महाभारतम्-01-आदिपर्व-147
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कर्णपितुरधिरथस्य रङ्गप्रवेशः।। 1 ।।
भीमेन कर्णस्याधिक्षेपः।। 2 ।।
सर्वेषां रङ्गान्निष्क्रमणम्।। 3 ।।
वैशंपायन उवाच। | 1-147-1x |
ततः स्रस्तोत्तरपटः सप्रस्वेदः सवेपथुः। विवेशाधिरथो रङ्गं यष्टिप्राणो ह्वयन्निव।। | 1-147-1a 1-147-1b |
तमालोक्य धनुस्त्यक्त्वा पितृगौरवयन्त्रितः। कर्णोऽभिषेकार्द्रशिराः शिरसा समवन्दत।। | 1-147-2a 1-147-2b |
ततः पादाववच्छाद्य पटान्तेन ससंभ्रमः। पुत्रेति परिपूर्णार्थमब्रवीद्रथसारथिम्।। | 1-147-3a 1-147-3b |
परिष्वज्य च तस्याथ मूर्धानं स्नेहविक्लवः। अङ्गराज्याभिषेकार्द्रमश्रुभिः सिषिचे पुनः।। | 1-147-4a 1-147-4b |
तं दृष्ट्वा सूतपुत्रोऽयमिति संचिन्त्य पाण्डवः। भीमसेनस्तदा वाक्यमब्रवीत्प्रहसन्निव।। | 1-147-5a 1-147-5b |
न त्वमर्हसि पार्थेन सूतपुत्र रणे वधम्। कुलस्य सदृशस्तूर्णं प्रतोदो गृह्यतां त्वया।। | 1-147-6a 1-147-6b |
अङ्गराज्यं च नार्हस्त्वमुपभोक्तुं नराधम। श्वा हुताशसमीपस्थं पुरोडाशमिवाध्वरे।। | 1-147-7a 1-147-7b |
वैशंपायन उवाच। | 1-147-8x |
एवमुक्तस्ततः कर्णः किंचित्प्रस्फुरिताधरः। गगनस्थं विनिःश्वस्य दिवाकरमुदैक्षत।। | 1-147-8a 1-147-8b |
ततो दुर्योधनः कोपादुत्पपात महाबलः। भ्रातृपद्मवनात्तस्मान्मदोत्कट इव द्विपः।। | 1-147-9a 1-147-9b |
सोऽब्रवीद्भीमकर्माणं भीमसेनमवस्थितम्। वृकोदर न युक्तं ते वचनं वक्तुमीदृशम्।। | 1-147-10a 1-147-10b |
क्षत्रियाणां बलं ज्यष्ठं योक्तव्यं क्षत्रबन्धुना। शूराणां च नदीनां च प्रभवो दुर्विभावनः।। | 1-147-11a 1-147-11b |
सलिलादुत्थितो वह्निर्येन व्याप्तं चराचरम्। दधीचस्यास्थितो वज्रं कृतं दानवसूदनम्।। | 1-147-12a 1-147-12b |
आग्नेयः कृत्तिकापुत्रो रौद्रो गाङ्गेय इत्यपि। श्रूयते भगवान्देवः सर्वगुह्यमयो गुहः।। | 1-147-13a 1-147-13b |
क्षत्रियेभ्यश्च ये जाता ब्राह्मणास्ते च ते श्रुताः। विश्वामित्रप्रभृतयः प्राप्ता ब्रह्मत्वमव्ययम्।। | 1-147-14a 1-147-14b |
आचार्यः कलशाज्जातो द्रोणः शस्त्रभृतां वरः। गौतमस्यान्ववाये च शरस्तम्बाच्च गौतमः।। | 1-147-15a 1-147-15b |
भवतां च यथा जन्म तदप्यागमितं मया। सकुण्डलं सकवचं सर्वलक्षणलक्षितम्। कथमादित्यसदृशं मृगी व्याघ्रं जनिष्यति।। | 1-147-16a 1-147-16b 1-147-16c |
पृथिवीराज्यमर्होऽयं नाङ्गराज्यं नरेश्वरः। अनेन बाहुवीर्येण मया चाज्ञानुवर्तिना।। | 1-147-17a 1-147-17b |
यस्य वा मनुजस्येदं न क्षान्तं मद्विचेष्टितम्। रथमारुह्य पद्भ्यां स विनामयतु कार्मुकम्।। | 1-147-18a 1-147-18b |
ततः सर्वस्य रङ्गस्य हाहाकारो महानभूत्। साधुवादानुसंबद्धः सूर्यश्चास्तमुपागमत्।। | 1-147-19a 1-147-19b |
ततो दुर्योधनः कर्णमालम्ब्याग्रकरे नृपः। दीपिकाभिः कृतालोकस्तस्माद्रङ्गाद्विनिर्ययौ।। | 1-147-20a 1-147-20b |
पाण्डवाश्च सहद्रोणाः सकृपाश्च विशांपते। भीष्मेण सहिताः सर्वे ययुः स्वं स्वं निवेशनम्।। | 1-147-21a 1-147-21b |
अर्जुनेति जनः कश्चित्कश्चित्कर्णेति भारत। कश्चिद्दुर्योधनेत्येवं ब्रुवन्तः प्रस्थितास्तदा।। | 1-147-22a 1-147-22b |
कुन्त्याश्च प्रत्यभिज्ञाय दिव्यलक्षणसूचितम्। पुत्रमङ्गेश्वरं स्नेहाच्छन्ना प्रीतिरजायत।। | 1-147-23a 1-147-23b |
दुर्योधनस्यापि तदा कर्णमासाद्य पार्थिव। भयमर्जुनसंजातं क्षिप्रमन्तरधीयत।। | 1-147-24a 1-147-24b |
स चापि वीरः कृतशस्त्रनिश्रमः परेण साम्नाऽभ्यवदत्सुयोधनम्। युधिष्ठिरस्याप्यभवत्तदा मति- र्न कर्णतुल्योऽस्ति धनुर्धरः क्षितौ।। | 1-147-25a 1-147-25b 1-147-25c 1-147-25d |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिप्रवणि संभवपर्वणि सप्तचत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः।। 147 ।। |
1-147-18 यस्य येन न क्षान्तं न सोढम्।। 1-147-25 निश्रमो नितरां श्रमः।। सप्तचत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः।। 147 ।।
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