महाभारतम्-01-आदिपर्व-219
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विदुरात् ज्ञातपाण्डववृत्तान्तेन धृतराष्ट्रेण द्रौपद्यानयनार्थमाज्ञापनम्।। 1 ।।
धृतराष्ट्रसमीपे कर्णदुर्योधनयोर्भाषणम्।। 2 ।।
वैशंपायन उवाच। | 1-219-1x |
वृत्ते स्वयंवरे चैव राजानः सर्व एव ते। यथागतं विप्रजग्मुर्विदित्वा पाण्डवान्वृतान्।। | 1-219-1a 1-219-1b |
अथ दुर्योधनो राजा विमना भ्रातृभिः सह। अश्वत्थाम्ना मातुलेन कर्णेन च कृपेण च।। | 1-219-2a 1-219-2b |
विनिवृत्तो वृतं दृष्ट्वा द्रौपद्या श्वेतवाहनम्। तं तु दुःशासनोऽव्रीडो मन्दंमन्दमिवाब्रवीत्।। | 1-219-3a 1-219-3b |
यद्यसौ ब्राह्मणो न स्याद्विन्देत द्रौपदीं न सः। न हि तं तत्त्वतो राजन्वेद कश्चिद्धनंजयम्।। | 1-219-4a 1-219-4b |
दैवं च परमं मन्ये पौरुषं चाप्यनर्थकम्। धिगस्तु पौरुषं मन्त्रं यद्धरन्तीह पाण्डवाः।। | 1-219-5a 1-219-5b |
`बध्वा चक्षूंषि नः पार्था राज्ञां च द्रुपदात्मजाम्। उद्वाह्य राज्ञां तैर्न्यस्तो वामः पादः पृथासुतैः।। | 1-219-6a 1-219-6b |
विमुक्ताः कथमेतेन जतुवेश्मविर्भुजः। अस्माकं पौरुषं सत्वं बुद्धिश्चापि गता ततः।। | 1-219-7a 1-219-7b |
वयं हता मातुलाद्य विश्वस्य च पुरोचनम्। अदग्ध्वा पाण्डवानेतान्स्वयं दग्धो हुताशने।। | 1-219-8a 1-219-8b |
मत्तो मातुल मन्येऽहं पाण्डवा बुद्धिमत्तराः। तेषां नास्ति भयं मृत्योर्मुक्तानां जतुवेश्मनः।। | 1-219-9a 1-219-9b |
वैशंपावयन उवाच। | 1-219-10x |
एवं संभाषमाणास्ते निन्दन्तश्च पुरोचनम्। पञ्चपुत्रां किरातीं च विदुरं च महामतिम्।।' | 1-219-10a 1-219-10b |
विविशुर्हास्तिनपुरं दीना विगतचेतसः।। | 1-219-11a |
त्रस्ता विगतसंकल्पा दृष्ट्वा पार्थान्महौजसः। मुक्तान्हव्यभुजश्चैव संयुक्तान्द्रुपदेन च।। | 1-219-12a 1-219-12b |
धृष्टद्युम्नं तु संचिन्त्य तथैव च शिखण्डिनम्। द्रुपदस्यात्मजांश्चान्यान्सर्वयुद्धविशारदान्।। | 1-219-13a 1-219-13b |
विदुरस्त्वथ ताञ्श्रुत्वा द्रौपद्या पाण्डवान्वृतान्। व्रीडितान्धार्तराष्ट्रांश्च भग्नदर्पानुपागतान्।। | 1-219-14a 1-219-14b |
ततः प्रीतमनाः क्षत्ता धृतराष्ट्रं विशांपते। उवाच दिष्ट्या कुरवो वर्ध्त इति विस्मितः।। | 1-219-15a 1-219-15b |
वैचित्रवीर्यस्तु नृपो निशम्य विदुरस्य तत्। अब्रवीत्परमप्रीतो दिष्ट्या दिष्ट्येति भारत।। | 1-219-16a 1-219-16b |
मन्यते स वृतं पुत्रं ज्येष्ठं द्रुपदकन्यया। दुर्योधनमविज्ञानात्प्रज्ञाचक्षुर्नरेश्वरः।। | 1-219-17a 1-219-17b |
अथ त्वाज्ञापयामास द्रौपद्या भूषणं बहु। आनीयतां वै कृष्णेति पुत्रं दुर्योधनं तदा।। | 1-219-18a 1-219-18b |
`अथ स्म पश्चाद्विदुर आचख्यावम्बिकात्मजम्। कौरव्या इति सामान्यान्न मन्येथास्तवात्मजान्।। | 1-219-19a 1-219-19b |
वर्धन्त इति मद्वाक्याद्वर्धिताः पाण्डुनन्दनाः। कृष्णया संवृताः पार्था विमुक्ता राजसङ्गरात्।। | 1-219-20a 1-219-20b |
दिष्ट्या कुशलिनो राजन्पूजिता द्रुपदेन च।। | 1-219-21a |
वैशंपायन उवाच। | 1-219-22x |
एतच्छ्रुत्वा तु वचनं विदुरस्य नराधिपः। आकारच्छादनार्थाय दिष्ट्यादिष्ट्येति चाब्रवीत्।। | 1-219-22a 1-219-22b |
धृतराष्ट्र उवाच। | 1-219-23x |
एवं विदुर भद्रं ते यदि जीवन्ति पाण्डवाः। न ममौ मे तनौ प्रीतिस्त्वद्वाक्यामृतसंभवा।। | 1-219-23a 1-219-23b |
साध्वाचारतया तेषां संबन्धो द्रुपदेन च। बभूव परमश्लाघ्यो दिष्ट्यादिष्ट्येति चाब्रवीत्।। | 1-219-24a 1-219-24b |
अन्ववाये वसोर्जातः प्रवरे मात्स्यके कुले। वृत्तविद्यातपोवृद्धः पार्थिवानां च संमतः।। | 1-219-25a 1-219-25b |
पुत्राश्चास्य तथा पौत्राः सर्वे सुचरितव्रताः। तेषां संबन्धिनश्चान्ये बहवः सुमहाबलाः।। | 1-219-26a 1-219-26b |
यथैव पाण्डोः पुत्रास्ते ततोऽप्यभ्यधिका मम। सेयमभ्यधिकान्येभ्यो वृत्तिर्विदुर मे मता।। | 1-219-27a 1-219-27b |
या प्रीतिः पाण्डुपुत्रेषु न साऽन्यत्र ममाभिभो। नित्योऽयं चिन्तितः क्षत्तः सत्यं सत्येन शपे।। | 1-219-28a 1-219-28b |
यत्ते कुशलिनो वीराः पाण्डुपुत्रा महारथाः। मित्रवन्तोऽभवन्पुत्रा दुर्योधनमुखास्तथा।। | 1-219-29a 1-219-29b |
मया श्रुतं यदा वह्नेर्दग्धाः पाण्डुसुता इति। तदाऽदह्यं दिवारात्रं न भोक्ष्ये न स्वपामि च।। | 1-219-30a 1-219-30b |
असहायाश्चं मे पुत्रा लूनपक्षा इव द्विजाः। तत्त्वतः शृणु मे क्षत्तः सुसहायाः सुता मम। अद्य वै स्थिरसाम्राज्यमाचन्द्रार्कं ममाभवत्।।' | 1-219-31a 1-219-31b 1-219-31c |
को हि द्रुपदमासाद्य मित्रं क्षत्तः सबान्धवम्। न बुभूषेद्भवेनार्थी गतश्रीरपि पार्थिवः।। | 1-219-32a 1-219-32b |
वैशंपायन उवाच। | 1-219-33x |
तं तथा भाषमाणं तु विदुरः प्रत्यभाषत। नित्यं भवतु ते बुद्धिरेषा राजञ्छतं समाः। इत्युक्त्वा प्रययौ राजन्विदुरः स्वं निवेशनम्।। | 1-219-33a 1-219-33b 1-219-33c |
ततो दुर्योधनश्चापि राधेयश्च विशांपते। धृतराष्ट्रमुपागम्य वचोऽब्रूतामिदं तदा।। | 1-219-34a 1-219-34b |
सन्निधौ विदुरस्य त्वां दोषं वक्तुं न शक्नुवः। विविक्तमिति वक्ष्यावः किं तवेदं चिकीर्षितम्।। | 1-219-35a 1-219-35b |
सपत्नवृद्धिं यत्तात मन्यसे वृद्धिमात्मनः। अभिष्टौषि च यत्क्षत्तुः समीपे द्विपदांवर।। | 1-219-36a 1-219-36b |
अन्यस्मिन्नृप कर्तव्ये त्वमन्यत्कुरुषेऽनघ। तेषां बलविघातो हि कर्तव्यस्तात नित्यशः।। | 1-219-37a 1-219-37b |
ते वयं प्राप्तकालस्य चिकीर्षां मन्त्रयामहे। यथा नो न ग्रसेयुस्ते सपुत्रबलबान्धवान्।। | 1-219-38a 1-219-38b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वमि विदुरागमनराज्यलाभपर्वणि एकोनविंशत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 219 ।। |
1-219-32 गतश्रीर्नष्टश्रीः को भवेन ऐश्वर्येणार्थी न बुभूषेद्भवितुमिच्छेदपि तु सर्वोपीच्छेत्।। एकोनविंशत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 219 ।।
आदिपर्व-218 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आदिपर्व-220 |