महाभारतम्-01-आदिपर्व-153
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धृतराष्ट्रादीनां कणिकेन दुर्नीत्युपदेशः।। 1 ।।
जम्बुकोपाख्यानम्।। 2 ।।
वैशंपायन उवाच। | 1-153-1x |
श्रुत्वा पाण्डुसुतान्वीरान्बलोद्रिक्तान्महौजसः। धृतराष्ट्रो महीपालश्चिन्तामगमदातुरः।। | 1-153-1a 1-153-1b |
तत आहूय मन्त्रज्ञं राजशास्त्रार्थवित्तमम्। कणिकं मन्त्रिणां श्रेष्ठं धृतराष्ट्रऽब्रवीद्वचः।। | 1-153-2a 1-153-2b |
उत्सक्ताः पाण्डवा नित्यं तेभ्योऽसूये द्विजोत्तम। तत्र मे निश्चिततमं सन्धिविग्रहकारणम्। कणिक त्वं ममाचक्ष्व करिष्ये वचनं तव।। | 1-153-3a 1-153-3b 1-153-3c |
वैशंपायन उवाच। | 1-153-4x |
`दुर्योधनोऽथ शकुनिः कर्णदुःशासनावपि। कणिकं ह्युपसंगृह्य मन्त्रिणं सौबलस्य च।। | 1-153-4a 1-153-4b |
पप्रच्छुर्भरतश्रेष्ठ पाण्डवान्प्रति नैकधा। प्रबुद्धाः पाण्डवा नित्यं सर्वे तेभ्यस्त्रसामहे।। | 1-153-5a 1-153-5b |
अनूनं सर्वपक्षाणां यद्भवेत्क्षेमकारकम्। भारद्वाज तदाचक्ष्व करिष्यामः कथं वयम्।। | 1-153-6a 1-153-6b |
वैशंपायन उवाच।' | 1-153-7x |
स प्रसन्नमनास्तेन परिपृष्टो द्विजोत्तमः। उवाच वचनं तीक्ष्णं राजशास्त्रार्थदर्शनम्।। | 1-153-7a 1-153-7b |
कणिक उवाच। | 1-153-8x |
शृणु राजन्निदं तत्र प्रोच्यमानं मयानघ। न मेऽभ्यसूया कर्तव्या श्रुत्वैतत्कुरुसत्तम।। | 1-153-8a 1-153-8b |
नित्यमुद्यतदण्डः स्यान्नित्यं विवृतपौरुषः। अच्छिद्रश्छिद्रदर्शी स्यात्परेषां विवरानुगः।। | 1-153-9a 1-153-9b |
नित्यमुद्यतदण्डाद्धि भऋशमुद्विजते जनः। तस्मात्सर्वाणि कार्याणि दण्डेनैव विधारयेत्।। | 1-153-10a 1-153-10b |
नास्य च्छिद्रं परः पश्येच्छिद्रेण परमन्वियात्। गूहेत्कूर्म इवाङ्गानि रक्षेद्विवरमात्मनः।। | 1-153-11a 1-153-11b |
`नित्यं च ब्राह्मणाः पूज्या नृपेण हितमिच्छता। सृष्टो नृपो हि विप्रामां पालने दुष्टनिग्रहे।। | 1-153-12a 1-153-12b |
उभाब्यां वर्धते धर्मो धर्मवृद्ध्या जितावुभौ। लोकश्चायं परश्चैव ततो धर्मं समाचरेत्।। | 1-153-13a 1-153-13b |
कृतापराधं पुरुषं दृष्ट्वा यः क्षमते नृपः। तेनावमानमाप्नोति पापं चेह परत्र च।। | 1-153-14a 1-153-14b |
यो विभूतिमवाप्योच्चै राज्ञो विकुरुतेऽधमः। तमानयित्वा हत्वा च दद्याद्धीनाय तद्धनम्।। | 1-153-15a 1-153-15b |
नो चेद्धुरि नियुक्ता ये स्थास्यन्ति वशमात्मनः। राजा नियुञ्ज्यात्पुरुषानाप्तान्धर्मार्थकोविदान्।। | 1-153-16a 1-153-16b |
ये नियुक्तास्तथा केचिद्राष्ट्रं वा यदि वा पुरम्। ग्रामं जनपदं वापि बाधेयुर्यदि वा न वा।। | 1-153-17a 1-153-17b |
परीक्षणार्थं विसृजेदानतांश्छन्नरूपिणः। परीक्ष्य पापकं जह्याद्धनमादाय सर्वशः।।' | 1-153-18a 1-153-18b |
नासम्यक्कृत्यकारी स्यादुपक्रम्य कदाचन। कण्टको ह्यपि दुश्छिन्न आस्रावं जनयेच्चिरम्।। | 1-153-19a 1-153-19b |
वधमेव प्रशंसन्ति शत्रूणामपकारिणाम्। सुविदीर्णं सुविक्रान्तं सुयुद्धं सुपलायितम्।। | 1-153-20a 1-153-20b |
आपद्यापदि काले कुर्वीत न विचारयेत्। नावज्ञेयो रिपुस्तात दुर्बलोऽपि कथं चन।। | 1-153-21a 1-153-21b |
अल्पोऽप्यग्निर्वनं कृत्स्नं दहत्याश्रयसंश्रयात्। अन्धः स्यादन्धवेलायां बाधिर्यमपि चाश्रयेत्।। | 1-153-22a 1-153-22b |
कुर्यात्तृणमयं चापं शयीत मृगशायिकाम्। सान्त्वादिभिरुपायैस्तु हन्याच्छत्रुं वशे स्थितं।। | 1-153-23a 1-153-23b |
दया न तस्मिन्कर्तव्या शरणागत इत्युत। निरुद्विग्नो हि भवति न हताज्जायते भयम्।। | 1-153-24a 1-153-24b |
हन्यादमित्रं दानेन तथा पूर्वापकारिणम्। हन्यात्त्रीन्पञ्च सप्तेति परपक्षस्य सर्वशः।। | 1-153-25a 1-153-25b |
मूलमेवादितश्छिन्द्यात्परपक्षस्य नित्यशः। ततः सहायांस्तत्पक्षान्सर्वांश्च तदनन्तरम्।। | 1-153-26a 1-153-26b |
छिन्नमूले ह्यधिष्ठाने सर्वे तज्जीविनो हताः। कथं नु शाखास्तिष्ठेरंश्छिन्नमूले वनस्पतौ।। | 1-153-27a 1-153-27b |
एकाग्रः स्यादविवृतो नित्यं विवरदर्शकः। राजन्नित्यं सपत्नेषु नित्योद्विग्नः समाचरेत्।। | 1-153-28a 1-153-28b |
अग्न्याधानेन यज्ञेन काषायेण जटाजिनैः। लोकान्विश्वासयित्वैव ततो लुम्पेद्यथा वृकः।। | 1-153-29a 1-153-29b |
अङ्कुशं शोचमित्याहुरर्थानामुपधारणे। आनाम्य फलितां शाखां पक्वं पक्वं प्रशातयेत्।। | 1-153-30a 1-153-30b |
फलार्थोऽयं समारम्भो लोके पुंसां विपश्चिताम्। वहेदमित्रं स्कन्धेन यावत्कालस्य पर्ययः।। | 1-153-31a 1-153-31b |
ततः प्रत्यागते काले भिन्द्याद्धृटमिवाश्मनि। अमित्रो न विमोक्तव्यः कृपणं बह्वपि ब्रुवन्।। | 1-153-32a 1-153-32b |
कृपा न तस्मिन्कर्तव्या हन्यादेवापकारिणम्। हन्यादमित्रं सान्त्वेन तथा दानेन वा पुनः।। | 1-153-33a 1-153-33b |
तथैव भेददण्डाभ्यां सर्वोपायैः प्रशातयेत्। | 1-153-34a |
धृतराष्ट्र उवाच। | 1-153-34x |
कथं सान्त्वेन दानेन भेदैर्दण्डेन वा पुनः।। | 1-153-34b |
अमित्रः शक्यते हन्तुं तन्मे ब्रूहि यथातथम्। | 1-153-35a |
कणिक उवाच। | 1-153-35x |
शृणु राजन्यथा वृत्तं वने निवसतः पुरा।। | 1-153-35b |
जम्बुकस्य महाराज नीतिशास्त्रार्थदर्शिनः। अथ कश्चित्कृतप्रज्ञः शृगालः स्वार्थपण्डितः।। | 1-153-36a 1-153-36b |
सखिभिर्न्यवसत्सार्धं व्याघ्राखुवृकबभ्रुभिः। तेऽपश्यन्विपिने तस्मिन्बलिनं मृगयूथपम्।। | 1-153-37a 1-153-37b |
अशक्ता ग्रहणे तस्य ततो मन्त्रममन्त्रयन्। | 1-153-38a |
जम्बुक उवाच। | 1-153-38x |
असकृद्यतितो ह्येष हन्तुं व्याघ्र वने त्वया।। | 1-153-38b |
युवा वै जवसंपन्नो बुद्धिशाली न शक्यते। मूषिकोऽस्य शयानस्य चरणौ भक्षयत्वयम्।। | 1-153-39a 1-153-39b |
अथैनं भक्षितैः पादैर्व्याघ्रो गृह्णातु वै ततः। ततो वै भक्षयिष्यामः सर्वे मुदितमानसाः।। | 1-153-40a 1-153-40b |
जम्बुकस्य तु तद्वाक्यं तथा चक्रः समाहिताः। मूषिकाभक्षितैः पादैर्मृगं व्याघ्रोऽवधीत्तदा।। | 1-153-41a 1-153-41b |
दृष्ट्वैवाचेष्टमानं तु भूमौ मृगकलेवरम्। स्नात्वाऽऽगच्छत भद्रं वोरक्षामीत्याह जम्बुकः।। | 1-153-42a 1-153-42b |
शृगालवचनात्तेऽपि गताः सर्वे नदीं ततः। स चिन्तापरमो भूत्वा तस्थौ तत्रैव जम्बुकः।। | 1-153-43a 1-153-43b |
अथाजगाम पूर्वं तु स्नात्वा व्याघ्रो महाबलः। ददर्श जम्बुकं चैव चिन्ताकुलितमानसम्।। | 1-153-44a 1-153-44b |
व्याघ्र उवाच। | 1-153-45x |
किं शोचसि महाप्राज्ञ त्वं नो बुद्धिमतां वरः। अशित्वा पिशितान्यद्य विहरिष्यामहे वयम्।। | 1-153-45a 1-153-45b |
जम्बुक उवाच। | 1-153-46x |
शृणु मे त्वं महाबाहो यद्वाक्यं मूषिकोऽब्रवीत्। धिग्बलं मृगराजस्य मयाद्यायं मृगो हतः।। | 1-153-46a 1-153-46b |
मद्बाहुबलमाश्रित्य तृप्तिमद्य गमिष्यति। तस्यैवं गर्जितं श्रुत्वा ततो भक्ष्यं न रोचये।। | 1-153-47a 1-153-47b |
व्याघ्र उवाच। | 1-153-48x |
ब्रवीति यदि स ह्येवं काले ह्यस्मि प्रबोधितः। स्वबाहुबलमाश्रित्य हनिष्येऽहं वनेचरान्।। | 1-153-48a 1-153-48b |
खादिष्ये तत्र मांसानि इत्युक्त्वा प्रस्थितोवनम्। एतस्मिन्नेव काले तु मूषिकोऽप्याजगाम ह।। | 1-153-49a 1-153-49b |
तमागतमभिप्रेक्ष्य शृगालोऽप्यब्रवीद्वचः। शृणु मीषिक भद्रं ते नकुलो यदिहाब्रवीत्।। | 1-153-50a 1-153-50b |
मृगमांसं न खादेयं गरमेतन्न रोचते। मूषिकं भक्षयिष्यामि तद्भवाननुमन्यताम्।। | 1-153-51a 1-153-51b |
तच्छ्रुत्वा मूषिको वाक्यं संत्रस्तः प्रगतो बिलम्। ततः स्नात्वा स वै तत्र आजगाम वृको नपृ।। | 1-153-52a 1-153-52b |
तमागतमिदं वाक्यमब्रवीज्जम्बुकस्तदा। मृगराजो हि संक्रुद्धो न ते साधु भविष्यति।। | 1-153-53a 1-153-53b |
सकलत्रस्त्विहायाति कुरुष्व यदनन्तरम्। एवं संचोदितस्तेन जम्बुकेन तदा वृकः।। | 1-153-54a 1-153-54b |
ततोऽवलुम्पनं कृत्वा प्रयातः पिशिताशनः। एतस्मिन्नेव काले तु नकुलोऽप्याजगाम ह।। | 1-153-55a 1-153-55b |
तमुवाच महाराज नकुलं जम्बुको वने। स्वबाहुबलमाश्रित्य निर्जितास्तेऽन्यतो गताः।। | 1-153-56a 1-153-56b |
मम दत्वा नियुद्धं त्वं भुङ्क्ष्व मांसं यथेप्सितम्। | 1-153-57a |
नकुल उवाच। | 1-153-57x |
मृगराजो वृकश्चैव बुद्धिमानपि मूषिकः।। | 1-153-57b |
निर्जिता यत्त्वया वीरास्तस्माद्वीरतरो भवान्। न त्वयाप्युत्सहे योद्धुमित्युक्त्वा सोऽप्युपागमत्।। | 1-153-58a 1-153-58b |
कणिक उवाच। | 1-153-59x |
एवं तेषु प्रयातेषु जम्बुको हृष्टमानसः। खादति स्म तदा मांसमेकः सन्मन्त्रनिश्चयात्। एवं समाचरन्नित्यं सुखमेधेत भूपतिः।। | 1-153-59a 1-153-59b 1-153-59c |
भयेन भेदयेद्भीरुं शूरमञ्जलिकर्मणा। लुब्धमर्थप्रदानेन समं न्यूनं तथौजसा।। | 1-153-60a 1-153-60b |
एवं ते कथितं राजन् शृणु चाप्यपरं तथा।। | 1-153-61a |
पुत्रः सखा वा भ्राता वा पिता वा यदि वा गुरुः। रिपुस्यानेषु वर्तन्तो हन्तव्या भूतिमिच्छता।। | 1-153-62a 1-153-62b |
शपथेनाप्यरिं हन्यादर्थदानेन वा पुनः। विषेण मायया वापि नोपेक्षेते कथंचन। उभौ चेत्संशयोपेतौ श्रद्धवांस्तत्र वर्धते।। | 1-153-63a 1-153-63b 1-153-63c |
गुरोरप्यवलिप्तस्य कार्याकार्यमजानतः। उत्पथं प्रतिपन्नस्य न्याय्यं भवति शासनम्।। | 1-153-64a 1-153-64b |
क्रुद्धोऽप्यक्रुद्धरूपः स्यात्स्मितपूर्वाभिभाषिता। `न चैनं क्रोधसंदीप्तं विद्यात्कश्चित्कथंचन।' न चाप्यन्यमपध्वंसेत्कदाचित्कोपसंयुतः।। | 1-153-65a 1-153-65b 1-153-65c |
प्रहरिष्यन्प्रियं ब्रूयात्प्रहरन्नपि भारत। प्रहृत्य च प्रियं ब्रूयाच्छोचन्निव रुदन्निव।। | 1-153-66a 1-153-66b |
आश्वासयेच्चापि परं सान्त्वधर्मार्थवृत्तिभिः। अथ तं प्रहरेत्काले तथा विचलितं पथि।। | 1-153-67a 1-153-67b |
अपि घोरापराधस्य धर्ममाश्रित्य तिष्ठतः। स हि प्रच्छाद्यते दोषः शैलो मेघैरिवासितैः।। | 1-153-68a 1-153-68b |
यः स्यादनुप्राप्तवधस्तस्यागारं प्रदीपयेत्। अधनान्नास्तिकांश्चोरान्विषकर्मसु योजयेत्।। | 1-153-69a 1-153-69b |
प्रत्युत्थानासनाद्येन संप्रदानेन केनचित्। अतिविश्रब्धघाती स्यात्तीक्ष्णंदष्ट्रो निमग्नकः।। | 1-153-70a 1-153-70b |
अशङ्कितेभ्यः शङ्केत शङ्कितेभ्यश्च सर्वशः। अशङ्क्याद्भयमुत्पन्नमपि मूलं निकृन्तति।। | 1-153-71a 1-153-71b |
न विश्वसेदविश्वस्ते विश्वस्ते नातिविश्वसेत्। विश्वासाद्भयमुत्पन्नं मूलान्यपि निकृन्तति।। | 1-153-72a 1-153-72b |
चारः सुविहितः कार्य आत्मनश्च परस्य वा। पाषण्डांस्तापसादींश्च परराष्ट्रेषु योजयेत्।। | 1-153-73a 1-153-73b |
उद्यानेषु विहारेषु देवतायतनेषु च। पानागारेषु रथ्यासु सर्वतीर्थेषु चाप्यथ।। | 1-153-74a 1-153-74b |
चत्वरेषु च कूपेषु पर्वतेषु वनेषु च। समवायेषु सर्वेषु सरित्सु च विचारयेत्।। | 1-153-75a 1-153-75b |
वाचा भृशं विनीतः स्याद्धृदयेन तथा क्षुरः। स्मितपूर्वाभिभाषी स्यात्सृष्टो रौद्रस्य कर्मणः।। | 1-153-76a 1-153-76b |
अञ्जलिः शपथः सान्त्वं शिरसा पादवन्दनम्। आशाकरणमित्येवं कर्तव्यं भूतिमिच्छता।। | 1-153-77a 1-153-77b |
सुपुष्पितः स्यादफलः फलवान्स्याद्दुरारुहः। आमः स्यात्पक्वसङ्काशो नच जीर्येत कर्हिचित्।। | 1-153-78a 1-153-78b |
त्रिवर्गे त्रिविधा पीडा ह्यनुबन्धास्तथैव च। अनुबन्धाः शुभा ज्ञेयाः पीडास्तु परिवर्जयेत्।। | 1-153-79a 1-153-79b |
धर्मं विचरतः पीडा सापि द्वाभ्यां नियच्छति। अर्थं चाप्यर्थलुब्धस्य कामं चातिप्रवर्तिनः।। | 1-153-80a 1-153-80b |
अगर्वितात्मा युक्तश्च सान्त्वयुक्तोऽनसूयिता। अवेक्षितार्थः शुद्धात्मा मन्त्रयीत द्विजैः सहा।। | 1-153-81a 1-153-81b |
कर्मणा येन केनैव मृदुना दारुणेन च। उद्धरेद्दीनमात्मानं समर्थो धर्ममाचरेत्।। | 1-153-82a 1-153-82b |
न संशयमनारुह्य नरो भद्राणि पश्यति। संशयं पुनरारुह्य यदि जीवति पश्यति।। | 1-153-83a 1-153-83b |
यस्य बुद्धिः परिभवेत्तमतीतेन सान्त्वयेत्। अनागतेन दुर्बुद्धिं प्रत्युत्पन्नेन पण्डितम्।। | 1-153-84a 1-153-84b |
योऽरिणा सह सन्धाय शयीत कृतकृत्यवत्। स वृक्षाग्रे यथा सुप्तः पतितः प्रतिबुध्यते।। | 1-153-85a 1-153-85b |
मन्त्रसंवरणे यत्नः सदा कार्योऽनसूयता। आकारमभिरक्षेत चारेणाप्यनुपालितः।। | 1-153-86a 1-153-86b |
`न रात्रौ मन्त्रयेद्विद्वान्न च कैश्चिदुपासितः। प्रासादाग्रे शिलाग्रे वा विशाले विजनेपि वा।। | 1-153-87a 1-153-87b |
समन्तात्तत्र पश्यद्भिः सहाप्तैरेव मन्त्रयेत्। नैव संवेशयेत्तत्र मन्त्रवेश्मनि शारिकाम्।। | 1-153-88a 1-153-88b |
शुकान्वा शारिका वापि बालमूर्खजडानपि। प्रविष्टानपि निर्वास्य मन्त्रयेद्धार्मिकैर्द्विजैः।। | 1-153-89a 1-153-89b |
नीतिज्ञैर्न्यायशास्त्रज्ञैरितिहासे सुनिष्ठितैः। रक्षां मन्त्रस्य निश्छिद्रां मन्त्रान्ते निश्चयेत्स्वयम्।। | 1-153-90a 1-153-90b |
वीरोपवर्णितात्तस्माद्धर्मार्थाभ्यामथात्मना। एकेन वाथ विप्रेण ज्ञातबुद्धिर्विनिश्चयेत्।। | 1-153-91a 1-153-91b |
तृतीयेन न चान्येन व्रजेन्निश्चयमात्मवान्। षट्कर्णश्छिद्यते मन्त्र इति नीतिषु पठ्यते।। | 1-153-92a 1-153-92b |
निःसृतो नाशयेन्मन्त्रो हस्तप्राप्तामपि श्रियम्। स्वमतं च परेषां च विचार्य च पुनःपुनः। गुणवद्वाक्यमादद्यान्नैव तृप्येद्विचक्षणः।।' | 1-153-93a 1-153-93b 1-153-93c |
नाच्छित्वा परमर्माणि नाकृत्वा कर्म दारुणम्। नाहत्वा मत्स्यघातीव प्राप्नोति महतीं श्रियम्।। | 1-153-94a 1-153-94b |
कर्शितं व्याधितं क्लिन्नमपानीयमघासकम्। परिविश्वस्तमन्दं च प्रहर्तव्यमरेर्बलम्।। | 1-153-95a 1-153-95b |
नार्थिकोऽर्थिनमभ्येति कृतार्थे नास्ति सङ्गतम्। तस्मात्सर्वाणि साध्यानि सावशेषाणि कारयेत्।। | 1-153-96a 1-153-96b |
संग्रहे विग्रहे चैव यत्नः कार्योऽनसूयता। उत्साहश्चापि यत्नेन कर्तव्यो भूतिमिच्छता।। | 1-153-97a 1-153-97b |
नास्य कृत्यानि बुध्येरन्मित्राणि रिपवस्तथा। आरब्धान्येव पश्येरन्सुपर्यवसितान्यपि।। | 1-153-98a 1-153-98b |
भीतवत्संविधातव्यं यावद्भयमनागतम्। आगतं तु भयं दृष्ट्वा प्रहर्तव्यमभीतवत्।। | 1-153-99a 1-153-99b |
दैवेनोपहतं शत्रुमनुगृह्णाति यो नरः। स मृत्युमुपगृह्णाति गर्भमश्वतरी यथा।। | 1-153-100a 1-153-100b |
अनागतं हि बुध्येत यच्च कार्यं पुरः स्थितम्। न तु बुद्धिक्षयात्किंचिदतिक्रामेत्प्रयोजनम्।। | 1-153-101a 1-153-101b |
उत्साहश्चापि यत्नेन कर्तव्यो भूतिमिच्छता। विभज्य देशकालौ च दैवं धर्मादयस्त्रयः। नैःश्रेयसौ तु तौ ज्ञेयौ देशकालाविति स्थितिः।। | 1-153-102a 1-153-102b 1-153-102c |
तालवत्कुरुते मूलं बालः शत्रुरुपेक्षितः। गहनेऽग्निरिवोत्सृष्टः क्षिप्रं संजायते महान्।। | 1-153-103a 1-153-103b |
अग्निस्तोकमिवात्मानं सन्धुक्षयति यो नरः। स वर्धमानो ग्रसते महान्तमपि संचयम्।। | 1-153-104a 1-153-104b |
`आदावेव ददानीति प्रियं ब्रूयान्निरर्थकम्।।' | 1-153-105a |
आशां कालवतीं कुर्यात्कालं विघ्नेन योजयेत्। विघ्नं निमित्ततो ब्रूयान्निमित्तं वाऽपि हेतुतः।। | 1-153-106a 1-153-106b |
क्षुरो भूत्वा हरेत्प्राणान्निशितः कालसाधनः। प्रतिच्छन्नो लोमहारी द्विषतां परिकर्तनः।। | 1-153-107a 1-153-107b |
पाण्डवेषु यथान्यायमन्येषु च कुरूद्वह। वर्तमानो न मज्जेस्त्वं तथा कृत्यं समाचर।। | 1-153-108a 1-153-108b |
सर्वकल्याणसंपन्नो विशिष्ट इति निश्चयः। तस्मात्त्वं पाण्डुपुत्रेभ्यो रक्षात्मानं नराधिप।। | 1-153-109a 1-153-109b |
भ्रातृव्या बलवन्तस्ते पाण्डुपुत्रा नराधिप। पश्चात्तापो यथा न स्यात्तथा नीतिर्विधीयताम्।। | 1-153-110a 1-153-110b |
वैशंपायन उवाच। | 1-153-111x |
एवमुक्त्वा संप्रतस्थे कणिकः स्वगृहं ततः। धृतराष्ट्रोऽपि कौरव्यः शोकार्तः समपद्यत।। | 1-153-111a 1-153-111b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि संभवपर्वणि त्रिपञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः।। 153 ।। | |
।। समाप्तं च संभवपर्व ।। |
1-153-13 उभाभ्यां ब्राह्मणरक्षणदुष्टनिग्रहाभ्याम्। जितौ संपादितौ भवेतामिति शेषः।। 1-153-15 हीनाय दरिद्राय।। 1-153-20 उपसंहरति वधमिति। कथं वधः कर्तव्यं इत्याह सुविदीर्णमिति। सुविक्रान्तमपि शत्रुं। काले आपद्यापन्नमालभ्य सुविदीर्णं विनष्टं कुर्वीत। तथा सुयुद्धमपि शत्रुमापदि काले सुपलायितं कुर्वीति।। 1-153-22 आश्रयसंश्रयात् आश्रयबलात्।। 1-153-23 तृणमयं तृणवन्निष्प्रयोजनम्। क्षात्रं धर्मं त्यक्त्वा शत्रुगृहे भिक्षाभुगपि स्यादित्यर्थः। मृगशायिकां मृगहन्तुः शय्याम्। यथा व्याधो मृगान्विश्वासयितुं मृषा निद्राति विश्वस्तेषु च तेषु प्रहरत्येवं स हन्तुमेवाकारं गोपयतीत्यर्थः। उपायैः वशे स्थितं शत्रुमिति संबन्धः।। 1-153-25 त्रीन् ऐश्वर्यमन्त्रोत्साहान्। तथा पञ्च अमात्यराष्ट्रदुर्गाणि कोशो दण्डश्च पञ्चम इत्युक्तान्। दण्डोत्र सैन्यं। सप्त स्वाम्यमात्यसुहृत्कोशराष्ट्रदुर्बलानि येत्युक्तानि।। 1-153-30 शौचमग्न्याधानादि। अत्र दृष्टान्तः आनाम्येति आनामयित्वा।। 1-153-37 बभ्रुर्नकुलः। मृगयूथपं महान्तं हरिणम्।। 1-153-41 मूषिकेण आईषद्भक्षितैः।। 1-153-46 मृगराजस्य व्याघ्रस्य।। 1-153-51 गरं मूषिकदष्टत्वाद्विषभूतम्।। 1-153-55 अवलुम्पनं गात्रसंकोचनम्।। 1-153-63 संशयोपेतौ संशयविषयौ। श्रद्धावान् मदुक्तादरवान्। श्रद्दधानस्तु बध्यत इति ङ पाठः।। 1-153-65 अपध्वंसेत् कुत्सयेत्।। 1-153-69 अनुप्राप्तबधः शीघ्रं हन्तुमिष्टः अधना दरिद्राः नास्तिकाः परलोकश्रद्धारहिताः।। 1-153-70 निमग्नकः नम्रशिराः तीक्ष्णदंष्ट्रः व्याघ्र इव। तीक्ष्णदंष्ट्र इवोरत इति क.ङ.पाठः।। 1-153-73 सुविहितः सम्यक् परीक्षितः।। 1-153-76 सृष्टो रौद्राय कर्मण इति क.घ.पाठः।। 1-153-79 अनुबन्धः फलम्।। 1-153-80 धर्ममत्यन्तं विचरतः पुंसो द्वाभ्यामर्थकामाभ्यां धनव्ययब्रह्मचर्योपक्षिप्ताभ्यां पीडा चित्तवैकल्यं भवति। सापि पुंसः पीडा धर्मं नियच्छति निगृह्णाति। एवमर्थं चाप्यर्थलुब्धस्य कामं चातिप्रवर्तिन इति व्याख्येयं।। 1-153-83 उद्देश्यसन्देहेपि नीतिरवश्यमनुसरणीयेत्याह। न संशयमिति। असंशयमथारुह्येति क.घ.ट.पाठः।। 1-153-84 परिभवेत् शोकेन। तमतीतेन नलरामाद्याख्यानेन। दुर्बुद्धिं। लोभाद्युपहतबुद्धिम्। अनागतेन कालान्तरे तव श्रेयो भविष्यतीत्याशाप्रदर्शनेन। पण्डितं प्रत्युत्पन्नेन वर्तमानेन धनादिना सान्त्वयेत्।। 1-153-86 मन्त्रसंवरणं मन्त्रगूहनम्।। 1-153-95 अघासकं अनाहारम्।। 1-153-96 संगतं सख्यम्।। 1-153-98 आरब्धान्यपि सुपर्यवसितानि संपन्नान्येव पश्येरन्।। 1-153-99 संविधातव्यं प्रतिकर्तव्यम्।। 1-153-102 देशाद्यनुगुण उत्साहोऽपि कर्तव्यो नत्वलसो भवेत्। दैवं प्राक्तनं कर्म। ये धर्मादयस्त्रयस्तांश्च विभज्य तेषां मध्ये नैःश्रेयसौ श्रेयोहेतू इति स्थितिर्निश्चयः।। 1-153-103 बालः अल्पोपि। बलवत्कुरुते रूपं बाल्यादिति क.ङ.ट.पाठः।। 1-153-104 आत्मानं सधुक्षयति सहायादिना वर्धयति। संचयमिन्धनानां पक्षे शत्रूणाम्।। 1-153-106 हेतुतः हेत्वन्तरेण।। 1-153-111 तदा सपुत्रो राजा च शोकार्त इति ङ पुस्तकपाठः।। त्रिपञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः।। 153 ।।
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