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  258. 258
  259. 259
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उपरिचरराजोपाख्यानम्।। 1 ।। इन्द्रध्वजोत्सववृत्तान्तः।। 2 ।। गिरिकाया उत्पत्तिः। उपरिचरस्य तया विवाहश्च।। 3 ।। मृगयार्थं गतेनोपरिचरेण स्वपत्नीस्मरणात्स्कन्नस्य श्येनद्वरा प्रेषितस्य रेतसो यमुनाजले पतनम्।। 4 || ब्रह्मशापान्मत्स्यभावं प्राप्तयाऽद्रिकया तद्रेतःपानम्।। 5 ।। तदुदरे मिथुनोत्पत्तिः।। 6 ।। तत्र पुत्रस्य उपरिचरवसुना ग्रहणम्। कन्याया दाशगृहे स्थितिः।। 7 ।। नावं वाहयमानायां सत्यवतीनाम्न्यां दाशकन्यायां पराशराद्द्वैपायनस्योत्पत्तिः। तस्य व्यासनामप्राप्तिश्च।। 8 ।। पाठान्तरे पराशरसत्यवतीविवाहादि।। 9 ।। भीष्मादीनां संक्षेपतो जन्मवृत्तान्तकथनम्।। 10 ।।
वैशंपायन उवाच। 1-64-1x
राजोपरिचरो नाम धर्मनित्यो महीपतिः।
बभूव मृगयाशीलः शश्वत्स्वाध्यायवाञ्छुचिः।।
1-64-1a
1-64-1b
स चेदिविषयं रम्यं वसुः पौरवनन्दनः।
इन्द्रोपदेशाज्जग्राह रमणीयं महीपतिः।।
1-64-2a
1-64-2b
तमाश्रमे न्यस्तशस्त्रं निवसन्तं तपोनिधिम्।
देवाः शक्रपुरोगा वै राजानमुपतस्थिरे।।
1-64-3a
1-64-3b
इन्द्रत्वमर्हो राजायं तपसेत्यनुचिन्त्य वै।
तं सान्त्वेन नृपं साक्षात्तपसः संन्यवर्तयन्।।
1-64-4a
1-64-4b
देवा ऊचुः। 1-64-5x
न संकीर्येत धर्मोऽयं पृथिव्यां पृथिवीपते।
त्वया हि धर्मो विधृतः कृत्स्नं धारयते जगत्।।
1-64-5a
1-64-5b
इन्द्र उवाच। 1-64-6x
`देवानहं पालयिता पालय त्वं हि मानुषान्।'
लोके धर्मं पालय त्वं नित्ययुक्तः समाहितः।
धर्मयुक्तस्ततो लोकान्पुण्यान्प्राप्स्यसि शाश्वतान्।।
1-64-6a
1-64-6b
1-64-6c
दिविष्ठस्य भुविष्ठस्त्वं सखाभूतो मम प्रियः।
ऊधः पृथिव्या यो देशस्तमावस नराधिप।।
1-64-7a
1-64-7b
पशव्यश्चैव पुण्यश्च प्रभूतधनधान्यवान्।
स्वारक्ष्यश्चैव सौम्यश्च भोग्यैर्भूमिगुणैर्युतः।।
1-64-8a
1-64-8b
अर्थवानेष देशो हि धनरत्नादिभिर्युतः।
वसुपूर्णा च वसुधा वस चेदिषु चेदिप।।
1-64-9a
1-64-9b
धर्मशीला जनपदाः सुसंतोषाश्च साधवः।
न च मिथ्या प्रलापोऽत्र स्वैरेष्वपि कुतोऽन्यथा।।
1-64-10a
1-64-10b
न च पित्रा विभज्यन्ते पुत्रा गुरुहिते रताः।
युञ्जते धुरि नो गाश्च कृशान्संधुक्षयन्ति च।।
1-64-11a
1-64-11b
सर्वे वर्णाः स्वधर्मस्थाः सदा चेदिषु मानद।
न तेऽस्त्यविदितं किंचित्त्रिषु लोकेषु यद्भवेत्।।
1-64-12a
1-64-12b
दैवोपभोग्यं दिव्यं त्वामाकाशे स्फाटिकं महत्।
आकाशगं त्वां मद्दत्तं विमानमुपपत्स्यते।।
1-64-13a
1-64-13b
त्वमेकः सर्वमर्त्येषु विमानवरमास्थितः।
चरिष्यस्युपरिस्थो हि देवो विग्रहवानिव।।
1-64-14a
1-64-14b
ददामि ते वैजयन्तीं मालामम्लानपङ्कजाम्।
धारयिष्यति सङ्ग्रामे या त्वां शस्त्रैरविक्षतम्।।
1-64-15a
1-64-15b
लक्षणं चैतदेवेह भविता ते नराधिप।
इन्द्रमालेति विख्यातं धन्यमप्रतिमं महत्।।
1-64-16a
1-64-16b
यष्टिं च वैणवीं तस्मै ददौ वृत्रनिषूदनः।
इष्टप्रदानमुद्दिश्य शिष्टानां प्रतिपालिनीम्।।
1-64-17a
1-64-17b
`एवं संसान्त्व्य नृपतिं तपसः संन्यवर्तयत्।
प्रययौ दैवतैः सार्धं कृत्वा कार्यं दिवौकसाम्।।
1-64-18a
1-64-18b
ततस्तु राजा चेदीनामिन्द्राभरणभूषितः।
इन्द्रदत्तं विमानं तदास्थाय प्रययौ पुरीम्।।'
1-64-19a
1-64-19b
तस्याः शक्रस्य पूजार्थं भूमौ भूमिपतिस्तदा।
प्रवेशं कारयामास सर्वोत्सववरं तदा।।
1-64-20a
1-64-20b
`मार्गशीर्षे महाराज पूर्वपक्षे महामखम्।
ततःप्रभृति चाद्यापि यष्टेः क्षितिपसत्तमैः।।'
1-64-21a
1-64-21b
प्रवेशः क्रियते राजन्यथा तेन प्रवर्तितः।
अपरेद्युस्ततस्तस्याः क्रियतेऽत्युच्छ्रयो नृपैः।।
1-64-22a
1-64-22b
अलङ्कृताया पिटकैर्गन्धमाल्यैश्च भूषणैः।
`माल्यदामपरिक्षिप्तां द्वात्रिंशत्किष्कुसंमिताम्।।
1-64-23a
1-64-23b
उद्धृत्य पिटके चापि द्वादशारत्निकोच्छ्रये।
महारजनवासांसि परिक्षिप्य ध्वजोत्तमम्।।
1-64-24a
1-64-24b
वासोभिरन्नपानैश्च पूजितैर्ब्राह्मणर्षभैः।
पुण्याहं वाचयित्वाथ ध्वज उच्छ्रियते तदा।।
1-64-25a
1-64-25b
शङ्खभेरीमृदङ्गैश्च संनादः क्रियते तदा'।
भगवान्पूज्यते चात्र यष्टिरूपेण वासवः।।
1-64-26a
1-64-26b
स्वयमेव गृहीतेन वसोः प्रीत्या महात्मनः।
`माणिभद्रादयो यक्षाः पूज्यन्ते दैवतैः सह।।
1-64-27a
1-64-27b
नानाविधानि दानानि दत्त्वार्थिभ्यः सुहृज्जनैः।
अलङ्कृत्वा माल्यदामैर्वस्त्रैर्नानाविधैस्तथा।।
1-64-28a
1-64-28b
दृतिभिः सजलैः सर्वैः क्रीडित्वा नृपशासनात्।
सभाजयित्वा राजानं कृत्वा नर्माश्रयाः कथाः।।
1-64-29a
1-64-29b
रमन्ते नागराः सर्वे तथा जानपदैः सह।
सूताश्च मागधाश्चैव रमन्ते नटनर्तकाः।।
1-64-30a
1-64-30b
प्रीत्या तु नृपशार्दूल सर्वे चक्रुर्महोत्सवम्।
सान्तःपुरः सहामात्यः सर्वाभरणभूषितः।।
1-64-31a
1-64-31b
महारजनवासांसि वसित्वा चेदिराट् तदा।
जातिहिङ्गुलकेनाक्तः सदारो मुमुदे तदा।।
1-64-32a
1-64-32b
एवं जानपदाः सर्वे चक्रुरिन्द्रमहं वसुः।।'
यथा चेदिपतिः प्रीतश्चकारेन्द्रमहं वसुः।।'
1-64-33a
1-64-33b
एतां पूजां महेन्द्रस्तु दृष्ट्वा वसुकृतां शुभाम्।
`हरिभिर्वाजिभिर्युक्तमन्तरिक्षगतं रथम्।।
1-64-34a
1-64-34b
आस्थाय सह शच्या च वृतो ह्यप्सरसां गणैः।'
वसुना राजमुख्येन समागम्याब्रवीद्वचः।।
1-64-35a
1-64-35b
ये पूजयिष्यन्ति च मुदा यथा चेदिपतिर्नृपः।
कारयिष्यन्ति च मुदा यथा चेदिपतिर्नृपः।।
1-64-36a
1-64-36b
तेषां श्रीर्विजयश्चैव सराष्ट्राणां भविष्यति।
तथा स्फीतो जनपदो मुदितश्च भविष्यति।।
1-64-37a
1-64-37b
`निरीतिकानि सस्यानि भवन्ति बहुधा नृप।
राक्षसाश्च पिशाचाश्च न लुम्पन्ते कथंचन।।
1-64-38a
1-64-38b
वैशंपायन उवाच।' 1-64-39x
एवं महात्मना तेन महेन्द्रेण नराधिप।
वसुः प्रीत्या मघवता महाराजोऽभिसत्कृतः।
एवं कृत्वा महेन्द्रस्तु जगाम स्वं निवेशनम्।।
1-64-39a
1-64-39b
1-64-39c
उत्सवं कारयिष्यन्ति सदा शक्रस्य ये नराः।
भूमिरत्नादिभिर्दानैस्तथा पूज्या भवन्ति ते।
वरदानमहायज्ञैस्तथा शक्रोत्सवेन च।।
1-64-40a
1-64-40b
1-64-40c
संपूजितो मघवता वसुश्चेदीश्वरो नृपः।
पालयामास धर्मेण चेदिस्थः पृथिवीमिमाम्।।
1-64-41a
1-64-41b
इन्द्रपीत्या चेदिपतिश्चकारेन्द्रमहं वसुः।
पुत्राश्चास्य महावीर्याः पञ्चासन्नमितौजसः।।
1-64-42a
1-64-42b
नानाराज्येषु च सुतान्स सम्राडभ्यषेचयत्।
महारथो मागधानां विश्रुतो यो बृहद्रथः।।
1-64-43a
1-64-43b
प्रत्यग्रहः कुशाम्बश्च यमाहुर्मणिवाहनम्।
मत्सिल्लश्च यदुश्चैव राजन्यश्चापराजितः।।
1-64-44a
1-64-44b
एते तस्य सुता राजन्राजर्षेर्भूरितेजसः।
न्यवेशयन्नामभिः स्वैस्ते देशांश्च पुराणि च।।
1-64-45a
1-64-45b
वासवाः पञ्च राजानः पृथग्वंशाश्च शास्वताः।
वसन्तमिन्द्रप्रासादे आकाशे स्फाटिके च तम्।।
1-64-46a
1-64-46b
उपतस्थुर्महात्मानं गन्धर्वाप्सरसो नृपम्।
राजोपरिचरेत्येवं नाम तस्याथ विश्रुतम्।।
1-64-47a
1-64-47b
पुरोपवाहिनीं तस्य नदीं शुक्तमतीं गिरिः।
अरौत्सीच्चेतनायुक्तः कामात्कोलाहलः किल।।
1-64-48a
1-64-48b
गिरिं कोलाहलं तं तु पदा वसुरताडयत्।
निश्चक्राम ततस्तेन प्रहारविवरेण सा।।
1-64-49a
1-64-49b
तस्यां नद्यां स जनयन्मिथुनं पर्वतः स्वयम्।
तस्माद्विमोक्षणात्प्रीता नदी राज्ञे न्यवेदयत्।।
1-64-50a
1-64-50b
`महिषी भविता कन्या पुमान्सेनापतिर्भवेत्।
शुक्तिमत्या वचःश्रुत्वा दृष्ट्वा तौ राजसत्तमः'।।
1-64-51a
1-64-51b
यः पुमानभवत्तत्र तं स राजर्षिसत्तमः।
वसुर्वसुप्रदश्चक्रे सेनापतिमरिन्दमः।।
1-64-52a
1-64-52b
चकार पत्नीं कन्यां तु तथा तां गिरिकां नृपः।
वसोः पत्नी तु गिरिका कामकालं न्यवेदयत्।।
1-64-53a
1-64-53b
ऋतुकालमनुप्राप्ता स्नाता पुंसवने शुचिः।
तदहः पितरश्चैनपूचुर्जहि मृगानिति।।
1-64-54a
1-64-54b
तं राजसत्तमं प्रीतास्तदा मतिमतां वरः।
स पितॄणां नियोगेन तामतिक्रम्य पार्थिवः।।
1-64-55a
1-64-55b
चकार मृगयां कामी गिरिकामेव संस्मरन्।
अतीव रूपसंपन्नां साक्षाच्छ्रियमिवापराम्।।
1-64-56a
1-64-56b
अशोकैश्चम्पकैश्चूतैरनेकैरतिमुक्तकैः।
पुन्नागैः कर्णिकारैश्च बकुलैर्दिव्यपाटलैः।।
1-64-57a
1-64-57b
पनसैर्नारिकेलैश्च चन्दनैश्चार्जुनैस्तथा।
एतै रम्यैर्महावृक्षैः पुण्यैः स्वादुफलैर्युतम्।।
1-64-58a
1-64-58b
कोकिलाकुलसन्नादं मत्तभ्रमरनादितम्।
वसन्तकाले तत्पश्यन्वनं चैत्ररथोपमम्।।
1-64-59a
1-64-59b
मन्मथाभिपरीतात्मा नापश्यद्गिरिकां तदा।
अपश्यन्कामसंतप्तश्चरमाणो यदृच्छया।।
1-64-60a
1-64-60b
पुष्पसंछन्नशाखाग्रं पल्लवैरुपशोभितम्।
अशोकस्तबकैश्छन्नं रमणीयमपश्यत।।
1-64-61a
1-64-61b
अधस्यात्तस्य छायायां सुखासीनो नराधिपः।
मधुगन्धैश्च संयुक्तं पुष्पगन्धमनोहरम्।।
1-64-62a
1-64-62b
वायुना प्रेर्यमाणस्तु धूम्राय मुदमन्वगात्।
`भार्यां चिन्तयमानस्य मन्मथाग्निरवर्धत।'
तस्य रेतः प्रचस्कन्द चरतो गहने वने।।
1-64-63a
1-64-63b
1-64-63c
स्कन्नमात्रं च तद्रेतो वृक्षपत्रेण भूमिपः।
प्रतिजग्राह मिथ्या मे न पतेद्रेत इत्युत।।
1-64-64a
1-64-64b
`अङ्गुलीयेन शुक्लस्य रक्षां च विदधे नृपः।
अशोकस्तबकै रक्तैः पल्लवैश्चाप्यबन्धयत्।।'
1-64-65a
1-64-65b
इदं मिथ्या परिस्कन्नं रेतो मे न भवेदिति।
ऋतुश्च तस्याः पत्न्या मे न मोघः स्यादिति प्रभुः।।
1-64-66a
1-64-66b
संचिन्त्यैवं तदा राजा विचार्य च पुनःपुनः।
अमोघत्वं च विज्ञाय रेतसो राजसत्तमः।।
1-64-67a
1-64-67b
शुक्रप्रस्थापने कालं महिष्या प्रसमीक्ष्य वै।
अभिमन्त्र्याथ तच्छुक्रमारात्तिष्ठन्तमाशुगम्।।
1-64-68a
1-64-68b
सूक्ष्मधर्मार्थतत्त्वज्ञो गत्वा श्येनं ततोऽब्रवीत्।
मत्प्रियार्थमिदं सौम्य शुक्रं मम गृहं नय।।
1-64-69a
1-64-69b
गिरिकायाः प्रयच्छाशु तस्या ह्यार्तवमद्य वै। 1-64-70a
वैशंपायन उवाच। 1-64-70x
गृहीत्वा तत्तदा श्येनस्तूर्णमुत्पत्य वेगवान्।। 1-64-70b
जवं परममास्थाय प्रदुद्राव विहंगमः।
तमपश्यदथायान्तं श्येनं श्येनस्तथाऽपरः।।
1-64-71a
1-64-71b
अभ्यद्रवच्च तं सद्यो दृष्ट्वैवामिषशङ्कया।
तुण्डयुद्धमथाकाशे तावुभौ संप्रचक्रतुः।।
1-64-72a
1-64-72b
युद्ध्यतोरपतद्रेतस्तच्चापि यमुनाम्भसि।
तत्राद्रिकेति विख्याता ब्रह्मशापाद्वराप्सरा।।
1-64-73a
1-64-73b
मीनभावमनुप्राप्ता बभूव यमुनाचरी।
श्येनपादपरिभ्रष्टं तद्वीर्यमथ वासवम्।।
1-64-74a
1-64-74b
जग्राह तरसोपेत्य साऽद्रिका मत्स्यरूपिणी।
कदाचिदपि मत्सीं तां बबन्धुर्मत्स्यजीविनः।।
1-64-75a
1-64-75b
मासे च दशमे प्राप्ते तदा भरतसत्तम।।
उज्जह्रुरुदरात्तस्याः स्त्रीं पुमांसं च मानुषौ।।
1-64-76a
1-64-76b
आश्चर्यभूतं तद्गत्वा राज्ञेऽथ प्रत्यवेदयन्।
काये मत्स्या इमौ राजन्संभूतौ मानुषाविति।।
1-64-77a
1-64-77b
तयोः पुमांसं जग्राह राजोपरिचरस्तदा।
स मत्स्यो नाम राजासीद्धार्मिकः सत्यसङ्गरः।।
1-64-78a
1-64-78b
साऽप्सरा मुक्तशापा च क्षणेन समपद्यत।
या पुरोक्ता भगवता तिर्यग्योनिगता शुभा।।
1-64-79a
1-64-79b
मानुषौ जनयित्वा त्वं शापमोक्षमवाप्स्यसि।
ततः साजनयित्वा तौ विशस्ता मत्स्यघातिभिः।।
1-64-80a
1-64-80b
संत्यज्य मत्स्यरूपं सा दिव्यं रूपमवाप्य च।
सिद्धर्षिचारणपथं जगामाथ वराप्सराः।।
1-64-81a
1-64-81b
सा कन्या दुहिता तस्या मत्स्या मत्स्यसगन्धिनी।
राज्ञा दत्ता च दाशाय कन्येयं ते भवत्विति।।
1-64-82a
1-64-82b
रूपसत्वसमायुक्ता सर्वैः समुदिता गुणैः।
सा तु सत्यवती नाम मत्स्यघात्यभिसंश्रयात्।।
1-64-83a
1-64-83b
आसीत्सा मत्स्यगन्धैव कंचित्कालं शुचिस्मिता।
शुश्रूषार्थं पितुर्नावं वाहयन्तीं जले च ताम्।।
1-64-84a
1-64-84b
तीर्थयात्रां परिक्रामन्नपश्यद्वै पराशरः।
अतीव रूपसंपन्नां सिद्धानामपि काङ्क्षिताम्।।
1-64-85a
1-64-85b
दृष्ट्वैव स च तां धीमांश्चकमे चारुहासिनीम्।
दिव्यां तां वासवीं कन्यां रम्भोरूं मुनिपुङ्गवः।।
1-64-86a
1-64-86b
संभवं चिन्तयित्वा तां ज्ञात्वा प्रोवाच शक्तिजः।
क्व कर्णधारो नौर्येन नीयते ब्रूहि भामिनि।।
1-64-87a
1-64-87b
मत्स्यगन्धोवाच। 1-64-88x
अनपत्यस्य दाशस्य सुता तत्प्रियकाम्यया।
सहस्रजनसंपन्ना नौर्मया वाह्यते द्विज।।
1-64-88a
1-64-88b
पराशर उवाच। 1-64-89x
शोभनं वासवि शुभे किं चिरायसि वाह्यताम्।
कलशं भविता भद्रे सहस्रार्धेन संमितम्।।
1-64-89a
1-64-89b
अहं शेषो भिविष्यामि नीयतामचिरेण वै। 1-64-90a
वैशंपायन उवाच। 1-64-90x
मत्स्यगन्धा तथेत्युक्त्वा नावं वाहयतां जले।। 1-64-90b
वीक्षमाणं मुनिं दृष्ट्वा प्रोवाचेदं वचस्तदा।
मत्स्यगन्धेति मामाहुर्दाशराजसुतां जनाः।।
1-64-91a
1-64-91b
जन्म शोकाभितप्तायाः कथं ज्ञास्यसि कथ्यताम्। 1-64-92a
पराशर उवाच। 1-64-92x
दिव्यज्ञानेन दृष्टं हि दृष्टमात्रेण ते वपुः।। 1-64-92b
प्रणयग्रहणार्थाय वक्ष्येव वासवि तच्छृणु।
बर्हिषद इति ख्याताः पितरः सोमपास्तुते।।
1-64-93a
1-64-93b
तेषां त्वं मानसी कन्या अच्छोदा नाम विश्रुता।
अच्छोदं नाम तद्दिव्यं सरो यस्मात्समुत्थितम्।।
1-64-94a
1-64-94b
त्वया न दृष्टपूर्वास्तु पितरस्ते कदाचन।
संभूता मनसा तेषां पितॄन्स्वान्नाभिजानती।।
1-64-95a
1-64-95b
सा त्वन्यं पितरं वव्रे स्वानतिक्रम्य तान्पितॄन्।
नाम्ना वसुरिति ख्यातं मनुपुत्रं दिवि स्थितम्।।
1-64-96a
1-64-96b
अद्रिकाऽप्सरसा युक्तं विमाने दिवि विष्ठितम्।
सा तेन व्यभिचारेण मनसा कामचारिणी।।
1-64-97a
1-64-97b
पितरं प्रार्थयित्वाऽन्यं योगाद्भष्टा पपात सा।
अपश्यत्पतमाना सा विमानत्रयमन्तिकात्।।
1-64-98a
1-64-98b
त्रसरेणुप्रमाणांस्तांस्तत्रापश्यत्स्वकान्पितॄन्।
सुसूक्ष्मानपरिव्यक्तानङ्गैरङ्गेष्विवाहितान्।।
1-64-99a
1-64-99b
तातेति तानुवाचार्ता पतन्ती सा ह्यधोमुखी।
तैरुक्ता सा तु माभैषीस्तेन सा संस्थिता दिवि।।
1-64-100a
1-64-100b
ततः प्रसादयामास स्वान्पितॄन्दीनया गिरा।
तामूचुः पितरः कन्यां भ्रैष्टश्वर्यां व्यतिक्रमात्।।
1-64-101a
1-64-101b
भ्रष्टैश्वर्या स्वदोषेण पतसि त्वं शुचिस्मिते।
यैरारभन्ते कर्माणि शरीरैरिह देवताः।।
1-64-102a
1-64-102b
तैरेव तत्कर्मफलं प्राप्नुवन्ति स्म देवताः।
मनुष्यास्त्वन्यदेहेन शुभाशुभमिति स्थितिः।।
1-64-103a
1-64-103b
सद्यः फलन्ति कर्माणि देवत्वे प्रेत्य मानुषे।
तस्मात्त्वं पतसे पुत्रि प्रेत्यत्वं प्राप्स्यसे फलम्।।
1-64-104a
1-64-104b
पितृहीना तु कन्या त्वं वसोर्हि त्वं सुता मता।
मत्स्ययोनौ समुत्पन्ना सुताराज्ञो भविष्यसि।।
1-64-105a
1-64-105b
अद्रिका मत्स्यरूपाऽभूद्गङ्गायमनुसङ्गमे।
पराशरस्य दायादं त्वं पुत्रं जनयिष्यसि।।
1-64-106a
1-64-106b
यो वेदमेकं ब्रह्मर्षिश्चतुर्धा विबजिष्यति।
महाभिषक्सुतस्यैव शन्तनोः कीर्तिवर्धनम्।।
1-64-107a
1-64-107b
ज्येष्ठं चित्राङ्गदं वीरं चित्रवीरं च विश्रुतम्।
एतान्सूत्वा सुपुत्रांस्त्वं पुनरेव गमिष्यसि।।
1-64-108a
1-64-108b
व्यतिक्रमात्पितॄणां च प्राप्स्यसे जन्म कुत्सितम्।
अस्यैव राज्ञस्त्वं कन्या ह्यद्रिकायां भविष्यसि।।
1-64-109a
1-64-109b
अष्टाविंशे भवित्री त्वं द्वापरे मत्स्ययोनिजा।
एवमुक्ता पुरा तैस्त्वं जाता सत्यवती शुभा।।
1-64-110a
1-64-110b
अद्रिकेत्यभिविख्याता ब्रह्मशापाद्वराप्सरा।
मीनभावमनुप्राप्ता त्वं जनित्वा गता दिवम्।।
1-64-111a
1-64-111b
तस्यां जातासि सा कन्या राज्ञो वीर्येण चैवहि।
तस्माद्वासवि भद्रं ते याचे वंशकरं सुतम्।।
1-64-112a
1-64-112b
संगमं मम कल्याणि कुरुष्वेत्यभ्यभाषत।। 1-64-113a
वैशंपायन उवाच। 1-64-114x
विस्मयाविष्टसर्वाङ्गी जातिस्मरणतां गता।
साब्रवीत्पश्य भगवन्परपारे स्थितानृषीन्।।
1-64-114a
1-64-114b
आवयोर्दृष्टयोरेभिः कथं नु स्यात्समागमः।
एवं तयोक्तो भगवान्नीहारमसृजत्प्रभुः।।
1-64-115a
1-64-115b
येन देशः स सर्वस्तु तमोभूत इवाभवत्।
दृष्ट्वा सृष्टं तु नीहारं ततस्तं परमर्षिणा।।
1-64-116a
1-64-116b
विस्मिता साभवत्कन्या व्रीडिता च तपस्विनी। 1-64-117a
सत्यवत्युवाच। 1-64-117x
विद्धि मां भगवन्कन्यां सदा पितृवशानुगाम्।। 1-64-117b
त्वत्संयोगाच्च दुष्येत कन्याभावो ममाऽनघ।
कन्यात्वे दूषिते वापि कथं शक्ष्ये द्विजोत्तम।।
1-64-118a
1-64-118b
गृह गन्तुमुषे चाहं धीमन्न स्थातुमुत्सहे।
एतत्संचिन्त्य भगवन्विधत्स्व यदनन्तरम्।।
1-64-119a
1-64-119b
वैशंपायन उवाच। 1-64-119x
एवमुक्तवतीं तीं तु प्रीतिमानुषिसत्तमः।
उवाच मत्प्रियं कृत्वा कन्यैव त्वं भविष्यति।।
1-64-120a
1-64-120b
वृणीष्व च वरं भीरुं यं त्वमिच्छसि भामिनि।
वृथा हि न प्रसादो मे भूतपूर्वः शुचिस्मिते।।
1-64-121a
1-64-121b
एवमुक्ता वरं वव्रे गात्रसौगन्ध्यमुत्तमम्।
सचास्यै भगवान्प्रादान्मनः काङ्क्षितं प्रभुः।।
1-64-122a
1-64-122b
ततो लब्धवरा प्रीता स्त्रीभावगुणभूषिता।
जगाम सह संसर्गमृषिणाऽद्भुतकर्मणा।।
1-64-123a
1-64-123b

तस्यास्तु योजनाद्गन्धमाजिघ्रन्त नरा भुवि।।
1-64-124a
1-64-124b
तस्या योजनगन्धेति ततो नामापरं स्मृतम्।
इति सत्यवती हृष्टा लब्ध्वा वरमनुत्तमम्।।
1-64-125a
1-64-125b
पराशरेण संयुक्ता सद्यो गर्भं सुषाव सा।
जज्ञे च यमुनाद्वीपे पाराशर्यः स वीर्यवान्।।
1-64-126a
1-64-126b
स मातरमनुज्ञाप्य तपस्येव मनो दधे।
स्मृतोऽहं दर्शयिष्यामि कृत्येष्विति च सोऽब्रवीत्।।
1-64-127a
1-64-127b
एवं द्वैपायनो जज्ञे सत्यवत्यां पराशरात्।
न्यस्तोद्वीपे यद्बालस्तस्माद्द्वैपायनःस्मृतः।।
1-64-128a
1-64-128b
पादापसारिणं धर्मं स तु विद्वान्युगे युगे।
आयुः शक्तिं च मर्त्यानां युगावस्थामवेक्ष्यच।।
1-64-129a
1-64-129b
ब्रह्मणो ब्राह्मणानां च तथानुग्रहकाङ्क्षया।
विव्यास वेदान्यस्मत्स तस्माद्व्यास इति स्मृतः।।
1-64-130a
1-64-130b
वेदानध्यापयामास महाभारतपञ्चमान्।
सुमन्तुं जैमिनिं पैलं शुकं चैव स्वमात्मजम्।।
1-64-131a
1-64-131b
प्रभुर्वरिष्ठो वरदो वैशंपायनमेव च।
संहितास्तैः पृथक्त्वेन भारतस्य प्रकाशिताः।।
1-64-132a
1-64-132b
[ततो रम्ये वनोद्देशे दिव्यास्तरणसंयुते।
वीरासनमुपास्थाय योगी ध्यानपरोऽभवत्।।
1-64a-1a
1-64a-1b
श्वेतपट्टगृहे रम्ये पर्यङ्के सोत्तरच्छदे।
तूष्णींभूतां तदा कन्यां ज्वलन्तीं योगतेजसा।।
1-64a-2a
1-64a-2b
दृष्ट्वा तां तु समाधाय विचार्य च पुनः पुनः।
स चिन्तयामास मुनिः किं कृतं सुकृतं भवेत्।।
1-64a-3a
1-64a-3b
शिष्टानां तु समाचारः शिष्टाचार इति स्मृतः।
श्रुतिस्मृतिविदो विप्रा धर्मज्ञा ज्ञानिनः स्मृताः।।
1-64a-4a
1-64a-4b
धर्मज्ञैर्विहितो धर्मः श्रौतः स्मार्तो द्विधा द्विजैः।
दानाग्निहोत्रमिज्या च श्रौतस्यैतद्धि लक्षणम्।।
1-64a-5a
1-64a-5b
स्मार्तो वर्णाश्रमाचारो यमैश्च नियमैर्युतः।
धर्मे तु धारणे धातुः सहत्वे चापि पठ्यते।।
1-64a-6a
1-64a-6b
तत्रेष्टफलभाग्धर्म आचार्यैरुपदिश्यते।
अनिष्टफलभाक्रेति तैरधर्मोऽपि भाष्यते।।
1-64a-7a
1-64a-7b
तस्मादिष्टफलार्थाय धर्ममेव समाश्रयेत्।
ब्राह्मो दैवस्तथैवार्षः प्राजापत्यश्च धार्मिकः।।
1-64a-8a
1-64a-8b
विवाहा ब्राह्मणानां तु गान्धर्वो नैव धार्मिकः।
त्रिवर्णेतरजातीनां गान्धर्वासुरराक्षसाः।।
1-64a-9a
1-64a-9b
पैशाचो नैव कर्तव्यः पैशाचश्चाष्टमोऽधमः।
सामर्षां व्यङ्गिकां कन्यां मातुश्च कुलजां तथा।।
1-64a-10a
1-64a-10b
वृद्धां प्रव्राजितां वन्ध्यां पतितां च रजस्वलाम्।
अपस्मारकुले जातां पिङ्गलांकुष्ठिनीं व्रणीम्।।
1-64a-11a
1-64a-11b
न चास्नातां स्त्रियं गच्छेदिति धर्मानुशासनम्।
पिता पितामहो भ्राता माता मातुल एव च।।
1-64a-12a
1-64a-12b
उपाध्यायर्त्विजश्चैव कन्यादाने प्रभूत्तमाः।
एतैर्दत्तां निषेवेत नादत्तामाददीत च।।
1-64a-13a
1-64a-13b
इत्येव ऋषयः प्राहुर्विवाहे धर्मवित्तमाः।
अस्या नास्ति पिता भ्राता माता मातुल एव च।।
1-64a-14a
1-64a-14b
गान्धर्वेण विवाहेन न स्पृशामि यदृच्छया।
क्रियाहीनं तु गान्धर्वं न कर्तव्यमनापदि।।
1-64a-15a
1-64a-15b
यदस्यां जायते पुत्रो वेदव्यासो भवेदृषिः।
क्रियाहीनः कथं विप्रो भवेदृषिरुदारधीः।।
1-64a-16a
1-64a-16b
वैशंपायन उवाच। 1-64a-17x
एवं चिन्तयतो भावं महर्षेर्भावितात्मनः।
ज्ञात्वा चैवाभ्यवर्तन्त पितरो बर्हिषस्तदा।।
1-64a-17a
1-64a-17b
तस्मिन्क्षणे ब्रह्मपुत्रो वसिष्ठोऽपि समेयिवान्।
पूर्वं स्वागतमित्युक्त्वा वसिष्ठः प्रत्यभाषत।।
1-64a-18a
1-64a-18b
पितृगणा ऊचुः। 1-64a-19x
अस्माकं मानसीं कन्यामस्मच्छापेन वासवीम्।
यदिचच्छशि पुत्रार्थं कन्यां गृह्मीष्वमा चिरम्।।
1-64a-19a
1-64a-19b
पितॄणां वचनं श्रुत्वा वसिष्ठः प्रत्यभाषत।
महर्षीणां वचः सत्यं पुराणेपि मया श्रुतम्।।
1-64a-20a
1-64a-20b
पराशरो ब्रह्मचारी प्रजार्थी मम वंशधृत्।
एवं संभाषमाणे तु वसिष्ठे पितृभिः सह।।
1-64a-21a
1-64a-21b
ऋषयोऽभ्यागमंस्तत्र नैमिशारण्यवासिनः।
विवाहं द्रष्टुमिच्छन्तः शक्तिपुत्रस्य धीमतः।।
1-64a-22a
1-64a-22b
अरुन्धती महाभागा अदृश्यन्त्या सहैव सा।
विश्वकर्मकृतां दिव्यां पर्णशालां प्रविश्य सा।।
1-64a-23a
1-64a-23b
वैवाहिकांस्तु संभारान्संकल्प्य च यथाक्रमम्।
अरुन्धती सत्यवतीं वधूं संगृह्य पाणिना।।
1-64a-24a
1-64a-24b
भद्रासने प्रतिष्ठाप्य इन्द्राणीं समकल्पयत्।
आपूर्यमाणपक्षे तु वैशाखे सोमदैवते।।
1-64a-25a
1-64a-25b
शुभग्रहे त्रयोदश्यां मुहूर्ते मैत्र आगते।
विवाहकाल इत्युक्त्वा वसिष्ठो मुनिभिः सह।।
1-64a-26a
1-64a-26b
यमुनाद्वीपमासाद्य शिष्यैश्च मुनिपङ्क्तिभिः।
स्थण्डिलं चतुरश्रं च गोमयेनोपलिप्य च।।
1-64a-27a
1-64a-27b
अक्षतैः फलपुष्पैश्च स्वस्तिकैराम्रपल्लवैः।
जलपूर्णघटैश्चैव सर्वतः परिशोभितम्।।
1-64a-28a
1-64a-28b
तस्य मध्ये प्रतिष्ठाप्य बृस्यां मुनिवरं तदा।
सिद्धार्थयवकल्कैश्च स्नातं सर्वौषधैरपि।।
1-64a-29a
1-64a-29b
कृत्वार्जुनानि वस्त्राणि परिधाप्य महामुनिम्।
वाचयित्वा तु पुण्याहमक्षतैस्तु समर्चितः।।
1-64a-30a
1-64a-30b
गन्धानुलिप्तः स्रग्वी च सप्रतोदो वधूगृहे।
अपदातिस्ततो गत्वा वधूज्ञातिभिरर्चितः।।
1-64a-31a
1-64a-31b
स्नातामहतसंवीतां गन्धलिप्तां स्रगुज्ज्वलाम्।
वधूं मङ्गलसंयुक्तामिषुहस्तां समीक्ष्य च।।
1-64a-32a
1-64a-32b
उवाच वचनं काले कालज्ञः सर्वधर्मवित्।
प्रतिग्रहो दातृवशः श्रुतमेवं मया पुरा।।
1-64a-33a
1-64a-33b
यथा वक्ष्यन्ति पितरस्तत्करिष्यामहे वयम्। 1-64a-34a
वैशंपायन उवाच। 1-64a-34x
तद्धर्मिष्ठं यशस्यं च वचनं सत्यवादिनः।। 1-64a-34b
श्रुत्वा तु पितरः सर्वे निःसङ्गा निष्परिग्रहाः।
वसुं परमधर्मिष्ठमानीयेदं वचोऽब्रुवन्।।
1-64a-35a
1-64a-35b
मत्स्ययोनौ समुत्पन्ना तव पुत्री विशेषतः।
पराशराय मुनये दातुमर्हसि धर्मतः।।
1-64a-36a
1-64a-36b
वसुरुवाच। 1-64a-37x
सत्यं मम सुता सा हि दाशराजेन वर्धिता।
अहं प्रभुः प्रदाने तु प्रजापालः प्रजार्थिनाम्।।
1-64a-37a
1-64a-37b
पितर ऊचुः। 1-64a-38x
निराशिषो वयं सर्वे निःसङ्गा निष्परिग्रहाः।
कन्यादानेन संबन्धो दक्षिणाबन्ध उच्यते।।
1-64a-38a
1-64a-38b
कर्मभूमिस्तु मानुष्यं भोगभूमिस्त्रिविष्टपम्।
इह पुण्यकृतो यान्ति स्वर्गलोकं न संशयः।।
1-64a-39a
1-64a-39b
इह लोके दुष्कृतिनो नरकं यान्ति निर्घृणाः।
दक्षिणाबन्ध इत्युक्ते उभे सुकृतदुष्कृते।।
1-64a-40a
1-64a-40b
दक्षिणाबन्धसंयुक्ता योगिनः प्रपतन्ति ते।
तस्मान्नो मानसीं कन्यां योगाद्भ्रष्टां विशापते।।
1-64a-41a
1-64a-41b
सुतात्वं तव संप्राप्तां सतीं भिक्षां ददस्व वै।
इत्युक्त्वा पितरः सर्वे क्षणादन्तर्हितास्तदा।।
1-64a-42a
1-64a-42b
वैशंपायन उवाच। 1-64a-43x
याज्ञवल्क्यं समाहूय विवाहाचार्यमित्युत।
वसुं चापि समाहूय वसिष्ठो मुनिभिः सह।।
1-64a-43a
1-64a-43b
विवाहं कारयामास विधिदृष्टेन कर्मणा। 1-64a-44a
वसुरुवाच। 1-64a-44x
पराशर महाप्राज्ञ तव दास्याम्यहं सुताम्।। 1-64a-44b
प्रतीच्छ चैनां भद्रं ते पाणिं गृह्णीष्व पाणिना। 1-64a-45a
वैशंपायन उवाच। 1-64a-45x
वसोस्तु वचनं श्रुत्वा याज्ञवल्क्यमते स्थितः।। 1-64a-45b
कृतकौतुकमङ्गल्यः पाणिना पाणिमस्पृशत्।
प्रभूताज्येन हविषा हुत्वा मन्त्रैर्हुताशनम्।।
1-64a-46a
1-64a-46b
त्रिरग्निं तु परिक्रम्य समभ्यर्च्य हुताशनम्।
महर्षीन्याज्ञवल्क्यादीन्दक्षिणाभिः प्रतर्प्यच।।
1-64a-47a
1-64a-47b
लब्धानुज्ञोऽभिवाद्याशु प्रदक्षिणमथाकरोत्।
पराशरे कृतोद्वाहे देवाः सर्पिगणास्तदा।।
1-64a-48a
1-64a-48b
हृष्टा जग्मुः क्षणादेव वेदव्यासो भवत्विति।
एवं सत्यवती हृष्टा पूजां लब्ध्वा यथेष्टतः।।
1-64a-49a
1-64a-49b
पराशरेण संयुक्ता सद्यो गर्भं सुषाव सा।
जज्ञे च यमुनाद्वीपे पाराशर्यः स वीर्यवान्।।
1-64a-50a
1-64a-50b
जातमात्रः स ववृधे सप्तवर्षोऽभवत्तदा।
स्नात्वाभिवाद्य पितरं तस्थौ व्यासः समाहितः।।
1-64a-51a
1-64a-51b
स्वस्तीति वचनं चोक्त्वा ददौ कलशमुत्तमम्।
गृहीत्वा कलशं प्राप्ते तस्थौ व्यासः समाहितः।।
1-64a-52a
1-64a-52b
ततो दाशभयात्पत्नी स्नात्वा कन्या बभूव सा।
अभिवाद्य मुनेः पादौ पुत्रं जग्राह पाणिना।।
1-64a-53a
1-64a-53b
स्पृष्टमात्रे तु निर्भर्त्स्य मातरं वाक्यमब्रवीत्।
मम पित्रा तु संस्पर्शान्मातस्त्वमभवः शुचिः।।
1-64a-54a
1-64a-54b
अद्य दाशसुता कन्या न स्पृशेर्मामनिन्दिते। 1-64a-55a
वैशंपायन उवाच। 1-64a-55x
व्यासस्य वचनं श्रुत्वा बाष्पपूर्णमुखी तदा।। 1-64a-55b
मनुष्यभावात्सा योषित्पपात मुनिपादयोः।
महाप्रसादो भगवान्पुत्रं प्रोवाच धर्मवित्।।
1-64a-56a
1-64a-56b
मा त्वमेवंविधं कार्षीर्नैतद्धर्म्यं मतं हि नः।
दूष्यौ न मातापितरौ तथा पूर्वोपकारिणौ।।
1-64a-57a
1-64a-57b
धारणाद्दुःखसहनात्तयोर्माता गरीयसी।
बीजक्षेत्रसमायोगे सस्यं जायेत लौकिकम्।।
1-64a-58a
1-64a-58b
जायते च सुतस्तद्वत्पुरुषस्त्रीसमागमे।
मृगीणां पक्षिणां चैव अप्सराणां तथैव च।।
1-64a-59a
1-64a-59b
शूद्रयोन्यां च जायन्ते मुनयो वेदपारगाः।
ऋष्यशृङ्गो मृगीपुत्रः कण्वो बर्हिसुतस्तथा।।
1-64a-60a
1-64a-60b
अगस्त्यश्च वसिष्ठश्च उर्वश्यां जनितावुभौ।
सोमश्रवास्तु सर्प्यां तु अश्विनावश्विसंभवौ।।
1-64a-61a
1-64a-61b
स्कन्दः स्कन्नेन शुक्लेन जातः शरवणे पुरा।
एवमेव च देवानामृषीमां चैव संभवः।।
1-64a-62a
1-64a-62b
लोकवेदप्रवृत्तिर्हि न मीमांस्या बुधैः सदा।
वेदव्यास इति प्रोक्तः पुराणे च स्वयंभुवा।।
1-64a-63a
1-64a-63b
धर्मनेता महर्षीणां मनुष्याणां त्वमेव च।
तस्मात्पुत्र न दूष्येत वासवी योगचारिणी।।
1-64a-64a
1-64a-64b
मत्प्रीत्यर्थं महाप्राज्ञ सस्नेहं वक्तुमर्हसि।
प्रजाहितार्थं संभूतो विष्णोर्भागो महानृषिः।।
1-64a-65a
1-64a-65b
तस्मात्स्वमातरं स्नेहात्प्रबवीहि तपोधन। 1-64a-66a
वैशंपायन उवाच। 1-64a-66x
गुरोर्वचनमाज्ञाय व्यासः प्रीतोऽभवत्तदा।। 1-64a-66b
चिन्तयित्वा लोकवृत्तं मातुरङ्कमथाविशत्।
पुत्रस्पर्शात्तु लोकेषु नान्यत्सुखमतीव हि।।
1-64a-67a
1-64a-67b
व्यासं कमलपत्राक्षं परिष्वज्याश्र्ववर्तयत्।
स्तन्यासारैः क्लिद्यमाना पुत्रमाघ्राय मूर्धनि।।
1-64a-68a
1-64a-68b
वासव्युवाच। 1-64a-69x
पुत्रलाभात्परं लोके नास्तीह प्रसवार्थिनाम्।
दुर्लभं चेति मन्येऽहं मया प्राप्तं महत्तपः।।
1-64a-69a
1-64a-69b
महता तपसा तात महायोगबलेन च।
मया त्वं हि महाप्राज्ञ लब्धोऽमृतमिवामरैः।।
1-64a-70a
1-64a-70b
तस्मात्त्वं मामृषेः पुत्र त्यक्तुं नार्हसि सांप्रतम्। 1-64a-71a
वैशंपायन उवाच। 1-64a-71x
एवमुक्तस्ततः स्नेहाद्व्यासो मातरमब्रवीत्।। 1-64a-71b
त्वया स्पृष्टः परिष्वक्तो मूर्ध्नि चाघ्रायितो मुहुः।
एतावन्मात्रया प्रीतो भविष्येषु नृपात्मजे।।
1-64a-72a
1-64a-72b
स्मृतोऽहं दर्शयिष्यामि कृत्येष्विति च सोऽब्रवीत्।
स मातरमनुज्ञाप्य तपस्येव मनो दधे।।
1-64a-73a
1-64a-73b
ततः कन्यामनुज्ञाय पुनः कन्या भवत्विति।
पराशरोऽपि भगवान्पुत्रेण सहितो ययौ।।
1-64a-74a
1-64a-74b
गत्वाश्रमपदं पुम्यमदृश्यन्त्या पराशरः।
जातकर्मादिसंस्कारं कारयामास धर्मतः।।
1-64a-75a
1-64a-75b
कृतोपनयनो व्यासो याज्ञवल्क्येन भारत।
वेदानधिजगौ साङ्गानोङ्कारेण त्रिमात्रया।।
1-64a-76a
1-64a-76b
गुरवे दक्षिणां दत्त्वा तपः कर्तुं प्रचक्रमे।
एवं द्वैपायनो जज्ञे सत्यवत्यां पराशरात्।।
1-64a-77a
1-64a-77b
द्वीप न्यस्तः स यद्वालस्तस्माद्द्वैपायनोऽभवत्।
पादापसारिणं धर्मं विद्वान्स तु युगे युगे।।
1-64a-78a
1-64a-78b
आयुः शक्तिं च मर्त्यानां युगाद्युगमवेक्ष्य च।
ब्रह्मर्षिर्ब्राह्मणानां च तथाऽनुग्रहकाङ्क्षया।।
1-64a-79a
1-64a-79b
विव्यास वेदान्यस्माच्च वेदव्यास इति स्मृतः।
ततः स महर्षिर्विद्वाञ्शिष्यानाहूय धर्मतः।।
1-64a-80a
1-64a-80b
सुमन्तुं जैमिनिं पैलं शुकं चैव स्वमात्मजम्।
प्रभुर्वरिष्ठो वरदो वैशंपायनमेव च।।
1-64a-81a
1-64a-81b
वेदानध्यापयामास महाभारतपञ्चमान्।
संहितास्तैः पृथक्त्वेन भारतस्य प्रकीर्तिता।।
1-64a-82a
1-64a-82b
ततः सत्यवती हृष्टा जगाम स्वं निवेशनम्।
तस्यास्तु योजनाद्गन्धमाजिघ्रन्ति नरा भुवि।।
1-64a-83a
1-64a-83b
दाशराजस्तु तद्गन्धमाजिघ्रन्पीतिमावहत्। 1-64a-84a
दाशराज उवाच। 1-64a-84x
त्वामाहुर्मत्स्यगन्धेति कथं बाले सुगन्धता।। 1-64a-84b
अपास्य मत्स्यगन्धत्वं केन दत्ता सुगन्धता 1-64a-85a
सत्यवत्युवाच। 1-64a-85x
शक्ते- पुत्रो महाप्राज्ञः पराशर इति श्रुतः।। 1-64a-85b
नावं वाहयमानाया मम दृष्ट्वां सुशिक्षितम्।
उपास्य मत्स्यगन्धत्वं योजनाद्गन्धतां ददौ।।
1-64a-86a
1-64a-86b
ऋषेः प्रसादं दृष्ट्वा तु जनाः प्रीतिमुपागमन्।
एवं लब्धो मया गन्धो न रोषं कर्तुमर्हसि।।
1-64a-87a
1-64a-87b
दाशराजस्तु तद्वाक्यं प्रशशंस ननन्द च।
एतत्पवित्रं पुण्यं च व्याससमवमुत्तमम्।
इतिहासमिमं श्रुत्वा प्रजावन्तो भवन्ति च।।
1-64a-88a
1-64a-88b
1-64a-88c
तथा भीष्मः शान्तनवो गङ्गायाममितद्युतिः।
वसुवीर्यात्समभवन्महावीर्यो महायशाः।।
1-64-133a
1-64-133b
वैदार्थविच्च भगवानृषिर्विप्रो महायशाः।
शूले प्रोतः पुराणर्षिरचोरश्चोरशङ्कया।।
1-64-134a
1-64-134b
अणीमाण्डव्य इत्येवं विख्यातः स महायशाः।
स धर्ममाहूय पुरा महर्षिरिदमुक्तवान्।।
1-64-135a
1-64-135b
इषीकया मया बाल्याद्विद्धा ह्येका शकुन्तिका।
तत्किल्बिषं स्मरे धर्म नान्यत्पापमहं स्मरे।।
1-64-136a
1-64-136b
तन्मे सहस्रममितं कस्मान्नेहाजयत्तपः।
गरीयान्ब्राह्मणवधः सर्वभूतवधाद्यतः।।
1-64-137a
1-64-137b
तस्मात्त्वं किल्बिषादस्माच्छूद्रयोनौ जनिष्यसि। 1-64-138a
वैशंपायन उवाच। 1-64-138x
तेन शापेन धर्मोऽपि शूद्रयोनावजायत।। 1-64-138b
विद्वान्विदुररूपेण धार्मिकः किल्बिषात्ततः।
संजयो मुनिकल्पस्तु जज्ञे सूतो गवल्गणात्।।
1-64-139a
1-64-139b
सूर्याच्च कुन्तिकन्यायां जज्ञे कर्णो महाबलः।
सहजं कवचं बिभ्रत्कुण्डलोद्योतिताननः।।
1-64-140a
1-64-140b
अनुग्रहार्थं लोकानां विष्णुर्लोकनमस्कृतः।
वसुदेवात्तु देवक्यां प्रादुर्भूतो महायशाः।।
1-64-141a
1-64-141b
अनादिनिधनो देवः स कर्ता जगतः प्रभुः।
अव्यक्तमक्षरं ब्रह्म प्रधानं त्रिगुणात्मकम्।।
1-64-142a
1-64-142b
आत्मानमव्ययं चैव प्रकृतिं प्रभवं प्रभुम्।
पुरुषं विश्वकर्माणं सत्वयोगं ध्रुवाक्षरम्।।
1-64-143a
1-64-143b
अनन्तमचलं देवं हंसं नारायणं प्रभुम्।
धातारमजमव्यक्तं यमाहुः परमव्ययम्।।
1-64-144a
1-64-144b
कैवल्यं निर्गुणं विश्वमनादिमजमव्ययम्।
पुरुषः स विभुः कर्ता सर्वभूतपितामहः।।
1-64-145a
1-64-145b
धर्मसंस्थापनार्थाय प्रजज्ञेऽन्धकवृष्णिषु।
अस्त्रज्ञौ तु महावीर्यौ सर्वशास्त्रविशारदौ।।
1-64-146a
1-64-146b
सात्यकिः कृतवर्मा च नारायणमनुव्रतौ।
सत्यकाद्धृदिकाच्चैव जज्ञातेऽस्त्रविशारदौ।।
1-64-147a
1-64-147b
भरद्वाजस्य च स्कन्नं द्रोण्यां शुक्रमवर्धत।
सहर्षेरुग्रतपसस्तस्माद्द्रोणो व्यजायत।।
1-64-148a
1-64-148b
गौतमान्मिथुनं जज्ञे शरस्तम्बाच्छरद्वतः।
अश्वत्थाम्नश्च जननी कृपश्चैव महाबलः।।
1-64-149a
1-64-149b
अश्वत्थामा ततो जज्ञे द्रोणादेव महाबलः।
तथैव धृष्टद्युम्नोऽपि साक्षादग्निसमद्युतिः।।
1-64-150a
1-64-150b
वैताने कर्मणि तते पावकात्समजायत।
वीरो द्रोणविनाशाय धनुरादाय वीर्यवान्।।
1-64-151a
1-64-151b
तथैव वेद्यां कृष्णापि जज्ञे तेजस्विनी शुभा।
विभ्राजमाना वपुषा बिभ्रती रूपमुत्तमम्।।
1-64-152a
1-64-152b
प्रह्रादशिष्यो नग्नजित्सुबलश्चाभवत्ततः।
तस्य प्रजा धर्महन्त्री जज्ञे देवप्रकोपनात्।।
1-64-153a
1-64-153b
गान्धारराजपुत्रोऽभूच्छकुनिः सौबलस्तथा।
दुर्योधनस्य जननी जज्ञातेऽर्थविशारदौ।।
1-64-154a
1-64-154b
कृष्णद्वैपायनाज्जज्ञे धृतराष्ट्रो जनेश्वरः।
क्षेत्रे विचित्रवीर्यस्य पाण्डुश्चैव महाबलः।।
1-64-155a
1-64-155b
धर्मार्थकुशलो धीमान्मेधावी धूतकल्मषः।
विदुरः शूद्रयोनौ तु जज्ञे द्वैपायनादपि।।
1-64-156a
1-64-156b
पाण्डोस्तु जज्ञिरे पञ्च पुत्रा देवसमाः पृथक्।
द्वयोः स्त्रियोर्गुणज्येष्ठस्तेषामासीद्युधिष्ठिरः।।
1-64-157a
1-64-157b
धर्माद्युधिष्ठिरो जज्ञे मारुताच्च वृकोदरः।
इन्द्राद्धनंजयः श्रीमान्सर्वशस्त्रभृतां वरः।।
1-64-158a
1-64-158b
जज्ञाते रूपसंपन्नावश्विभ्यां च यमावपि।
नकुलः सहदेवश्च गुरुशुश्रूषणे रतौ।।
1-64-159a
1-64-159b
तथा पुत्रशतं जज्ञे धृतराष्ट्रस्य धीमतः।
दुर्योधनप्रभृतयो युयुत्सुः करणस्तथा।।
1-64-160a
1-64-160b
ततो दुःशासनश्चैव दुःसहश्चापि भारत।
दुर्मर्षणो विकर्णश्च चित्रसेनो विविंशतिः।।
1-64-161a
1-64-161b
जयः सत्यव्रतश्चैव पुरुमित्रश्च भारत।
वैश्यापुत्रो युयुत्सुश्च एकादश महारथाः।।
1-64-162a
1-64-162b
अभिमन्युः सुभद्रायामर्जुनादभ्यजायत।
स्वस्रीयो वासुदेवस्य पौत्रः पाण्डोर्महात्मनः।।
1-64-163a
1-64-163b
पाण्डवेभ्यो हि पाञ्चाल्यां द्रौपद्यां पञ्च जज्ञिरे।
कुमारा रूपसंपन्नाः सर्वशास्त्रविशारदाः।।
1-64-164a
1-64-164b
प्रतिविन्ध्यो युधिष्ठिरात्सुतसोमो वृकोदरात्।
अर्जुनाच्छ्रुतकीर्तिस्तु शतानीकस्तु नाकुलिः।।
1-64-165a
1-64-165b
तथैव सहदेवाच्च श्रुतसेनः प्रतापवान्।
हिडिम्बायां च भीमेन वने जज्ञे घटोत्कचः।।
1-64-166a
1-64-166b
शिखण्डी द्रुपदाज्जज्ञे कन्या पुत्रत्वभागता।
यां यक्षः पुरुषं चक्रे स्थूमः प्रियचिकीर्षया।।
1-64-167a
1-64-167b
कुरूणां विग्रहे तस्मिन्समागच्छन्बहून्यथ।
राज्ञां शतसहस्राणि योत्स्यमानानि संयुगे।।
1-64-168a
1-64-168b
तेषामपरिमेयानां नामधेयानि सर्वशः।
न शक्यानि समाख्यातुं वर्षाणामयुतैरपि।
एते तु कीर्तिता मुख्या यैराख्यानमिदं ततम्।।
1-64-169a
1-64-169b
1-64-169c
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि
अंशावतरणपर्वणि चतुःषष्टितमोऽध्यायः।। 64 ।।

सम्पाद्यताम्

1-64-1 रञ्जकत्वाद्राजा। महीपतिः पृथ्वीपालकः।। 1-64-2 वसुः उपरिचरः।। 1-64-4 साक्षात्प्रत्यक्षभूय।। 1-64-5 न संकीर्येत निर्नायकत्वात्।। 1-64-8 पशव्यः पशुभ्यो हितः।। 1-64-11 गाः बलीवर्दान्। वृषभान्कृशान्न धुरि युञ्जते प्रत्युत संधुक्षयन्ति पुष्टान्कुर्वन्ति। अन्ये तु गाः स्त्रीगवीः तासामप्यान्ध्रादिदुर्देशेषु धुरि योजनं दृष्टं तदिह नास्तीत्याहुः।। 1-64-12 न त इति। आत्मज्ञानात्सर्वज्ञो भविष्यसीत्यर्थः।। 1-64-13 उपपत्स्यते उपस्थास्यते।। 1-64-15 वैजयन्तीं विजयहेतुं। अविक्षतमेव धारयिष्यति पालयिष्यति नतु विक्षतम्।। 1-64-16 लक्षणं चिह्नम्।। 1-64-17 इष्टप्रदानं प्रीतिदायमुद्दिश्य यष्टिं ददौ।। 1-64-20 शक्रस्य पूजार्थं तस्या यष्टेः प्रवेशं स्थापनम्।। 1-64-23 पिटकैः मञ्जूषारूपैर्वस्त्रमयैः कोशैः।। 1-64-46 वासवाः वसुपुत्राः।। 1-64-48 पुरोपवाहिनीं पुरसमीपे वहन्तीं।। 1-64-50 नदी राज्ञे न्यवेदयन्मिथुनमित्यनुषज्यते।। 1-64-54 तदहस्तस्मिन् दिने।। 1-64-63 वायुना कामोद्दीपकेन। धूम्रं मलिनं रतिकर्म तदर्थं। मुदं स्त्रीविषयां प्रीतिमनुसृत्य तामेन मनसाऽगात्। तया सह मानसं सुरतमकरोदित्यर्थः। प्रचस्कन्द पपात।। 1-64-64 मिथ्या प्रसवशून्यत्वेनालीकप्रायम्।। 1-64-68 अभिमन्त्र्य पुत्रोत्पत्तिलिङ्गैर्मन्त्रैः स्पृष्ट्वा।। 1-64-70 आर्तवमृतुकालीनं स्नानम्।। 1-64-73 युध्यतोः सतोः।। 1-64-76 मासे दशमे प्राप्ते बबन्धुरिति संबन्धः। उज्जह्नुः उद्धृतवन्तः।। 1-64-77 काये देहे। मत्स्याः मत्स्ययोषायाः।। 1-64-115 नीहारं धूमिकाम्।। 1-64-119 स्थातुं जीवितुं नोत्सहे कन्यात्वदूषणादित्यर्थः।। 1-64-128 द्वीपमेवाऽयनं न्यासस्थानं यस्य द्वीपायनः स्वार्थे तद्धितः द्वीपायन एव द्वैपायन इति नाम निर्वक्ति न्यस्त इति।। 1-64-125 पादापसारिणं युगेयुगे पादशः 1-64-88 तमश्लोकपूर्वार्धात्परं `इति सत्यवती हृष्टा' इत्यादि `भारतस्य प्रकाशिताः' इत्यन्तसार्धश्लोकसप्तकस्थाने इमे कुण्डलिताः श्लोकाः केषुचित्कोशेषूपलभ्यन्ते। 1-64-133 वसुवीर्यात् वस्वंशात्।। 1-64-136 शकुन्तिका मक्षिका।। 1-64-140 कुन्तिभोजस्य कन्यायां कुन्त्याम्।। 1-64-167 स्थूणो नाम्ना।। चतुःषष्ठितमोऽध्यायः।। 64 ।।

आदिपर्व-063 पुटाग्रे अल्लिखितम्। आदिपर्व-065
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