महाभारतम्-01-आदिपर्व-161
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पाण्डवानां विदुरप्रेषितदूतदर्शितनौकया गङ्गोत्तरणम्।। 1 ।।
वैशंपायन उवाच। | 1-161-1x |
एतस्मिन्नेव काले तु यथासंप्रत्ययं कविः। विदुरः प्रेषयामास तद्वनं पुरुषं शुचिम्।। | 1-161-1a 1-161-1b |
`आत्मनः पाण्डवानां च विश्वास्यं ज्ञातपूर्वकम्। गङ्गासंतरणार्थाय ज्ञाताभिज्ञानवाचिकम्।।' | 1-161-2a 1-161-2b |
स गत्वा तु यथोद्देशं पाण्डवान्ददृशे वने। जनन्या सह कौरव्याननयज्जाह्नवीतटम्।। | 1-161-3a 1-161-3b |
विदितं तन्महाबुद्धेर्विदुरस्य महात्मनः। ततस्त्रस्यापि चारेण चेष्टितं पापचेतसः।। | 1-161-4a 1-161-4b |
ततः प्रवासितो विद्वान्विदुरेण नरस्तदा। पार्थानां दर्शयामास मनोमारुतगामिनीम्।। | 1-161-5a 1-161-5b |
सर्ववातसहां नावं यन्त्रयुक्तां पताकिनीम्। शिवे भागीरथीतीरे नरैर्विस्रम्भिभिः कृताम्।। | 1-161-6a 1-161-6b |
ततः पुनरथोवाच ज्ञापकं पूर्वचोदितम्। युधिष्ठिर निबोधेयं संज्ञार्थं वचनं कवेः।। | 1-161-7a 1-161-7b |
कक्षघ्नः शिशिरघ्नश्च महाकक्षे बिलौकसः। न हन्तीत्येवमात्मानं यो रक्षति स जीवति। `बोद्धव्यमिति यत्प्राह विदुरस्तदिदं तथा।।' | 1-161-8a 1-161-8b 1-161-8c |
तेन मां प्रेषितं विदिधि विश्वस्तं संज्ञयाऽनया। भूयश्चैवाह मां क्षत्ता विदुरः सर्वतोऽर्थवित्। `अधिक्षिपन्धार्तराष्ट्रं सभ्रातृकमुदारधीः।।' | 1-161-9a 1-161-9b 1-161-9c |
कर्णं दुर्योधनं चैव भ्रातृभिः सहितं रणे। शकुनिं चैव कौन्तेय विजेताऽसि न संशयः।। | 1-161-10a 1-161-10b |
`वैशंपायन उवाच। | 1-161-11x |
पाण्डवाश्चापि गत्वाथ गङ्गायास्तीरमुत्तमम्। निषादाधिपतिं वीरं दाशं परमधार्मिकम्।। | 1-161-11a 1-161-11b |
दीपिकाभिः कृतालोकं मार्गमाणं च पाण्डवान्। ददृशुः पाण्डवेयास्ते नाविकं त्वरयाऽन्वितम्।। | 1-161-12a 1-161-12b |
निषादस्तत्र कौन्तेयानभिज्ञानं न्यवेदयत्। विदुरस्य महाबुद्धेर्म्लेच्छभाषादि यत्तदा।। | 1-161-13a 1-161-13b |
नाविक उवाच। | 1-161-14x |
विदुरेणास्मि सन्दिष्टो दत्त्वा बहु धनं महत्। गङ्गातीरे निविष्टस्त्वं पाण्डवांस्तारयेति ह।। | 1-161-14a 1-161-14b |
सोऽहं चतुर्दशीमद्य गङ्गाया अविदूरतः। चारेरन्वेषयाम्यस्मिन्वने मृगगणान्विते।। | 1-161-15a 1-161-15b |
प्रभवन्तोऽथ भद्रं वो नावमारुह्य गम्यताम्। युक्तारित्रपताकां च निश्छिद्रां मन्दिरोपमाम्।।' | 1-161-16a 1-161-16b |
इयं वारिपथे युक्ता नौरप्सु सुखगामिनी। मोचयिष्यति वः सर्वानस्माद्देशान्न संशयः।। | 1-161-17a 1-161-17b |
वैशंपायन उवाच। | 1-161-18x |
अथ तान्व्यथितान्दृष्ट्वा सह मात्रा नरोत्तमान्। नावमारोप्य गङ्गायां प्रस्थितानब्रवीत्पुनः।। | 1-161-18a 1-161-18b |
विदुरो मूर्ध्न्युपाघ्राय परिष्वज्य वचो मुहुः। अरिष्टं गच्छताव्यग्राः पन्थानमिति चाब्रवीत्।। | 1-161-19a 1-161-19b |
इत्युक्त्वा स तु तान्वीरान्पुमान्विदुरचोदितः। तारयामास राजेन्द्र गङ्गां नावा नरर्षभान्।। | 1-161-20a 1-161-20b |
तारयित्वा ततो गङ्गां पारं प्राप्तांश्च सर्वशः। जयाशिषः प्रयुज्याथ यथागतमगाद्धि सः।। | 1-161-21a 1-161-21b |
पाण्डवाश्च महात्मानः प्रतिसन्दिश्य वै कवेः। गङ्गामुत्तीर्य वेगेन जग्मुर्गूढमलक्षिताः।। | 1-161-22a 1-161-22b |
`ततस्ते तत्र तीर्त्वा तु गङ्गामुत्तुङ्गवीचिकाम्। जवेन प्रययुर्वीरा दक्षिणां दिशमास्थिताः।। | 1-161-23a 1-161-23b |
विज्ञाय निशि पन्थानं नक्षत्रैर्दक्षिणामुखाः। वनाद्वनान्तरं राजन्गहनं प्रतिपेदिरे।। | 1-161-24a 1-161-24b |
श्रान्तास्ततः पिपासार्ताः क्षुधिता भयकातराः। पुनरूचुर्महावीर्यं भीमसेनमिदं वचः।। | 1-161-25a 1-161-25b |
इतः कष्टतरं किं नु यद्वयं गहने वने। दिशश्च न प्रजानीमो गन्तुं चैतेन शक्नुमः। तं च पापं न जानीमो दग्धो वाथ पुरोचनः।। | 1-161-26a 1-161-26b 1-161-26c |
कथं नु विप्रमुच्येम भयादस्मादलक्षिताः। शीघ्रमस्मानुपादाय तथैव व्रज भारत।। | 1-161-27a 1-161-27b |
त्वं हि नो बलवानेको यथा सततगस्तथा। इत्युक्तो धर्मराजेन भीमसेनो महाबलः। आदाय कुन्तीं भ्रातॄंश्च जगामाशु स पावनिः'।। | 1-161-28a 1-161-28b 1-161-28c |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि जतुगृहपर्वणि एकषष्ट्यधिकशततमोऽध्यायः।। 161 ।। |
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