महाभारतम्-01-आदिपर्व-210
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द्रुपदप्रश्नानन्तरं युधिष्ठिरेण स्वेषां पाण्डवत्वकथनम्।। 1 ।।
द्रौपद्याः पञ्चपत्नीत्वे द्रुपदस्य विवादः।। 2 ।।
व्यासागमनम्।। 3 ।।
वैशंपायन उवाच। | 1-210-1x |
तत आहूय पाञ्चाल्यो राजपुत्रं युधिष्ठिरम्। परिग्रहेण ब्राह्मेण परिगृह्य महाद्युतिः।। | 1-210-1a 1-210-1b |
पर्यपृच्छददीनात्मा कुन्तीपुत्रं सुवर्चसम्। कथं जानीम भवतः क्षत्रियान्ब्राह्मणानुत।। | 1-210-2a 1-210-2b |
वैश्यान्वा गुणसंपन्नानथ वा शूद्रयोनिजान्। मायामास्थाय वा सिद्धांश्चरतः सर्वतोदिशम्।। | 1-210-3a 1-210-3b |
कृष्णाहेतोरनुप्राप्ता देवाः संदर्शनार्थिनः। ब्रवीतु नो भवान्सत्यं सन्देहो ह्यत्र नो महान्।। | 1-210-4a 1-210-4b |
अपि नः संशयस्यान्ते मनः संतुष्टिमावहेत्। अपि नो भागधेयानि शुभानि स्युः परन्तप।। | 1-210-5a 1-210-5b |
इच्छया ब्रूहि तत्सत्यं सत्यं राजसु शोभते। इष्टापूर्तेन च तथा वक्तव्यमनृतं न तु।। | 1-210-6a 1-210-6b |
श्रुत्वा ह्यमरसङ्काश तव वाक्यमरिंदम। ध्रुवं विवाहकरणमास्थास्यामि विधानतः।। | 1-210-7a 1-210-7b |
युधिष्ठिर उवाच। | 1-210-8x |
मा राजन्विमना भूस्त्वं पाञ्चाल्य प्रीतिरस्तु ते। ईप्सितस्ते ध्रुवः कामः संवृत्तोऽयमसंशयम्।। | 1-210-8a 1-210-8b |
वयं हि क्षत्रिया राजन्पाण्डोः पुत्रा महात्मनः। ज्येष्ठं मां विद्धि कौन्तेयं भीमसेनार्जुनाविमौ।। | 1-210-9a 1-210-9b |
आभ्यां तव सुता राजन्निर्जिता राजसंसदि। यमौ च तत्र कुन्ती च यत्र कृष्मा व्यवस्थिता।। | 1-210-10a 1-210-10b |
व्येतु ते मानसं दुःखं क्षत्रियाः स्मो नरर्षभ। पद्मिनीव सुतेयं ते ह्रदादन्यह्रदं गता।। | 1-210-11a 1-210-11b |
इति तथ्यं महाराज सर्वमेतद्ब्रवीमि ते। भवान्हि गुरुरस्माकं परमं च परायणम्।। | 1-210-12a 1-210-12b |
वैशंपायन उवाच। | 1-210-13x |
ततः स द्रुपदो राजा हर्षव्याकुललोचनः। प्रतिवक्तुं मुदा युक्तो नाशकत्तं युधिष्टिरम्।। | 1-210-13a 1-210-13b |
यत्नेन तु स तं हर्षं सन्निगृह्य परंतपः। अनुरूपं तदा वाचा प्रत्युवाच युधिष्ठिरम्।। | 1-210-14a 1-210-14b |
पप्रच्छ चैनं धर्मात्मा यथा ते प्रद्रुताः पुरात्। स तस्मै सर्वमाचख्यावानुपूर्व्येण पाण्डवः।। | 1-210-15a 1-210-15b |
तच्छ्रुत्वा द्रुपदो राजा कुन्तीपुत्रस्य भाषितम्। विगर्हयामास तदा धृतराष्ट्रं नरेश्वरम्।। | 1-210-16a 1-210-16b |
आश्वासयामास च तं कुन्तीपुत्रं युधिष्ठिरम्। प्रतिजज्ञे च राज्याय द्रुपदो वदतां वरः।। | 1-210-17a 1-210-17b |
ततः कुन्ती च कृष्णा च भीमसेनार्जुनावपि। यमौ च राज्ञा संदिष्टं विविशुर्भवनं महत्।। | 1-210-18a 1-210-18b |
तत्र ते न्यवसन्राजन्यज्ञसेनेन पूजिताः। प्रत्याश्वस्तस्ततो राजा सह पुत्रैरुवाच तम्।। | 1-210-19a 1-210-19b |
गृह्णातु विधिवत्पाणिमद्यायं कुरुनन्दनः। पुण्येऽहनि महाबाहुरर्जुनः कुरुतां क्षणम्।। | 1-210-20a 1-210-20b |
वैशंपायन उवाच। | 1-210-21x |
तमब्रवीत्ततो राजा धर्मात्मा च युधिष्ठिरः। `ममापि दारसंबन्धः कार्यस्तावद्विशांपते।। | 1-210-21a 1-210-21b |
तस्मात्पूर्वं मया कार्यं तद्भवाननुमन्यताम्।' | 1-210-22a |
द्रुपद उवाच। | 1-210-22x |
भवान्वा विधिवत्पाणिं गृह्णातु दुहितुर्मम। यस्य वा मन्यसे वीर तस्य कृष्णामुपादिश।। | 1-210-22b 1-210-22c |
युधिष्ठिर उवाच। | 1-210-23x |
सर्वेषां महिषी राजन्द्रौपदी नो भविष्यति। एवं प्रव्याहृतं पूर्वं मम मात्रा विशांपते।। | 1-210-23a 1-210-23b |
अहं चाप्यनिविष्टो वै भीमसेनश्च पाण्डवः। पार्थेन विजिता चैषा रत्नभूता सुता तव।। | 1-210-24a 1-210-24b |
एष नः समयो राजँल्लब्धस्य सह भोजनम्। न च तं हातुमिच्छामः समयं राजसत्तम।। | 1-210-25a 1-210-25b |
`अक्रमेण निवेशे च धर्मलोपो महान्भवेत्।' सर्वेषां धर्मतः कृष्णा महिषी नो भविष्यति। आनुपूर्व्येण सर्वेषां गृह्णातु ज्वलने करान्।। | 1-210-26a 1-210-26b 1-210-26c |
द्रुपद उवाच। | 1-210-27x |
एकस्य बह्व्यो विहिता महिष्यः कुरुनन्दन। नैकस्या बहवः पुंसः श्रूयन्ते पतयः क्वचित्।। | 1-210-27a 1-210-27b |
`सोऽयं न लोके वेदे वा जातु धर्मः प्रशस्ते।' लोकवेदविरुद्धं त्वं नाधर्मं धर्मविच्छुचिः। कर्तुमर्हसि कौन्तेय कस्मात्ते बुद्धिरीदृशी।। | 1-210-28a 1-210-28b 1-210-28c |
युधिष्ठिर उवाच। | 1-210-29x |
सूक्ष्मो धर्मो महाराज नास्य विद्मो वयं गतिम्। पूर्वेषामानुपूर्व्येण यातं वर्त्माऽनुयामहे।। | 1-210-29a 1-210-29b |
न मे वागनृतं प्राह नाधर्मे धीयते मतिः। एवं चैव वदत्यम्बा मम चैतन्मनोगतम्।। | 1-210-30a 1-210-30b |
`आश्रमे रुद्रनिर्दिष्टाद्व्यासादेतन्मया श्रुतम्।' एष धर्मो ध्रुवो राजंश्चरैनमविचारयन्। मा च शङ्का तत्र ते स्यात्कथंचिदपि पार्थिव।। | 1-210-31a 1-210-31b 1-210-31c |
द्रुपद उवाच। | 1-210-32x |
त्वं च कुन्ती च कौन्तय धृष्टद्युम्नश्च मे सुतः। कथयन्त्विति कर्तव्यं श्वः काल्ये करवामहे।। | 1-210-32a 1-210-32b |
वैशंपायन उवाच। | 1-210-33x |
ते समेत्य ततः सर्वे कथयन्ति स्म भारत। अथ द्वैपायनो राजन्नभ्यागच्छद्यदृच्छया।। | 1-210-33a 1-210-33b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि वैवाहिकपर्वणि दशाधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 210 ।। |
1-210-1 ब्राह्मेण ब्राह्मणार्थणुचितेनाभ्युत्थानादिना परिग्रहेण आतिथ्येन।। 1-210-6 इष्टापूर्तेन हेतुना। अनृतं न वक्तव्यमिति। अनृतभाषणे इष्टापूर्ते नश्येतामित्यर्थः।। 1-210-20 क्षणं देवपूजाद्युत्सवम्।। 1-210-24 अनिविष्टः अकृतविवाहः।। 1-210-25 समयो नियमः।। 1-210-26 ज्वलने ज्वलनसमीपे।। 1-210-27 पुंसः पुमां सः।। 1-210-29 यूयं च वयं च वयं। पूर्वेषां प्रचेतःप्रभृतीनाम्। तैर्यातं वर्त्म बहूनामेकपत्नीत्वमनुयामहे। तच्च आनुपूर्व्येणैव न त्वक्रमेण।। दशाधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 210 ।।
आदिपर्व-209 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आदिपर्व-211 |