महाभारतम्-01-आदिपर्व-140
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कृपद्रोणाश्वत्थामाचार्याणामुत्पत्तिः।। 1 ।।
द्रोणाचार्यस्य परशुरामादस्त्रलाभः।। 2 ।।
जनमेजय उवाच। | 1-140-1x |
कृपस्यापि मम ब्रह्मन्संभवं वक्तुमर्हसि। शरस्तम्बात्कथं जज्ञे कथं वाऽस्त्राण्यवाप्तवान्।। | 1-140-1a 1-140-1b |
वैशंपायन उवाच। | 1-140-2x |
महर्षेर्गौतमस्यासीच्छरद्वान्नाम गौतमः। पुत्रः किल महाराज जातः सहशरैर्विभो।। | 1-140-2a 1-140-2b |
न तस्य वेदाध्ययने तथा बुद्धिरजायत। यथास्य बुद्धिरभवद्धनुर्वेदे परन्तप।। | 1-140-3a 1-140-3b |
अधिजग्मुर्यथा वेदास्तपसा ब्रह्मचारिणः। तथा स तपसोपेतः सर्वाण्यस्त्राण्यवाप ह।। | 1-140-4a 1-140-4b |
धनुर्वेदपरत्वाच्च तपसा विपुलेन च। भृशं सन्तापयामास देवराजं स गौतमः।। | 1-140-5a 1-140-5b |
ततो जालवतीं नाम देवकन्यां सुरेश्वरः। प्राहिणोत्तपसो विघ्नं कुरु तस्येति कौरव।। | 1-140-6a 1-140-6b |
सा हि गत्वाऽऽश्रमं तस्य रमणीयं शरद्वतः। धनुर्बाणधरं बाला लोभयामास गौतमम्।। | 1-140-7a 1-140-7b |
तामेकवसनां दृष्ट्वा गौतमोऽप्सरसं वने। लोकेऽप्रतिमसंस्थानां प्रोत्फुल्लनयनोऽभवत्।। | 1-140-8a 1-140-8b |
धनुश्च हि शरास्तस्य कराभ्यामपतन्भुवि। वेपथुश्चास्य सहसा शरीरे समजायत।। | 1-140-9a 1-140-9b |
स तु ज्ञानगरीयस्त्वात्तपसश्च समर्थनात्। अवतस्थे महाप्राज्ञो धैर्येण परमेण ह।। | 1-140-10a 1-140-10b |
यस्तस्य सहसा राजन्विकारः समदृश्यत। तेन सुस्राव रेतोऽस्य स च तन्नान्वबुध्यत।। | 1-140-11a 1-140-11b |
धनुश्च सशरं त्यक्त्वा तथा कृष्णाजिनानि च। स विहायाश्रमं तं च तां चैवाप्सरसं मुनिः।। | 1-140-12a 1-140-12b |
जगाम रेतस्तत्तस्य शरस्तम्बे पपात च। शरस्तम्बे च पतितं द्विधा तदभवन्नृप।। | 1-140-13a 1-140-13b |
तस्याथ मिथुं जज्ञे गौतमस्य शरद्वतः। `महर्षेर्गौतमस्यास्य ह्याश्रमस्य समीपतः।।' मृगयां चरतो राज्ञः शान्तनोस्तु यदृच्छया।। | 1-140-14a 1-140-14b 1-140-14c |
कश्चित्सेनाचरोऽरण्ये मिथुनं तदपश्यत। धनुश्च सशरं दृष्ट्वा तथा कृष्णाजिनानि च।। | 1-140-15a 1-140-15b |
ज्ञात्वा द्विजस्य चापत्ये धनुर्वेदान्तगस्य ह। स राज्ञे दर्शयामास मिथुनं सशरं धनुः।। | 1-140-16a 1-140-16b |
स तदादाय मिथुनं राजा च कृपयान्वितः। आजगाम गृहानेव मम पुत्राविति ब्रुवन्।। | 1-140-17a 1-140-17b |
ततः संवर्धयामास संस्कारैश्चाप्ययोजयत्। प्रातिपेयो नरश्रेष्ठो मिथुनं गौतमस्य तत्।। | 1-140-18a 1-140-18b |
कृपया यन्मया बालाविमौ संवर्धिताविति। तस्मात्तयोर्नाम चक्रे तदेव स महीपतिः। `तस्मात्कृप इति ख्यातः कृपी कन्या च साऽभवत्।।' | 1-140-19a 1-140-19b 1-140-19c |
पितापि गौतमस्तत्र तपसा ताववन्दित। आगत्य तस्मै गोत्रादि सर्वमाख्यातवांस्तदा।। | 1-140-20a 1-140-20b |
`कृपोऽपि च तदा राजन्धनुर्वेदपरोऽभवत्।' चतुर्विधं धनुर्वेदं शास्त्राणि विविधानि च।। | 1-140-21a 1-140-21b |
निशिलेनास्य तत्सर्वं गुह्यमाख्यातवान्पिता। सोऽचिरेणैव कालेन परमाचार्यतां गतः।। | 1-140-22a 1-140-22b |
कृपमाहूय गाङ्गेयस्तव शिष्या इति ब्रुवन्। पौत्रान्परिसमाधाय कृपमाराधयत्तदा।। | 1-140-23a 1-140-23b |
ततोऽधिजग्मुः सर्वे ते धनुर्वेदं महारथाः। धृतराष्ट्रात्मजाश्चैव पाण्डवाः सह यादवैः।। | 1-140-24a 1-140-24b |
वृष्णयश्च नृपाश्चान्ये नानादेशसमागताः। `कृपमाचार्यमासाद्य परमास्त्रज्ञतां गतः।' | 1-140-25a 1-140-25b |
वैशंपायन उवाच। | 1-140-25x |
विशेषार्थी ततो भीष्मः पौत्राणां विनयेप्सया।। | 1-140-25c |
इष्वस्त्रज्ञान्पर्यपृच्छदाचार्यान्वीर्यसंमतान्। नाल्पधीर्नामहाभागस्तथा नानस्त्रकोविदः।। | 1-140-26a 1-140-26b |
नादेवसत्वो विनयेत्कुरूनस्त्रे महावलान्। इति संचिन्त्य गाङ्गेयस्तदा भरतसत्तमः।। | 1-140-27a 1-140-27b |
द्रोणाय वेदविदुषे भारद्वाजाय धमते। पाण्डवान्कौरवांश्चैव ददौ शिष्यान्नरर्षभ।। | 1-140-28a 1-140-28b |
शास्त्रतः पूजितश्चैव सम्यक्तेन महात्मना। स भीष्मेण महाभागस्तुष्टोऽस्त्रविदुषां वरः।। | 1-140-29a 1-140-29b |
प्रतिजग्राह तान्सर्वाञ्शिष्यत्वेन महायशाः। शिक्षयामास च द्रोणो धनुर्वेदमशेषतः।। | 1-140-30a 1-140-30b |
तेऽचिरेणैव कालेन सर्वशस्त्रविशारदाः। बभूवुः कौरवा राजन्पाण्डवाश्चामितौजसः।। | 1-140-31a 1-140-31b |
जनमेजय उवाच। | 1-140-32x |
कथं समभवद्द्रोणः कथं चास्त्राण्यवाप्तवान्। कथं चागात्कुरून्ब्रह्मन्कस्य पुत्रः स वीर्यवान्।। | 1-140-32a 1-140-32b |
कथं चास्य सुतो जातः सोश्वत्थामाऽस्त्रवित्तमः। एतदिच्छाम्यहं श्रोतुं विस्तरेण प्रकीर्तय।। | 1-140-33a 1-140-33b |
वैशंपायन उवाच। | 1-140-34x |
गङ्गाद्वारं प्रति महान्बभूव भगवानृषिः। भरद्वाज इति ख्यातः सततं संशितव्रतः।। | 1-140-34a 1-140-34b |
सोऽभिषेक्तुं गतो गङ्गां पूर्वमेवागतां सतीम्। महर्षिभिर्भरद्वाजो हविर्धाने चरन्पुरा।। | 1-140-35a 1-140-35b |
ददर्शाप्सरसं साक्षाद्धृताचीमाप्लुतामृषिः। रूपयौवनसंपन्नां मददृप्तां मदालसाम्।। | 1-140-36a 1-140-36b |
तस्या वायुर्नदीतीर वसनं पर्यवर्तत। व्यपकृष्टाम्बरां दृष्ट्वा तामृषिश्चकमे ततः।। | 1-140-37a 1-140-37b |
तत्र संसक्तमनसो भरद्वाजस्य धीमतः। हृष्टस्य रेतश्चस्कन्द तदृषिर्द्रोण आदधे।। | 1-140-38a 1-140-38b |
ततः समभवद्द्रोणः कलशे तस्य धीमतः। अध्यगीष्ट स वेदांश्च वेदाङ्गानि च सर्वशः।। | 1-140-39a 1-140-39b |
अग्नेरस्त्रमुपादाय यदृषिर्वेद काश्यपः। अध्यगच्छद्भरद्वाजस्तदस्त्रं देवकार्यतः।। | 1-140-40a 1-140-40b |
अग्निवेश्यं महाभागं भरद्वाजः प्रतापवान्। प्रत्यपादयदाग्नेयमस्त्रमस्त्रविदां वरः।। | 1-140-41a 1-140-41b |
`कनिष्ठजातं स मुनिर्भ्राता भ्रातरमन्तिके। अग्निवेश्यस्तथा द्रोणं तदा भरतसत्तम।' भारद्वाजं तदाग्नेयं महास्त्रं प्रत्यपादयत्।। | 1-140-42a 1-140-42b 1-140-42c |
भरद्वाजसखा चासीत्पृषतो नाम पार्थिवः। तस्यापि द्रुपदो नाम तथा समभवत्सुतः।। | 1-140-43a 1-140-43b |
स नित्यमाश्रमं गत्वा द्रोणेन सह पार्थिवः। चिक्रीडाध्ययनं चैव चकार क्षत्रियर्षभः।। | 1-140-44a 1-140-44b |
ततो व्यतीते पृषते स राजा द्रुपदोऽभवत्। पञ्चालेषु महाबाहुरुत्तरेषु नरेश्वरः।। | 1-140-45a 1-140-45b |
भरद्वाजोऽपि भगवानारुरोह दिवं तदा। तत्रैव च वसन्द्रोणस्तपस्तेपे महातपाः।। | 1-140-46a 1-140-46b |
वेदवेदाङ्गविद्वान्स तपसा दग्धकिल्बिषः। ततः पितृनियुक्तात्मा पुत्रलोभान्महायशाः।। | 1-140-47a 1-140-47b |
शारद्वतीं ततो भार्यां कृपीं द्रोणोऽन्वविन्दत। अग्निहोत्रे च धर्मे च दमे च सतत रताम्।। | 1-140-48a 1-140-48b |
अलभद्गौतमी पुत्रमश्वत्थामानमेव च। स जातमात्रो व्यनदद्यथैवोच्चैःश्रवा हयः।। | 1-140-49a 1-140-49b |
तच्छ्रुत्वान्तर्हितं भूतमन्तरिक्षस्थमब्रवीत्। अश्वस्येवास्य यत्स्थाम नदतः प्रदिशो गतम्।। | 1-140-50a 1-140-50b |
अश्वत्थामैव बालोऽयं तस्मान्नाम्ना भविष्यति। सुतेन तेन सुप्रीतो भारद्वाजस्ततोऽभवत्।। | 1-140-51a 1-140-51b |
तत्रैव च वसन्धीमान्धनुर्वेदपरोऽभवत्। स शुश्राव महात्मानं जामदग्न्यं परंतपम्।। | 1-140-52a 1-140-52b |
सर्वज्ञानविदं विप्रं सर्वशस्त्रभृतां वरम्। ब्राह्मणेभ्यस्तदा राजन्दित्सन्तं वसु सर्वशः।। | 1-140-53a 1-140-53b |
स रामस्य धनुर्वेदं दिव्यान्यस्त्राणि चैव ह। श्रउत्वा तेषु मनश्चक्रे नीतिशास्त्रे तथैव च।। | 1-140-54a 1-140-54b |
ततः स व्रतिभिः शिष्यैस्तपोयुक्तैर्महातपाः। वृतः प्रायान्महावाहुर्महेन्द्रं पर्वतोत्तमम्।। | 1-140-55a 1-140-55b |
ततो महेन्द्रमासाद्य भारद्वाजो महातपाः। क्षत्रघ्नं तममित्रघ्नमपश्यद्भृगुनन्दनम्।। | 1-140-56a 1-140-56b |
ततो द्रोणो वृतः शिष्यैरुपगम्य भृगूद्वहम्। आचख्यावात्मनो नाम जन्म चाङ्गिरसः कुले।। | 1-140-57a 1-140-57b |
निवेद्य शिरसा भूमौ पादौ चैवाभ्यवादयत्। ततस्तं सर्वमुत्सृज्य वनं जिगमिषुं तदा।। | 1-140-58a 1-140-58b |
जामदग्न्यं महात्मानं भारद्वाजोऽब्रवीदिदम्। भरद्वाजात्समुत्पन्नं तथा त्वं मामयोनिजम्।। | 1-140-59a 1-140-59b |
आगतं वित्तकामं मां विद्धि द्रोणं द्विजोत्तम। तमब्रवीन्महात्मा स सर्वक्षत्रियमर्दनः।। | 1-140-60a 1-140-60b |
स्वागतं ते द्विजश्रेष्ठ यदिच्छसि वदस्व मे। एवमुक्तस्तु रामेण भारद्वाजोऽब्रवीद्वचः।। | 1-140-61a 1-140-61b |
रामं प्रहरतां श्रेष्ठं दित्सन्तं विविधं वसु। अहं धनमनन्तं हि प्रार्थये विपुलव्रत।। | 1-140-62a 1-140-62b |
राम उवाच। | 1-140-63x |
हिरण्यं मम यच्चान्यद्वसु किंचिदिह स्थितम्। ब्राह्मणेभ्यो मया दत्तं सर्वमेतत्तपोधन।। | 1-140-63a 1-140-63b |
तथैवेयं धरा देवी सागरान्ता सपत्तना। कश्यपाय मया दत्ता कृत्स्ना नगरमालिनी।। | 1-140-64a 1-140-64b |
शरीरमात्रमेवाद्य ममेदमवशेषितम्। अस्त्राणि च महार्हाणि शस्त्राणि विविधानि च।। | 1-140-65a 1-140-65b |
अस्त्राणि वा शरीरं वा ब्रह्मञ्शस्त्राणि वा पुनः। वृणीष्व किं प्रयच्छामि तुभ्यं द्रोण वदाशु तत्।। | 1-140-66a 1-140-66b |
द्रोण उवाच। | 1-140-67x |
अस्त्राणि मे समग्राणि ससंहाराणि भार्गव। स प्रयोगरहस्यानि दातुमर्हस्यशेषतः।। | 1-140-67a 1-140-67b |
`एतद्वसु वसूनां हि सर्वेषां विप्रसत्तम।' तथेत्युक्त्वा ततस्तस्मै प्रादादस्त्राणि भार्गवः। सरहस्यव्रतं चैव धनुर्वेदमशेषतः।। | 1-140-68a 1-140-68b 1-140-68c |
प्रतिगृह्य तु तत्सर्वं कृतास्त्रे द्विजसत्तमः। प्रियं सखायं सुप्रीतो जगाम द्रुपदं प्रति।। | 1-140-69a 1-140-69b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि संभवपर्वणि चत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः।। 140 ।। |
1-140-2 गौतमो गौत्रतः।। 1-140-10 समर्थनात्सामर्थ्यात्।। 1-140-18 प्रातिपेयः प्रतीपपुत्रः।। 1-140-19 संवर्धिताविति आलोच्येति शेषः।। 1-140-25 विनयेप्सया शिक्षेच्छया।। 1-140-27 अदेवसत्वः नास्ति देवस्येव सत्वं सामर्थ्यं यस्य सः।। 1-140-38 द्रोणे द्रोण कलशाख्ये यज्ञियपात्रविशेषे।। 1-140-50 स्थामशब्दः सकारस्य तत्कारादेशेऽश्वत्थामेति।। चत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः।। 140 ।।
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