेकुराक्रान्तां दानवैर्बलात्।। | 1-65-38a 1-65-38b |
ततो मही महीपाल भारार्ता भयपीडिता। जगाम शरणं देवं सर्वभूतपितामहम्।। | 1-65-39a 1-65-39b |
सा संवृतं महाभागैर्देवद्विजमहर्षिभिः। ददर्श देवं ब्रह्माणं लोककर्तारमव्ययम्।। | 1-65-40a 1-65-40b |
गन्धर्वैरप्सरोभिश्च बन्दिकर्मसु निष्ठितैः। वन्द्यमानं मुदोपतैर्ववन्दे चैनमेत्य सा।। | 1-65-41a 1-65-41b |
अथ विज्ञापयामास भूमिस्तं शरणार्थिनी। सन्निधौ लोकपालानां सर्वेषामेव भारत।। | 1-65-42a 1-65-42b |
तत्प्रधानात्मनस्तस्य भूमेः कृत्यं स्वयंभुवः। पूर्वमेवाभवद्राजन्विदितं परमेष्ठिनः।। | 1-65-43a 1-65-43b |
स्रष्टा हि जगतः कस्मान्न संबुध्येत भारत। ससुरासुरलोकानामशेषेण मनोगतम्।। | 1-65-44a 1-65-44b |
तामुवाच महाराज भूमिं भूमिपतिः प्रभुः। प्रभवः सर्वभूतानामीशः शंभुः प्रजापतिः।। | 1-65-45a 1-65-45b |
ब्रह्मोवाच। | 1-65-46x |
यदर्थमभिसंप्राप्ता मत्सकाशं वसुन्धरे। तदर्थं सन्नियोक्ष्यामि सर्वानेव दिवौकसः।। | 1-65-46a 1-65-46b |
`उत्तिष्ठ गच्छ वसुधे स्वस्थानमिति साऽगमत्।' | 1-65-47a |
वैशंपायन उवाच। | 1-65-47x |
इत्युक्त्वा स महीं देवो ब्रह्मा राजन्विसृज्य च। आदिदेश तदा सर्वान्विबुधान्भूतकृत्स्वयम्।। | 1-65-47b 1-65-47c |
अस्या भूमेर्निरसितुं भारं भागैः पृथक्पृथक्। अस्यामेव प्रसूयध्वं तिरोधायेति चाब्रवीत्।। | 1-65-48a 1-65-48b |
तथैव च समानीय गन्धर्वाप्सरसां गणान्। उवाच भगवान्सर्वानिदं वचनमर्थवत्।। | 1-65-49a 1-65-49b |
ब्रह्मोवाच। | 1-65-50x |
स्वैः स्वैरंशैः प्रसूयध्वं यथेष्टं मानेषेषु च। | 1-65-50a |
वैशम्पायन उवाच। | 1-65-50x |
अथ शक्रादयः सर्वे श्रुत्वा सुरगुरोर्वचः। तथ्यमर्थ्यं च पथ्यं च तस्य ते जगृहुस्तदा।। | 1-65-50b 1-65-50c |
अथ ते सर्वशोंशैः स्वैर्गन्तुं भूमिं कृतक्षणाः। नारायणममित्रघ्नं वैकुण्ठमुपचक्रमुः।। | 1-65-51a 1-65-51b |
यः स चक्रगदापाणिः पीतवासाः शितिप्रभः। पद्मनाभः सुरारिघ्नः पृथुचार्वञ्चितेक्षणः।। | 1-65-52a 1-65-52b |
प्रजापतिपतिर्देवः सुरनाथो महाबलः। श्रीवत्साङ्को हृषीकेशः सर्वदैवतपूजितः।। | 1-65-53a 1-65-53b |
तं भुवः शोधनायेन्द्र उवाच पुरुषोत्तमम्। अंशेनावतरेत्येवं तथेत्याह च तं हरिः।। | 1-65-54a 1-65-54b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि अंशावतरणपर्वणि पञ्चषष्टितमोऽध्यायः।। 65 ।। | |
।। समाप्तमंशावतरणपर्व ।। |
-65-4 त्रिःसप्तकृत्वा एकविंशतिवारान्।। 1-65-13 हे गजेन्द्रगत हे गजेन्द्रगमन।। 1-65-20 ब्रह्म वेदं न विक्रीणते भृतकाध्यापनं न कुर्वत इत्यर्थः।। 1-65-21 वैश्याः स्वयं धुरि गा बलीवर्दान् न युञ्जते।। 1-65-22 फेनपान् अतृणादानभिलक्ष्य न दुहन्ति धेनूरिति शेषः। कूटमानैः कपटतुलाप्रस्थादिभिः।। 1-65-29 देवत्वं राजत्वम्।। 1-65-36 मही उपचक्रमे गन्तुमिति शेषः।। 1-65-48 तिरोधाय स्वंस्वं रूपं प्रच्छाद्य।। 1-65-54 शोधनाय कण्टकभूतखलोन्मूलनाय।। पञ्चषष्टितमोऽध्यायः।। 65 ।।
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