महाभारतम्-01-आदिपर्व-218
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पाण्डवा हन्तव्या एवेति कर्णस्योक्तिः।। 1 ।।
पाञ्चालनगरंप्रति युद्धार्थं दुर्योधनादीनां गमनम्।। 2 ।।
तैः सह योद्धुं सपाण्डवस्य द्रुपदस्यागमनम्।। 3 ।।
कर्णजयद्रथाभ्यां सुमित्रप्रियदर्शनयोर्वधः।। 4 ।।
अर्जुनेन कर्णजयद्रथपुत्रयोर्वधः।। 5 ।।
कर्णदुर्योधनादीनां पराजयः।। 6 ।।
पराजितानां तेषां हास्तिनपुरगमनम्।। 7 ।।
कृष्णबलरामयोः पाञ्चालपुरे वासः।। 8 ।।
वैशंपायन उवाच। | 1-218-1x |
सौमदत्तेर्वचः श्रुत्वा कर्णो वैकर्तनो वृषा। उवाच वचनं काले कालज्ञः सर्वकर्मणाम्।। | 1-218-1a 1-218-1b |
नीतिपूर्वमिदं सर्वमुक्तं वचनमर्थवत्। वचनं नाभ्यसूयामि श्रूयतां यद्वचस्त्विति।। | 1-218-2a 1-218-2b |
द्वैधीभावो न गन्तव्यः सर्वकर्मसु मानवैः। द्विधाभूतेन मनसा अन्यत्कर्म न सिध्यति।। | 1-218-3a 1-218-3b |
संप्रयाणासनाभ्यां तु कर्शनेन तथैव च। नैतच्छक्यं पुरं हर्तुमाक्रन्दश्चाप्यशोभनः।। | 1-218-4a 1-218-4b |
अवमर्दनकालोऽत्र मतश्चिन्तयतो मम। यावन्नो वृष्णयः पार्ष्णिं न गृह्णन्तिरणप्रियाः।। | 1-218-5a 1-218-5b |
भवन्तश्च तथा हृष्टाः स्वबाहुबलशालिनः। प्राकारमवमृद्रन्तु परिघाः पूरयन्त्वपि।। | 1-218-6a 1-218-6b |
प्रस्रावयन्तु सलिलं क्रियतां विषमं समम्। तृणकाष्ठेन महता खातमस्य प्रपूर्यताम्।। | 1-218-7a 1-218-7b |
घुष्यतां राजमार्गेषु परेषां यो हनिष्यति। नागमश्वं पदातिं वा दानमानं स लप्स्यति।। | 1-218-8a 1-218-8b |
नागे दशसहस्राणि पञ्च चाश्वपदातिषु। रथे वै द्विगुणं नागाद्वसु दास्यन्ति पार्थिवाः।। | 1-218-9a 1-218-9b |
यश्च कामसुखे सक्तो बालश्च स्थविरश्च यः। अयुद्धमनसो ये च ते तु तिष्ठन्तु भीरवः।। | 1-218-10a 1-218-10b |
प्रदरश्च न दातव्यो न गन्तव्यमचोदितैः। यशो रक्षत भद्रं वो जेष्यामो वै रिपून्वयम्।। | 1-218-11a 1-218-11b |
अनुलोमाश्च नो वाताः सततं मृगपक्षिणः। अग्नयश्च विराजन्ते शस्त्राणि कवचानि च।। | 1-218-12a 1-218-12b |
वैशंपायन उवाच। | 1-218-13x |
ततः कर्णवचः श्रुत्वा धार्तराष्ट्रप्रियैषिणः। निर्ययुः पृथिवीपालाश्चालयन्तः परान्रणे।। | 1-218-13a 1-218-13b |
न हि तेषां मनःसक्तिरिन्द्रियार्थेषु सर्वशः। यथा परिरपुघ्नानां प्रसभं युद्ध एव च।। | 1-218-14a 1-218-14b |
वैकर्तनपुरोव्रातः सैन्धवोर्मिमहास्वनः। दुःशासनमहामत्स्यो दुर्योधनमहाग्रहः।। | 1-218-15a 1-218-15b |
स राजसागरो भीमो भीमघोषप्रदर्शनः। अभिदुद्राव वेगेन पुरं तदपसव्यतः।। | 1-218-16a 1-218-16b |
तदनीकमनाधृष्यं शस्त्राग्निव्यालदीपितम्। समुत्कम्पितमाज्ञाय चुक्रुशुर्द्रुपदात्मजाः।। | 1-218-17a 1-218-17b |
ते मेघसमनिर्घोषैर्बलिनः स्यन्दनोत्तमैः। निर्ययुर्नगरद्वारात्त्रासयन्तः परान्र | 1-218-18a 1-218-18b |
धृष्टद्युम्नः शिखण्डी च सुमित्रः प्रियदर्शनः। चित्रकेतुः सुकेतुश्च ध्वजकेतुश्च वीर्यवान्।। | 1-218-19a 1-218-19b |
पुत्रा द्रुपदराजस्य बलवन्तो जयैषिणः। द्रुपदस्य महावीर्यः पाण्डरोष्णीषकेतनः।। | 1-218-20a 1-218-20b |
पाण्डरव्यजनच्छत्रः पाण्डरध्वजवाहनः। स पुत्रगणमध्यस्थः शुशुभे राजसत्तमः।। | 1-218-21a 1-218-21b |
चन्द्रमा ज्योतिषां मध्ये पौर्णमास्यामिवोदितः। अथोद्धूतपताकाग्रमजिह्मगतिमव्ययम्।। | 1-218-22a 1-218-22b |
द्रुपदानीकमायान्तं कुरुसैन्यमभिद्रवत्। तयोरुभयतो जज्ञे तेषां तु तुमुलः स्वनः।। | 1-218-23a 1-218-23b |
बलयोः संप्रसरतोः सरितां स्रोतसोरिव। प्रकीर्णरथनागाश्वैस्तान्यनीकानि सर्वशः।। | 1-218-24a 1-218-24b |
ज्योतींषईव प्रकीर्णानि सर्वतः प्रचकाशिरे। उत्कृष्टभेरीनिनदे संप्रवृत्ते महारवे।। | 1-218-25a 1-218-25b |
अमर्षिता महात्मानः पाण्डवा निर्ययुस्ततः। रथांश्च मेघनिर्घोषान्युक्तान्परमवाजिभिः।। | 1-218-26a 1-218-26b |
धून्वन्तो ध्वजिनः शुभ्रानास्थाय भरतर्षभाः। ततः पाण्डुसुतान्दृष्ट्वा रथस्थानात्तकार्मुकान्।। | 1-218-27a 1-218-27b |
नृपाणामभवत्कम्पो वेपथुर्हृदयेषु च। निर्यातेष्वथ पार्थेषु द्रोपदं तद्बलं रणे।। | 1-218-28a 1-218-28b |
आविशत्परमो हर्षः प्रमोदश्च जयं प्रति। सुमुहूर्तं व्यतिकरः सैन्यानामभवद्भृशम्।। | 1-218-29a 1-218-29b |
ततो द्वन्द्वमयुध्यन्त मृत्युं कृत्वा पुरस्कृतम्। जघ्नतुः समरे तस्मिन्सुमित्रप्रियदर्शनौ।। | 1-218-30a 1-218-30b |
जयद्रथश्च कर्णश्च पश्यतः सव्यसाचिनः। अर्जुनः प्रेक्ष्य निहतौ सौमित्रप्रियदर्शनौ।। | 1-218-31a 1-218-31b |
जयद्रथसुतं तत्र जघान पितुरन्तिके। वृषसेनादवरजं सुदामानं धनंजयः।। | 1-218-32a 1-218-32b |
कर्णपुत्रं महेष्वासं रथनीडादपातयत्। तौ सुतौ निहतौ दृष्ट्वा राजसिंहौ तरस्विनौ।। | 1-218-33a 1-218-33b |
नामृष्येतां महाबाहू प्रहारमिव सद्गजौ। तौ जग्मतुरसंभ्रान्तौ फल्गुनस्य रथंप्रति।। | 1-218-34a 1-218-34b |
प्रतिमुक्ततलत्राणौ शपमानौ परस्परम्। सन्निपातस्तयोरासीदतिघोरो महामृधे।। | 1-218-35a 1-218-35b |
वृत्रशम्बरयोः सङ्क्ये वज्रिणेव महारणे। त्रीनश्वाञ्जघ्नतुस्तस्य फल्गुनस्य नर्षभौ।। | 1-218-36a 1-218-36b |
ततः किलिकिलाशब्दः कुरूणामभवत्तदा। तान्हयान्निहतान्दृष्ट्वा भीमसेनः प्रतापवान्।। | 1-218-37a 1-218-37b |
निमेषान्तरमात्रेण रथमश्वैरयोजयत्। उपयातं रथं दृष्ट्वा दुर्योधनपुरःसरौ।। | 1-218-38a 1-218-38b |
सौबलः सौमदत्तिश्च समेयातां परन्तपौ। तैः पञ्चभिरदीनात्मा भीमसेनो महाबलः।। | 1-218-39a 1-218-39b |
अयुध्यत तदा वीरैरिन्द्रियार्थैरिवेश्वरः। तैर्निरुद्धो न संत्रासं जगाम समितिंजयः।। | 1-218-40a 1-218-40b |
पञ्चभिर्द्विरदैर्मत्तैर्निरुद्ध इव केसरी। तस्यैते युगपत्पञ्च पञ्चभिर्निशितैः शरैः।। | 1-218-41a 1-218-41b |
सारथिं वाजिनश्चैव निन्युर्वैवस्वतक्षयम्। हताश्वात्स्यन्दनश्रेष्ठादवरुह्य महारथः।। | 1-218-42a 1-218-42b |
चचार विविधान्मार्गानसिमुद्यम्य पाण्डवः। अश्वस्कन्धेषु चक्रेषु युगेष्वीषासु चैव हि।। | 1-218-43a 1-218-43b |
व्यचरत्पातयञ्शत्रून्सुपर्ण इव भोगिनः। विधनुष्कं विकवचं विरथं च समीक्ष्य तम्।। | 1-218-44a 1-218-44b |
अभिपेतुर्नव्याघ्रा अर्जुनप्रमुखा रथाः। धृष्टद्युम्नः शिखण्डी च यमौ च युधि दुर्जयौ।। | 1-218-45a 1-218-45b |
तस्मिन्महारथे युद्धे प्रवृत्ते शरवृष्टिभिः। रथध्वजपताकाश्च सवर्मन्तरधीयत।। | 1-218-46a 1-218-46b |
तत्प्रवृत्तं चिरं कालं युद्धं सममिवाभवत्। रथेन तान्महाबाहुरर्जुनो व्यधमत्पुनः।। | 1-218-47a 1-218-47b |
तमापतन्तं दृष्ट्वेव महाबाहुर्धनुर्धरः। कर्णोऽस्त्रविदुषां श्रेष्ठो वारयामास सायकैः।। | 1-218-48a 1-218-48b |
स तेनाभिहतः पार्थो वासविर्वज्रसन्निभान्। त्रीञ्शरान्संदधे क्रुद्धो वधात्क्रुद्धस्य पाण्डवः।। | 1-218-49a 1-218-49b |
तैः शरैराहतं कर्णं ध्वजयष्टिमुपाश्रितम्। अपोवाह रथाच्चाशु सूतः परपुरंजयम्।। | 1-218-50a 1-218-50b |
ततः पराजिते कर्णे धार्तराष्ट्रान्महाभयम्। विवेश समुदग्रांश्च पाण्डवान्प्रसमीक्ष्य तु।। | 1-218-51a 1-218-51b |
तत्प्रकम्पितमत्यर्थं तद्दृष्ट्वा सौबलो बलम्। गिरा मधुरया चापि समाश्वासयतासकृत्।। | 1-218-52a 1-218-52b |
धार्तराष्ट्रैस्ततः सर्वैर्दुर्योधनपुरःसरैः। धृतं तत्पुनरेवासीद्बलं पार्थप्रपीडितम्।। | 1-218-53a 1-218-53b |
ततो दुर्योधनं दृष्ट्वा भीमो भीमपराक्रमः। अक्रुध्यत्स महाबाहुरगारं जातुषं स्मरन्।। | 1-218-54a 1-218-54b |
ततः संग्रामशिरसि ददर्श विपुलद्रुमम्। आयामभूतं तिष्ठन्तं स्कन्धपञ्चाशदुन्नतम्।। | 1-218-55a 1-218-55b |
महास्कन्धं महोत्सेधं शक्रध्वजमिवोच्छ्रितम्। तमुत्पाठ्य च पाणिभ्यामुद्यम्य चरणावपि।। | 1-218-56a 1-218-56b |
अभिपेदे परान्सङ्ख्ये वज्रपाणिरिवासुरान्। भीमसेनभयार्तानि फल्गुनाभिहतानि च।। | 1-218-57a 1-218-57b |
न शेकुस्तान्यनीकानि धार्तराष्ट्राण्युदीक्षितुम्। तानि संभ्रान्तयोधानि श्रान्तवाजिगजानि च।। | 1-218-58a 1-218-58b |
दिशः प्राकालयद्भीमो दिवीवाभ्राणि मारुतः। तान्निवृत्तान्निरानन्दान्नरवारणवाजिनः।। | 1-218-59a 1-218-59b |
नानुसस्रुर्न चाजघ्नुर्नोचुः किंचिच्च दारुणम्। स्वमेव शिबिरं जग्मुः क्षत्रियाः शरविक्षताः।। | 1-218-60a 1-218-60b |
परेऽप्यभिययुर्हृष्टाः पुरं पौरसुखावहाः। मुहूर्तमभवद्युद्धं तेषां वै पाण्डवैः सह।। | 1-218-61a 1-218-61b |
यावत्तद्युद्धमभवन्महद्देवासुरोपमम्। तावदेवाभवच्छान्तं निवृत्ता वै महारथाः।। | 1-218-62a 1-218-62b |
सुव्रतं चक्रिरे सर्वे सुवृतामब्रुवन्वधूम्। कृतार्थं द्रुपदं चोचुर्धृष्टद्युम्नं च पार्षतम्।। | 1-218-63a 1-218-63b |
शकुनिः सिन्धुराजश्च कर्णदुर्योधनावपि। तेषां तदाभवद्दुःखं हृदि वाचा तु नाब्रुवन्।। | 1-218-64a 1-218-64b |
ततः प्रयाता राजानः सर्व एव यथागतम्। धार्तराष्ट्रा हि ते सर्वे गता नागपुरं तदा।। | 1-218-65a 1-218-65b |
प्रागेव पूर्निरोधात्तु पाण्डवैरश्वसादिनः। प्रेषिता गच्छतारिष्टानस्मानाख्यात शौरये।। | 1-218-66a 1-218-66b |
तेऽचिरेणैव कालेन संप्राप्ता यादवीं पुरीम्। ऊचुः संकर्षणोपेन्द्रौ वचनं वचनक्षमौ।। | 1-218-67a 1-218-67b |
कुशलं पाण्डवाः सर्वानाहुः स्मान्धकवृष्णयः। आत्मनश्चाहतानाहुर्विमुक्ताञ्जातुषाद्गृहात्।। | 1-218-68a 1-218-68b |
समाजे द्रौपदीं लब्धामाहू राजीवलोचनाम्। आत्मनः सदृशीं सर्वैः शीलवृत्तसमाधिभिः।। | 1-218-69a 1-218-69b |
तच्छ्रुत्वा वचनं कृष्णस्तानुवाचोत्तरं वचः। सर्वमेतदहं जाने वधात्तस्य तु रक्षसः।। | 1-218-70a 1-218-70b |
तत उद्योजयामास माधवश्चतुरङ्गिणीम्। सेनामुपानयत्तूर्णं पाञ्चालनगरीं प्रति।। | 1-218-71a 1-218-71b |
ततः संकर्षणश्चैव केशवश्च महाबलः। यादवैः सह सर्वैश्च पाण्डवानभिजग्मतुः।। | 1-218-72a 1-218-72b |
पितृष्वसारं संपूज्य नत्वा चैव तु यादवीम्। द्रौपदीं भूषणैः शुभ्रैर्भूषयित्वा यथाविधि।। | 1-218-73a 1-218-73b |
पाण्डवान्हर्षयित्वा तु पूजयामासतुश्च तान्। न्यायतः पूजितौ राज्ञा द्रुपदेन महात्मना।। | 1-218-74a 1-218-74b |
यादवाः पूजिताः सर्वे पाण्डवैश्च महात्मभिः। रेमिरे पाण्डवैः सार्धं ते पाञ्चालपुरे तदा।। | 1-218-75a 1-218-75b |
।। इति श्रीमन्माहाभारते आदिपर्वणि विदुरागमनराज्यलाभपर्वणि अष्टादशाधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 218 ।। |
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