महाभारतम्-01-आदिपर्व-103
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प्रतीपेन गङ्गायाः स्नुषात्वेन परिग्रहः।। १ ।।
शान्तनूत्पत्तिः।। २ ।।
तस्य राज्येऽभिषेकः।। ३ ।।
मृगयार्थं गतस्य शान्त नोर्गङ्गया संवादः।। ४ ।।
वैशंपायन उवाच। | 1-103-1x |
ततः प्रतीपो राजाऽऽसीत्सर्वभूतहितः सदा। निषसाद समा बह्वीर्गङ्गाद्वारगतो जपन्।। | 1-103-1a 1-103-1b |
तस्य रूपगुणोपेता गङ्गा स्त्रीरूपधारिणी। उत्तीर्य सलिलात्तस्माल्लोभनीयतमाकृतिः।। | 1-103-2a 1-103-2b |
अधीयानस्य राजर्षेर्दिव्यरूपा मनस्विनी। दक्षिणं शालसङ्काशमूरुं भेजे शुभानना।। | 1-103-3a 1-103-3b |
प्रतीपस्तु महीपालस्तामुवाच यशस्विनीम्। `वाक्यं वाक्यविदां श्रेष्ठो धर्मनिश्चयतत्त्ववित्।' करोमि किं ते कल्याणि प्रियं यत्तेऽभिकाङ्क्षितम्।। | 1-103-4a 1-103-4b 1-103-4c |
स्त्र्युवाच। | 1-103-5x |
त्वामहं कामये राजन्भजमानां भजस्व माम्। त्यागः कामवतीनां हि स्त्रीणां सद्भिर्विगर्हितः।। | 1-103-5a 1-103-5b |
प्रतीप उवाच। | 1-103-6x |
नाहं परस्त्रियं कामाद्गच्छेदं वरवर्णिनि। न चासवर्णां कल्याणि धर्म्यमेतद्धि मे व्रतम्।। | 1-103-6a 1-103-6b |
`यः स्वदारान्परित्यज्य पारक्यां सेवते स्त्रियम्। निरयान्नैव मुच्यते यावदाभूतसंप्लवम्।।' | 1-103-7a 1-103-7b |
स्त्र्युवाच। | 1-103-8x |
नाश्रेयस्यस्मि नागम्या न वक्तव्या च कर्हिचित्। भजन्तीं भज मां राजन्दिव्यां कन्यां वरस्त्रियम्।। | 1-103-8a 1-103-8b |
प्रतीप उवाच। | 1-103-9x |
त्वया निवृत्तमेतत्तु यन्मां चोदयसि प्रियम्। अन्यथा प्रतिपन्नं मां नाशयेद्धर्मविप्लवः।। | 1-103-9a 1-103-9b |
प्राप्य दक्षिणमूरुं मे त्वमाश्लिष्टा वराङ्गने। अपत्यानां स्नुषाणां च भीरु विद्ध्येतदासनम्।। | 1-103-10a 1-103-10b |
सव्योरुः कामिनीभोग्यस्त्वया स च विवर्जितः। तस्मादहं नाचरिष्ये त्वयि कामं वराङ्गने।। | 1-103-11a 1-103-11b |
स्नुषा मे भव सुश्रोणि पुत्रार्थं त्वां वृणोम्यहम्। स्नुषापक्षं हि वामोरु त्वमागम्य समाश्रिता।। | 1-103-12a 1-103-12b |
स्त्र्युवाच। | 1-103-13x |
एवमप्यस्तु धर्मज्ञ संयुज्येयं सुतेन ते। त्वद्भक्त्या तु भजिष्यामि प्रख्यातं भारतं कुलम्।। | 1-103-13a 1-103-13b |
पृथिव्यां पार्थिवा ये च तेषां यूयं परायणम्। गुणा न हि मया शक्या वक्तुं वर्षशतैरपि।। | 1-103-14a 1-103-14b |
कुलस्य ये वः प्रथितास्तत्साधुत्वमथोत्तमम्। समयेनेह धर्मज्ञ आचरेयं च यद्विभो।। | 1-103-15a 1-103-15b |
तत्सर्वमेव पुत्रस्ते न मीमांसेत कर्हिचित्। एवं वसन्ती पुत्रे ते वर्धयिष्याम्यहं रतिम्।। | 1-103-16a 1-103-16b |
पुत्रैः पुण्यैः प्रियैश्चैव स्वर्गं प्राप्स्यति ते सुतः। | 1-103-17a |
वैशंपायन उवाच। | 1-103-17x |
तथेत्युक्त्वा तु सा राजंस्तत्रैवान्तरधीयत। `अदृश्या राजसिंहस्य पश्यतः साऽभवत्तदा।।' | 1-103-17b 1-103-17c |
पुत्रजन्म प्रतीक्षन्वै स राजा तदधारयत्। एतस्मिन्नेव काले तु प्रतीपः क्षत्रियर्षभः।। | 1-103-18a 1-103-18b |
तपस्तेपे सुतस्यार्थे सभार्यः कुरुनन्दन। `प्रतीपस्य तु भार्यायां गर्भः श्रीमानवर्धत।। | 1-103-19a 1-103-19b |
श्रिया परमया युक्तः शरच्छुक्ले यथा शशी। ततस्तु दशमे मासि प्राजायत रविप्रभम्।। | 1-103-20a 1-103-20b |
कुमारं देवगर्भाभं प्रतीपमहिषी तदा।' तयोः समभवत्पुत्रो वृद्धयोः स महाभिषक्।। | 1-103-21a 1-103-21b |
शान्तस्य जज्ञे सन्तानस्तस्मादासीत्स शान्तनुः। `तस्य जातस्य कृत्यानि प्रतीपोऽकारयत्प्रभुः।। | 1-103-22a 1-103-22b |
जातकर्मादि विप्रेण वेदोक्तैः कर्मभिस्तदा। नामकर्म च विप्रास्तु चक्रुः परमसत्कृतम्।। | 1-103-23a 1-103-23b |
शान्तनोरवनीपाल वेदोक्तैः कर्मभिस्तदा। ततः संवर्धितो राजा शान्तनुर्लोकधार्मिकः।। | 1-103-24a 1-103-24b |
स तु लेभे परां निष्ठां प्राप्य धर्मभृतां वरः। धनुर्वेदे च वेदे च गतिं स परमा गतः।। | 1-103-25a 1-103-25b |
यौवनं चापि संप्राप्तः कुमारो वदतां वरः।' संस्मरंश्चाक्षयाँल्लोकान्विजातान्स्वेन कर्मणा।। | 1-103-26a 1-103-26b |
पुण्यकर्मकृदेवासीच्छान्तनुः कुरुसत्तमः। प्रतीपः शान्तनुं पुत्रं यौवनस्थं ततोऽन्वशात्।। | 1-103-27a 1-103-27b |
पुरा स्त्री मां समभ्यागाच्छान्तनो भूतये तव। त्वामाव्रजेद्यदि रहः सा पुत्र वरवर्णिनी।। | 1-103-28a 1-103-28b |
कामयानाऽभिरूपाढ्या दिव्यस्त्री पुत्रकाम्यया। सा त्वया नानुयोक्तव्या कासि कस्यासि चाङ्गने।। | 1-103-29a 1-103-29b |
यच्च कुर्यान्न तत्कर्म सा प्रष्टव्या त्वयाऽनघ। सन्नियोगाद्भजन्तीं तां भजेथा इत्युवाच तम्।। | 1-103-30a 1-103-30b |
एवं संदिश्य तनयं प्रतीपः शान्तनुं तदा। स्वे च राज्येऽभिषिच्यैनं वनं राजा विवेश ह।। | 1-103-31a 1-103-31b |
स राजा शान्तनुर्धीमान्देवराजसमद्युतिः। `बभूव सर्वलोकस्य सत्यवागिति संमतः।। | 1-103-32a 1-103-32b |
पीनस्कन्धो महाबाहुर्मत्तवारणविक्रमः। अन्वितः परिपूर्णार्थैः सर्वैर्नृपतिलक्षणैः।। | 1-103-33a 1-103-33b |
अमात्यलक्षणोपेतः क्षत्रधर्मविशेषवित्। वशे चक्रे महीमेको विजित्य वसुधाधिपान्।। | 1-103-34a 1-103-34b |
वेदानागमयत्कृत्स्नान्राजधर्मांश्च सर्वशः। ईजे च बहुभिः सत्रैः क्रतुभिर्भूरिदक्षिणैः।। | 1-103-35a 1-103-35b |
तर्पयामास विप्रांश्च वेदाध्ययनकोविदान्। रत्नैरुच्चावचैर्गोभिर्ग्रामैरश्वैर्धनैरपि।। | 1-103-36a 1-103-36b |
वयोरूपेण संपन्नः पौरुषेण बलेन च। ऐश्वर्येण प्रतापेन विक्रमेण धनेन च।। | 1-103-37a 1-103-37b |
वर्तमानश्च सत्येन सर्वधर्मविशारदः। तं महीपं महीपाला राजराजमकुर्वत।। | 1-103-38a 1-103-38b |
वीतशोकभयाबाधाः सुखस्वप्नप्रबोधाः। श्रिया भरतशार्दूल समपद्यन्त भूमिपाः।। | 1-103-39a 1-103-39b |
नियमैः सर्ववर्णानां ब्रह्मोत्तरमवर्तत। ब्राह्मणाभिमुखं क्षत्रं क्षत्रियाभिमुखा विशः।। | 1-103-40a 1-103-40b |
ब्रह्मक्षत्रानुकूलांश्च शूद्राः पर्यचरन्विशः। एवं पशुवराहाणां तथैव मृगपक्षिणाम्।। | 1-103-41a 1-103-41b |
शान्तनावथ राज्यस्थे नावर्तत वृथा वधः। असुखानामनाथानां तिर्यग्योनिषु वर्तताम्।। | 1-103-42a 1-103-42b |
स एव राजा सर्वेषां भूतानामभवत्पिता। स हस्तिनाम्नि धर्मात्मा विहरन्कुरुनन्दनः।। | 1-103-43a 1-103-43b |
तेजसा सूर्यकल्पोऽभूद्वायुना च समो बले। अन्तकप्रतिमः कोपे क्षमया पृथिवीसमः।। | 1-103-44a 1-103-44b |
बभूव राजा सुमतिः प्रजानां सत्यविक्रमः। स वनेषु च रम्येषु शैलप्रस्रवणेषु च।।' | 1-103-45a 1-103-45b |
चचार मृगयाशीलः शान्तनुर्वनगोचरः। स मृगान्महिषांश्चैव विनिघ्नन्राजसत्तमः।। | 1-103-46a 1-103-46b |
गङ्गामनु चचारैकः सिद्धचारणसेविताम्। स कदाचिन्महाराज ददर्श परमां स्त्रियम्।। | 1-103-47a 1-103-47b |
जाज्वल्यमानां वपुषा साक्षाच्छ्रियमिवापराम्। सर्वानवद्यां सुदतीं दिव्याभरणभूषिताम्।। | 1-103-48a 1-103-48b |
सूक्ष्माम्बरधरामेकां पद्मोदरसमप्रभाम्। `स्नातगात्रां धौतवस्त्रां गङ्गातीररुहे वने।। | 1-103-49a 1-103-49b |
प्रकीर्णकेशीं पाणिभ्यां संस्पृशन्तीं शिरोरुहान्। रूपेण वयसा कान्त्या शरीरावयवैस्तथा।। | 1-103-50a 1-103-50b |
हावभावविलासैश्च लोचनाञ्चलविक्रियैः। श्रोणीभारेण मध्येन स्तनाभ्यामुरसा दृशा।। | 1-103-51a 1-103-51b |
कवरीभरेण पादाभ्यामिङ्गितेन स्मितेन च। कोकिलालापसंल्लापैर्न्यक्कुर्वन्तीं त्रिलोकगाम्।। | 1-103-52a 1-103-52b |
वाणीं च गिरिजां लक्ष्मीं योषितोन्याः सुराङ्गनाः। सा च शान्तनुमब्यागादलक्ष्मीमपकर्षती।।' | 1-103-53a 1-103-53b |
तां दृष्ट्वा हृष्टरोमाऽभूद्विस्मितो रूपसंपदा। पिबन्निव च नेत्राभ्यां नातृप्यत नराधिपः।। | 1-103-54a 1-103-54b |
सा च दृष्ट्वैव राजानं विचरन्तं महाद्युतिम्। स्नेहादागतसौहार्दा नातृप्यत विलासिनी।। | 1-103-55a 1-103-55b |
`गङ्गा कामेन राजानं प्रेक्षमाणा विलासिनी। चञ्चूर्यताग्रतस्तस्य किन्नरीवाप्सरोपमा।। | 1-103-56a 1-103-56b |
दृष्ट्वा प्रहृष्टरूपोऽभूद्दर्शनादेव शान्तनुः। रूपेणातीत्य तिष्ठन्तीं सर्वा राजन्ययोषितः।।' | 1-103-57a 1-103-57b |
तामुवाच ततो राजा सान्त्वयञ्श्लक्ष्णया गिरा। देवी वा दानवी वा त्वं गन्धर्वी चाथवाऽप्सराः।। | 1-103-58a 1-103-58b |
यक्षी वा पन्नगी वाऽपि मानुषी वा सुमध्यमे। `याऽसि काऽसि सुरप्रख्ये महिषी मे भवानघे।। | 1-103-59a 1-103-59b |
त्वां गता हि मम प्रामा वसु यन्मेऽस्ति किंचन।' याचे त्वां सुरगर्भाभे भार्या मे भव शोभने।। | 1-103-60a 1-103-60b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि संभवपर्वणि त्र्यधिकशततमोऽध्यायः।। 103 ।। |
1-103-1 तत इति।। 1-103-8 दिव्यां दिवि भवाम्।। 1-103-9 निवृत्तं निरस्तम्।। 1-103-10 आश्लिष्टा संगता।। 1-103-15 समयेन नियमेन।। 1-103-16 न मीमांसेत न विचारयेत्।। 1-103-22 शान्तस्योपरतस्य वंशस्य संतानो विस्तार इति शान्ततनुः। तकारलोपेन शान्तनुरिति नाम।। 1-103-26 संस्मरन्निति व्यवहितमपि ज्ञानबलेन जानातीत्यर्थः।। 1-103-29 नानुयोक्तव्या न प्रष्टव्या।। त्र्यधिकशततमोऽध्यायः।। 103 ।।
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