महाभारतम्-01-आदिपर्व-180
← आदिपर्व-179 | महाभारतम् प्रथमपर्व महाभारतम्-01-आदिपर्व-180 वेदव्यासः |
आदिपर्व-181 → |
धृष्टद्युम्नाद्युत्पत्तिकथनार्थं द्रोणद्रुपदयोरुत्पत्तिकथनपूर्वकं द्रुपदवृत्तान्तकथनम्।। 1 ।।
ब्राह्मण उवाच। | 1-180-1x |
गङ्गाद्वारं प्रति महान्बभूवर्षिर्महातपाः। भरद्वाजो महाप्राज्ञः सततं संशितव्रतः।। | 1-180-1a 1-180-1b |
सोऽभिषेक्तुं गतो गङ्गां पूर्वमेवागतां सतीम्। ददर्शाप्सरसं तत्र घृताचीमाप्लुतामृषिः।। | 1-180-2a 1-180-2b |
तस्या वायुर्नदीतीरे वसनं व्यहरत्तदा। अपकृष्टाम्बरां दृष्ट्वा तामृषिश्चकमे तदा।। | 1-180-3a 1-180-3b |
तस्यां संसक्तमनसः कौमारब्रह्मचारिणः। चिरस्य रेतश्चस्कन्द तदृषिर्द्रोण आदधे।। | 1-180-4a 1-180-4b |
ततः समभवद्द्रोणः कुमारस्तस्य धीमतः। अध्यगीष्ट स वेदांश्च वेदाङ्गानि च सर्वशः।। | 1-180-5a 1-180-5b |
भरद्वाजस्य तु सखा पृषतो नाम पार्थिवः। तस्यापि द्रुपदो नाम तदा समभवत्सुतः।। | 1-180-6a 1-180-6b |
स नित्यमाश्रमं गत्वा द्रोणेन सह पार्षतः। चिक्रीडाध्ययनं चैव चकार क्षत्रियर्षभः।। | 1-180-7a 1-180-7b |
ततस्तु पृषतेऽतीते स राजा द्रुपदोऽभवत्। द्रोणोऽपि रामं शुश्राव दित्सन्तं वसु सर्वशः।। | 1-180-8a 1-180-8b |
वनं तु प्रस्थितं रामं भरद्वाजसुतोऽब्रवीत्। आगतं वित्तकामं मां विद्धि द्रोणं द्विजोत्तम।। | 1-180-9a 1-180-9b |
राम उवाच। | 1-180-10x |
शरीरमात्रमेवाद्य मया समवशेषितम्। अस्त्राणि वा शरीरं वा ब्रह्मन्नेकतमं वृणु।। | 1-180-10a 1-180-10b |
द्रोण उवाच। | 1-180-11x |
अस्त्राणि चैव सर्वाणि तेषां संहारमेव च। प्रयोगं चैव सर्वेषां दातुमर्हति मे भवान्।। | 1-180-11a 1-180-11b |
ब्राह्मण उवाच। | 1-180-12x |
तथेत्युक्त्वा ततस्तस्मै प्रददौ भृगुनन्दनः। प्रतिगृह्य तदा द्रोणः कृतकृत्योऽभवत्तदा।। | 1-180-12a 1-180-12b |
संप्रहृष्टमना द्रोणो रामात्परमसम्मतम्। ब्रह्मास्त्रं समनुज्ञाप्य नरेष्वभ्यधिकोऽभवत्।। | 1-180-13a 1-180-13b |
ततो द्रुपदमासाद्य भारद्वाजः प्रतापवान्। अब्रवीत्पुरुषव्याघ्रः सखायं विद्धि मामिति।। | 1-180-14a 1-180-14b |
द्रुपद उवाच। | 1-180-15x |
नाश्रोत्रियः श्रोत्रियस्य नारथी रथिनः सखा। नाराजा पार्थिवस्यापि सखिपूर्वं किमिष्यते।। | 1-180-15a 1-180-15b |
ब्राह्मण उवाच। | 1-180-16x |
स विनिश्चित्य मनसा पाञ्चाल्यं प्रति बुद्धिमान्। जगाम कुरुमुख्यानां नगरं नागसाह्वयम्।। | 1-180-16a 1-180-16b |
तस्मै पौत्रान्समादाय वसूनि विविधानि च। प्राप्ताय प्रददौ भीष्मः शिष्यान्द्रोणाय धीमते।। | 1-180-17a 1-180-17b |
द्रोणः शिष्यांस्ततः पार्थानिदं वचनमब्रवीत्। समानीय तु ताञ्शिष्यान्द्रुपदस्यासुखाय वै।। | 1-180-18a 1-180-18b |
आचार्यवेतनं किंचिद्धृदि यद्वर्तते मम। कृतास्त्रैस्तत्प्रदेयं स्यात्तदृतं वदतानघाः। सोऽर्जुनप्रमुखैरुक्तस्तथाऽस्त्विति गुरुस्तदा।। | 1-180-19a 1-180-19b 1-180-19c |
यदा च पाण्डवाः सर्वे कृतास्त्राः कृतनिश्चयाः। ततो द्रोणोऽब्रवीद्भूयो वेतनार्थमिदं वचः।। | 1-180-20a 1-180-20b |
पार्षतो द्रुपदो नाम छत्रवत्यां नरेश्वरः। तस्मादाकृष्य तद्राज्यं मम शीघ्रं प्रदीयताम्।। | 1-180-21a 1-180-21b |
`धार्तराष्ट्राश्च ते भीताः पाञ्चालान्पाण्डवादयः। धार्तराष्ट्रैश्च सहिताः पुनर्द्रोणेन चोदिताः।। | 1-180-22a 1-180-22b |
यज्ञसेनेन संगम्य कर्णदुर्योधनादयः। निर्जिताः संन्यवर्तन्त तथा ते क्षत्रियर्षभाः।।' | 1-180-23a 1-180-23b |
ततः पाण्डुसुताः पञ्च निर्जित्य द्रुपदं युधि। द्रोणाय दर्शयामासुर्बद्ध्वा ससचिवं तदा।। | 1-180-24a 1-180-24b |
`महेन्द्र इव दुर्धर्षो महेन्द्र इव दानवम्। महेन्द्रपुत्रः पाञ्चालं जितवानर्जुनस्तदा।। | 1-180-25a 1-180-25b |
तद्दृष्ट्वा तु महावीर्यं फल्गुनस्य महौजसः। व्यस्मयन्त जनाः सर्वे यज्ञसेनस्य बान्धवाः। | 1-180-26a 1-180-26b |
द्रोण उवाच। | 1-180-27x |
प्रार्थयामि त्वया सख्यं पुनरेव नराधिप। अराजा किल नो राज्ञः सखा भवितुमर्हति।। | 1-180-27a 1-180-27b |
अतः प्रयतितं राज्ये यज्ञसेन त्वया सह। राजाऽसि दक्षिणे कूले भागीरथ्याहमुत्तरे।। | 1-180-28a 1-180-28b |
ब्राह्मण उवाच। | 1-180-29x |
एवमुक्तो हि पाञ्चाल्यो भारद्वाजेन धीमता। उवाचास्त्रविदां श्रेष्ठं द्रोणं ब्राह्मणसत्तमम्।। | 1-180-29a 1-180-29b |
एवं भवतु भद्रं ते भारद्वाज महामते। सख्यं तदेव भवतु शश्वद्यदभिमन्यसे।। | 1-180-30a 1-180-30b |
एवमन्योन्यमुक्त्वा तौ कृत्वा सख्यमनुत्तमम्। जग्मतुर्द्रोणपाञ्चाल्यौ यथागतमरिन्दमौ।। | 1-180-31a 1-180-31b |
असत्कारः स तु महान्मुहूर्तमपि तस्य तु। नापैति हृदयाद्राज्ञो दुर्मनाः स कृशोऽभवत्।। | 1-180-32a 1-180-32b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि चैत्ररथपर्वणि अशीत्यधिकशततमोऽध्यायः।। 180 ।। |
1-180-10 एकतममेकतरम्।। 1-180-13 समनुज्ञप्य निशम्य। प्राप्येत्यपि पठन्ति।। 1-180-21 छत्रवत्यामहिच्छत्रे।। 1-180-28 भागीरथ्याहमिति संधिरार्षः।। अशीत्यधिकशततमोऽध्यायः।। 180 ।।
आदिपर्व-179 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आदिपर्व-181 |