महाभारतम्-01-आदिपर्व-225
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धृतराष्ट्राज्ञया विदुरस्य द्रुपदनगरगमनम्।। 1 ।।
तत्र श्रीकृष्णादीनां समीपे धृतराष्ट्रसन्देशकथनम्।। 2 ।।
धृतराष्ट्र उवाच। | 1-225-1x |
भीष्मः शान्तनवो विद्वान्द्रोणश्च भगवानृषिः। `हितं च परमं सत्यमब्रूतां वाक्यमुत्तमम्।' हितं च परमं वाक्यं त्वं च सत्यं ब्रवीषि माम्।। | 1-225-1a 1-225-1b 1-225-1c |
यथैव पाण्डोस्ते वीराः कुन्तीपुत्रा महारथाः। तथैव धर्मतः सर्वे मम पुत्रा न संशयः।। | 1-225-2a 1-225-2b |
यथैव मम पुत्राणामिदं राज्यं विधीयते। तथैव पाण्डुपुत्राणामिदं राज्यं न संशयः।। | 1-225-3a 1-225-3b |
क्षत्तरानय गच्छैतान्सह मात्रा सुसत्कृतान्। तया च देवरूपिण्या कृष्णया सह भारत।। | 1-225-4a 1-225-4b |
दिष्ट्या जीवन्ति ते पार्था दिष्ट्या जीवति सा पृथा। दिष्ट्या द्रुपदकन्यां च लब्धवन्तो महारथाः।। | 1-225-5a 1-225-5b |
दिष्ट्या वर्धामहे सर्वे दिष्ट्या शान्तः पुरोचनः। दिष्ट्या मम परं दुःखमपनीतं महाद्युते।। | 1-225-6a 1-225-6b |
`त्वमेव गत्वा विदुर तानिहानय मा चिरम्। | 1-225-7a |
वैशंपायन उवाच। | 1-225-7x |
एवमुक्तस्ततः क्षत्ता रथमारुह्य शीघ्रगम्। आगात्कतिपयाहोभिः पाञ्चालान्राजधर्मवित्'।। | 1-225-7b 1-225-7c |
ततो जगाम विदुरो धृतराष्ट्रस्य शासनात्। सकाशं यज्ञसेनस्य पाण्डवानां च भारत।। | 1-225-8a 1-225-8b |
समुपादाय रत्नानि वसूनि विविधानि च। द्रौपद्याः पाण्डवानां च यज्ञसेनस्य चैव ह।। | 1-225-9a 1-225-9b |
तत्र गत्वा स धर्मज्ञः सर्वशास्त्रविशारदः। द्रुपदं न्यायतो राजन्संयुक्तमुपतस्थिवान्।। | 1-225-10a 1-225-10b |
स चापि प्रतिजग्राह धर्मेण विदुरं ततः। चक्रतुश्च यथान्यायं कुशलप्रश्नसंविदम्।। | 1-225-11a 1-225-11b |
ददर्श पाण्डवांस्तत्र वासुदेवं च भारत। स्नेहात्परिष्वज्य स तान्पप्रच्छानामयं ततः।। | 1-225-12a 1-225-12b |
तैश्चाप्यमितबुद्दिः स पूजितो हि यथाक्रमम्। वचनाद्धृतराष्ट्रस्य स्नेहयुक्तं पुनःपुनः।। | 1-225-13a 1-225-13b |
पप्रच्छानामयं राजंस्ततस्तान्पाण्डुनन्दनान्। प्रददौ चापि रत्नानि विविधानि वसूनि च।। | 1-225-14a 1-225-14b |
पाण्डवानां च कुन्त्याश्च द्रौपद्याश्च विशांपते। द्रुपदस्य च पुत्राणां यथा दत्तानि कौरवैः।। | 1-225-15a 1-225-15b |
प्रोवाच चामितमतिः प्रश्रितं विनयान्वितः। द्रुपदं पाण्डुपुत्राणां सन्निधौ केशवस्य च।। | 1-225-16a 1-225-16b |
विदुर उवाच। | 1-225-17x |
राजञ्छृणु सहामात्यः सपुत्रश्च वचो मम। धृतराष्ट्रः सपुत्रस्त्वां सहामात्यः सबान्धवः।। | 1-225-17a 1-225-17b |
अब्रवीत्कुशलं राजन्प्रीयमाणः पुनःपुनः। प्रीतिमांस्ते दृढं चापि संबन्धेन नराधिप।। | 1-225-18a 1-225-18b |
तथा भीष्मः शान्तनवः कौरवैः सह सर्वशः। कुशलं त्वां महाप्राज्ञः सर्वतः परिपृच्छति।। | 1-225-19a 1-225-19b |
भारद्वाजो महाप्राज्ञो द्रोणः प्रियसखस्तव। समाश्लेषमुपेत्य त्वां कुशलं परिपृच्छति।। | 1-225-20a 1-225-20b |
धृतराष्ट्रश्च पाञ्चाल्य त्वया संबन्धमेयिवान्। कृतार्थं मन्यतेत्मानं तथा सर्वेऽपि कौरवाः।। | 1-225-21a 1-225-21b |
न तथा राज्यसंप्राप्तिस्तेषां प्रीतिकरी मता। यथा संबन्धकं प्राप्य यज्ञसेन त्वया सह।। | 1-225-22a 1-225-22b |
एतद्विदित्वा तु भवान्प्रस्थापयतु पाण्डवान्। द्रष्टुं हि पाण्डुपुत्रांश्च त्वरन्ति कुरवो भृशम्।। | 1-225-23a 1-225-23b |
विप्रोषिता दीर्घकालमेते चापि नरर्षभाः। उत्सुका नगरं द्रष्टुं भविष्यन्ति तथा पृथा।। | 1-225-24a 1-225-24b |
कृष्णामपि च पाञ्चालीं सर्वाः कुरुवरस्त्रियः। द्रष्टुकामाः प्रतीक्ष्ते पुरं च विषयाश्च नः।। | 1-225-25a 1-225-25b |
स भवान्पाण्डुपुत्राणामाज्ञापयतु मा चिरम्। गमनं सहदाराणामेतदत्र मतं मम।। | 1-225-26a 1-225-26b |
निसृष्टेषु त्वया राजन्पाण्डवेषु महात्मसु। ततोऽहं प्रेषयिष्यामि धृतराष्ट्रस्य शीघ्रगान्। आगमिष्यन्ति कौन्तेयाः कुन्ती च सह कृष्णया।। | 1-225-27a 1-225-27b 1-2252-27c |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि विदुरागमनराज्यलाभपर्वणि पञ्चविंशत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 225 ।। |
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