महाभारतम्-01-आदिपर्व-030
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भग्नशाखाया अधोभागे लम्बमानवालखिल्यरक्षणार्थं मुखेन शाखाग्रहणम्।। 1 ।। कश्यपाज्ञया हिमालयं गत्वा तत्र शाखां परित्यज्य तत्रैव स्थित्वा गजकच्छपभक्षणम्।। 2 ।। उत्पातान्दृष्ट्वा देवैः कृतोऽमृतरक्षणोपायः।। 3 ।।
सौतिरुवाच। | 1-30-1x |
स्पष्टमात्रा तु पद्भ्यां सा गरुडेन बलीयसा। अभज्यत तरोः शाखा भग्नां चैकामधारयत्।। | 1-30-1a 1-30-1b |
तां भङ्क्त्वा स महाशाखां स्मयमानो विलोकयन्। अथात्रं लम्बतोऽपश्यद्वालखिल्यानधोमुखान्।। | 1-30-2a 1-30-2b |
ऋषयो ह्यत्र लम्बन्ते न हन्यामिति तानृषीन्। तपोरतांल्लम्बमानान्ब्रह्मर्षीनभिवीक्ष्य सः।। | 1-30-3a 1-30-3b |
हन्यादेतान्संपतन्ती शाखेत्यथ विचिन्त्य सः। नखैर्दृढतरं वीरः संगृह्य गजकच्छपौ।। | 1-30-4a 1-30-4b |
स तद्विनाशसंत्रासादभिपत्य स्वगाधिपः। शाखामास्येन जग्राह तेषामेवान्ववेक्षया।। | 1-30-5a 1-30-5b |
अतिदैवं तु तत्तस्य कर्म दृष्ट्वा महर्षयः। विस्मयोत्कम्पहृदया नाम चक्रुर्महाखगे।। | 1-30-6a 1-30-6b |
गुरुं भारं समासाद्योड्डीन एष विहङ्गमः। गरुडस्तु खगश्रेष्ठस्तस्मात्पन्नगभोजनः।। | 1-30-7a 1-30-7b |
ततः शनैः पर्यपतत्पक्षैः शैलान्प्रकम्पयन्। एवं सोऽभ्यपतद्देशान्बहून्सगजकच्छपः।। | 1-30-8a 1-30-8b |
दयार्थं वालखिल्यानां न च स्थानमविन्दत। स गत्वा पर्वतश्रेष्ठं गन्धमादनमञ्जसा।। | 1-30-9a 1-30-9b |
ददर्श कश्यपं तत्र पितरं तपसि स्थितम्। ददर्श तं पिता चापि दिव्यरूपं विहङ्गमम्।। | 1-30-10a 1-30-10b |
तेजोवीर्यबलोपेतं मनोमारुतरंहसम्। शैलशृङ्गप्रतीकाशं ब्रह्मदण्डमिवोद्यतम्।। | 1-30-11a 1-30-11b |
अचिन्त्यमनभिध्येयं सर्वभूतभयंकरम्। महावीर्यधरं रौद्रं साक्षादग्निमिवोद्यतम्।। | 1-30-12a 1-30-12b |
अप्रधृष्यमजेयं च देवदानवराक्षसैः। भेत्तारं गिरिशृङ्गाणां समुद्रजलशोषणम्।। | 1-30-13a 1-30-13b |
लोकसंलोडनं घोरं कृतान्तसमदर्शनम्। तमागतमभिप्रेक्ष्य भगवान्कश्यपस्तदा। विदित्वा चास्यं संकल्पमिदं वचनमब्रवीत्।। | 1-30-14a 1-30-14b 1-30-14c |
कश्यप उवाच। | 1-30-15x |
पुत्र मा साहसं कार्षीर्मा सद्यो लप्स्यसे व्यथाम्। मा त्वां दहेयुः संक्रुद्धा वालखिल्या मरीचिपाः।। | 1-30-15a 1-30-15b |
सौतिरुवाच। | 1-30-16x |
ततः प्रसादयामास कश्यपः पुत्रकारणात्। वालखिल्यान्महाभागांस्तपसा हतकल्मषान्।। | 1-30-16a 1-30-16b |
कश्यप उवाच। | 1-30-17x |
प्रजाहितार्थमारम्भो गरुडस्य तपोधनाः। चिकीर्षति महत्कर्म तदनुज्ञातुमर्हथ।। | 1-30-17a 1-30-17b |
सौतिरुवाच। | 1-30-18x |
एवमुक्ता भगवता मुनयस्ते समभ्ययुः। मुक्त्वा शाखां गिरिं पुण्यं हिमवन्त तपोऽर्थिनः।। | 1-30-18a 1-30-18b |
ततस्तेष्वपयातेषु पितरं विनतासुतः। शाखाव्याक्षिप्तवदनः पर्यपृच्छत कश्यपम्।। | 1-30-19a 1-30-19b |
भगवन्क्व विमुञ्चामि तरोः शाखामिमामहम्। वर्जितं मानुषैर्देशमाख्यातु भगवान्मम।। | 1-30-20a 1-30-20b |
सौतिरुवाच। | 1-30-21x |
ततो निःपुरुषं शैलं हिमसंरुद्धकन्दरम्। अगम्यं मनसाप्यन्यैस्तस्याचख्यौ स कश्यपः।। | 1-30-21a 1-30-21b |
तं पर्वतं महाकुक्षिमुद्दिश्य स महाखगः। जवेनाभ्यपतत्तार्क्ष्यः सशाखागजकच्छपः।। | 1-30-22a 1-30-22b |
न तां वध्री परिणहेच्छतचर्मा महातनुम्। शाखिनो महतीं शाखां यां प्रगृह्य ययौ खगः।। | 1-30-23a 1-30-23b |
स ततः शतसाहस्रं योजनान्तरमागतः। कालेन नातिमहता गरुडः पतगेश्वरः।। | 1-30-24a 1-30-24b |
स तं गत्वा क्षणेनैव पर्वतं वचनात्पितुः। अमुञ्चन्महतीं शाखां सस्वनं तत्र खेचरः।। | 1-30-25a 1-30-25b |
पक्षानिलहतश्चास्य प्राकम्पत स शैलराट्। मुमोच पुष्पवर्षं च समागलितपादप।। | 1-30-26a 1-30-26b |
शृङ्गाणि च व्यशीर्यन्त गिरेस्तस्य समन्ततः। मणिकाञ्चनचित्राणि शोभयन्ति महागिरिम्।। | 1-30-27a 1-30-27b |
शाखिनो बहवश्चापि शाखयाऽभिहतास्तया। काञ्चनैः कुसुमैर्भान्ति विद्युत्वन्त इवाम्बुदाः।। | 1-30-28a 1-30-28b |
ते हेमविकचा भूमौ युताः पर्वतधातुभिः। व्यराजञ्छाखिनस्तत्र सूर्यांशुप्रतिरञ्जिताः।। | 1-30-29a 1-30-29b |
ततस्तस्य गिरेः शृङ्गमास्थाय स खगोत्तमः। भक्षयामास गरुडस्तावुभौ गजकच्छपौ।। | 1-30-30a 1-30-30b |
तावुभौ भक्षयित्वा तु स तार्क्ष्यः कूर्मकुञ्जरौ। ततः पर्वतकूटाग्रादुत्पपात महाजवः।। | 1-30-31a 1-30-31b |
प्रावर्तन्ताथ देवानामुत्पाता भयशंसिनः। इन्द्रस्य वज्रं दयितं प्रजज्वाल भयात्ततः।। | 1-30-32a 1-30-32b |
सधूमा न्यपतत्सार्चिर्दिवोल्का नभसश्च्युता। तथा वसूनां रुद्राणामादित्यानां च सर्वशः।। | 1-30-33a 1-30-33b |
साध्यानां मरुतां चैव ये चान्ये देवतागणाः। स्वं स्वं प्रहरणं तेषां परस्परमुपाद्रवत्।। | 1-30-34a 1-30-34b |
अभूतपूर्वं संग्रामे तदा देवासुरेऽपि च। ववुर्वाताः सनिर्घाताः पेतुरुल्काः सहस्रशः।। | 1-30-35a 1-30-35b |
निरभ्रमेव चाकाशं प्रजगर्ज महास्वनम्। देवानामपि यो देवः सोऽप्यवर्षत शोणितम्।। | 1-30-36a 1-30-36b |
मम्लुर्माल्यानि देवानां नेशुस्तेजांसि चैव हि। उत्पातमेघा रौद्राश्च ववृषुः शोणितं बहु।। | 1-30-37a 1-30-37b |
रजांसि मुकुटान्येषामुत्थितानि व्यधर्षयन्। ततस्त्राससमुद्विग्नः सह देवैः शतक्रतुः। उत्पातान्दारुणान्पश्यन्नित्युवाच बृहस्पतिम्।। | 1-30-38a 1-30-38b 1-30-38c |
किमर्थं भगवन्घोरा उत्पाताः सहसोत्थिताः। न च शत्रुं प्रपश्यामि युधि यो नः प्रधर्षयेत्।। | 1-30-39a 1-30-39b |
बृहस्पतिरुवाच। | 1-30-40x |
तवापराधाद्देवेन्द्र प्रमादाच्च शतक्रतो। तपसा वालखिल्यानां महर्षीणां महात्मनाम्।। | 1-30-40a 1-30-40b |
कश्यपस्य मुनेः पुत्रो विनतायाश्च खेचरः। हर्तुं सोममभिप्राप्तो बलवान्कामरूपधृक्।। | 1-30-41a 1-30-41b |
समर्थो बलिनां श्रेष्ठो हर्तुं सोमं विहंगमः। सर्वं संभावयाम्यस्मिन्नसाध्यमपि साधयेत्।। | 1-30-42a 1-30-42b |
सौतिरुवाच। | 1-30-43x |
श्रुत्वैतद्वचनं शक्रः प्रोवाचामृतरक्षिणः। महावीर्यबलः पक्षी हर्तुं सोममिहोद्यतः।। | 1-30-43a 1-30-43b |
युष्मान्संबोधयाम्येष `गृहीत्वावरणायुधान्। परिवार्यामृतं सर्वे यूयं मद्वचनादिह।। | 1-30-44a 1-30-44b |
रक्षध्वं विबुधा वीरा' यथा न स हरेद्बलात्। अतुलं हि बलं तस्य बृहस्पतिरुवाच ह।। | 1-30-45a 1-30-45b |
सौतिरुवाच। | 1-30-46x |
तच्छ्रुत्वा विबुधा वाक्यं विस्मिता यत्नमास्थिताः। परिवार्यामृतं तस्थूर्वज्री चेन्द्रः प्रतापवान्।। | 1-30-46a 1-30-46b |
धारयन्तो विचित्राणि काञ्चनानि मनस्विनः। कवचानि महार्हाणि वैदूर्यविकृतानि च।। | 1-30-47a 1-30-47b |
चर्माण्यपि च गात्रेषु भानुमन्ति दृढानि च। विविधानि च शस्त्राणि घोररूपाण्यनेकशः।। | 1-30-48a 1-30-48b |
शिततीक्ष्णाग्रधाराणि समुद्यम्य सुरोत्तमः। सविस्फुलिङ्गज्वालानि सधूमानि च सर्वशः।। | 1-30-49a 1-30-49b |
चक्राणि परघांश्चैव त्रिशूलानि परश्वधान्। शक्तीश्च विविधास्तीक्ष्णाः करवालांश्च निर्मलान्। स्वदेहरूपाण्यादाय गदाश्चोग्रप्रदर्शनाः।। | 1-30-50a 1-30-50b 1-30-50c |
तैः शस्त्रैर्भानुमद्भिस्ते दिव्याभरणभूषिताः। भानुमन्तः सुरगणास्तस्थुर्विगतकल्मषाः।। | 1-30-51a 1-30-51b |
अनुपमबलवीर्यतेजसो धृतमनसः परिरक्षणेऽमृतस्य। असुरपुरविदारणाः सुरा ज्वलनसमिद्धवपुःप्रकाशिनः।। | 1-30-52a 1-30-52b 1-30-52c 1-30-52d |
इति समरवरं सुराः स्थितास्ते परिघसहस्रशतैः समाकुलम्। विगलितमिव चाम्बरान्तरं तपनमरीचिविकाशितं बभासे।। | 1-30-53a 1-30-53b 1-30-53c 1-30-53d |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि त्रिंशोऽध्यायः।। 30 ।। |
1-30-6 अतिदैवं देवैरपि कर्तुमशक्यम्।। 1-30-7 गुरुशब्दपूर्वाड्डीड्विहायसागतावित्यस्माड्डः आदेरकारश्च पृषोदरादित्वात् गरुडशब्दो निष्पन्न इत्यर्थः।। 1-30-18 शाखां मुक्त्वा गिरिं समभ्ययुरिति संबन्धः।। 1-30-19 शाखया मुखस्थया व्याक्षिप्तं वदनं वचनक्रियायस्य स तथा।। 1-30-23 शतचर्मा शतगोचर्मणा कृता। वध्री रज्जुः। न परिणहेत् परितो न बध्नीयात्।। 1-30-29 विकचाः हेमवदुज्ज्वलाः।। 1-30-33 दिवा अह्नि।। 1-30-36 देवानां देवः पर्जन्यः।। 1-30-42 अन्येषामसाध्यमप्ययं साधयेत्।। 1-30-48 भानुमन्ति दीप्तिमन्ति।। 1-30-50 स्वदेहरूपाणि स्वदेहानुरूपाणि।। 1-30-52 ज्वलनवत्समिद्धैर्दीप्यमानैर्वपुर्भिः प्रकाशिनः।। त्रिंशोऽध्यायः।। 30 ।।
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