महाभारतम्-01-आदिपर्व-056
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जनमेजय उवाच। | 1-56-1x |
बालोऽप्ययं स्थविर इवावभाषते नायं बालः स्थविरोऽयं मतो मे। इच्छाम्यहं वरमस्मै प्रदातुं तन्मे विप्राः संविदध्वं यथावत्।। | 1-56-1a 1-56-1b 1-56-1c 1-56-1d |
सदस्या ऊचुः। | 1-56-2x |
यथा च नस्तक्षक एति शीघ्रम्।। | 1-56-2f |
सौतिरुवाच। | 1-56-3x |
व्याहर्तुकामे वरदे नृपे द्विजं वरं वृणीष्वेति ततोऽब्युवाच। होता वाक्यं नातिहृष्टान्तरात्मा कर्मण्यस्मिंस्तक्षको नैति तावत्।। | 1-56-3a 1-56-3b 1-56-3c 1-56-3d |
जनमेजय उवाच। | 1-56-4x |
यथा चेदं कर्म समाप्यते मे यथा च वै तक्षक एति शीघ्रम्। तथा भवन्तः प्रयतन्तु सर्वे परं शक्त्या स हि मे विद्विषाणः।। | 1-56-4a 1-56-4b 1-56-4c 1-56-4d |
ऋत्विज ऊचुः। | 1-56-5x |
यथा शस्त्राणि नः प्राहुर्यथा शंसति पावकः। इन्द्रस्य भवने राजंस्तक्षको भयपीडितः।। | 1-56-5a 1-56-5b |
यथा सूतो लोहिताक्षो महात्मा पौराणिको वेदितवान्पुरस्तात्। स राजानं प्राह पृष्टस्तदानीं यथाहुर्विप्रास्तद्वदेतन्नृदेव।। | 1-56-6a 1-56-6b 1-56-6c 1-56-6d |
पुराणमागम्य ततो ब्रवीम्यहं दत्तं तस्मै वरमिन्द्रेण राजन्। वसेह त्वं मत्सकाशे सुगुप्तो न पावकस्त्वां प्रदहिष्यतीति।। | 1-56-7a 1-56-7b 1-56-7c 1-56-7d |
तदा जगामाहिदत्ताभयः प्रभुः।।' | 1-56-9d |
भविष्यतीत्येव विचिन्तयानः।।' | 1-56-10f |
तस्योत्तरीये निहितः स नागो भयोद्विग्नः शर्म नैवाभ्यगच्छत्। ततो राजा मन्त्रविदोऽब्रवीत्पुनः क्रुद्धो वाक्यं तक्षकस्यान्तमिच्छन्।। | 1-56-11a 1-56-11b 1-56-11c 1-56-11d |
जनमेजय उवाच। | 1-56-12x |
इन्द्रस्य भवने विप्रा यदि नागः स तक्षकः। तमिन्द्रेणैव सहितं पातयध्यं विभावसौ।। | 1-56-12a 1-56-12b |
सौतिरुवाच। | 1-56-13x |
जनमेजयेन राज्ञा तु नोदितस्तक्षकं प्रति। होता जुहाव तत्रस्थं तक्षकं पन्नगं तथा।। | 1-56-13a 1-56-13b |
हूयमाने तथा चैव तक्षकः सपुरन्दरः। आकाशे ददृशे तत्र क्षणेन व्यथितस्तदा।। | 1-56-14a 1-56-14b |
पुरन्दरस्तु तं यज्ञं दृष्ट्वोरुभयमाविशत्। हित्वा तु तक्षकं त्रस्तः स्वमेव भवनं ययौ।। | 1-56-15a 1-56-15b |
इन्द्रे गते तु राजेन्द्र तक्षको भयमोहितः। मन्त्रशक्त्या पावकार्चिस्समीपमवशो गतः। `तं दृष्ट्वा ऋत्विजस्तत्र वचनं चेदमब्रुवन्'।। | 1-56-16a 1-56-16b 1-56-16c |
ऋत्विज ऊचुः। | 1-56-17x |
अयमायाति तूर्णं स तक्षकस्ते वशं नृप। श्रूयतेऽस्य महान्नादो नदतो भैरवं रवम्।। | 1-56-17a 1-56-17b |
नूनं मुक्तो वज्रभृता स नागो भ्रष्टो नाकान्मन्त्रवित्रस्तकायः। घूर्णन्नाकाशे नष्टसंज्ञोऽभ्युपैति तीव्रान्निश्वासान्निश्वसन्पन्नगेन्द्रः।। | 1-56-18a 1-56-18b 1-56-18c 1-56-18d |
वर्तते तव राजेन्द्र कर्मैतद्विधिवत्प्रभो। अस्मै तु द्विजमुख्याय वरं त्वं दातुमर्हसि।। | 1-56-19a 1-56-19b |
जनमेजय उवाच। | 1-56-20x |
बालाभिरूपस्य तवाप्रमेय वरं प्रयच्छामि यथानुरूपम्। वृणीष्व यत्तेऽभिमतं हृदि स्थितं तत्ते प्रदास्याम्यपि चेददेयम्।। | 1-56-20a 1-56-20b 1-56-20c 1-56-20d |
सौतिरुवाच। | 1-56-21x |
पतिष्यमाणे नागेन्द्रे तक्षके जातवेदसि। इदमन्तरमित्येवं तदास्तीकोऽभ्यचोदयत्।। | 1-56-21a 1-56-21b |
आस्तीक उवाच। | 1-56-22x |
वरं ददासि चेन्मह्यं वृणोमि जनमेजय। सत्रं ते विरमत्वेतन्न पतेयुरिहोरगाः।। | 1-56-22a 1-56-22b |
एवमुक्तस्तदा तेन ब्रह्मन्पारिक्षितस्तु सः। नातिहृष्टमनाश्चेदमास्तीकं वाक्यमब्रवीत्।। | 1-56-23a 1-56-23b |
सुवर्णं रजतं गाश्च यच्चान्यन्मन्यसे विभो। तत्ते दद्यां वरं विप्र न निवर्तेत्क्रतुर्मम।। | 1-56-24a 1-56-24b |
आस्तीक उवाच। | 1-56-25x |
सुवर्णं रजतं गाश्च न त्वां राजन्वृणोम्यहम्। सत्रं ते विरमत्वेतत्स्वस्ति मातृकुलस्य नः।। | 1-56-25a 1-56-25b |
सौतिरुवाच। | 1-56-26x |
आस्तीकेनैवमुक्तस्तु राजा पारिक्षितस्तदा। पुनःपुनरुवाचेदमास्तीकं वदतां वरः।। | 1-56-26a 1-56-26b |
अन्यं वरय भद्रं ते वरं द्विज्वरोत्तम। अयाचत न चाप्यन्यं वरं स भृगुनन्दन।। | 1-56-27a 1-56-27b |
ततो वेदविदस्तात सदस्याः सर्व एव तम्। राजानमूचुः सहिता लभतां ब्राह्मणो वरम्।। | 1-56-28a 1-56-28b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि षट्पञ्चाशत्तमोऽध्यायः।। 56 ।। |
1-56-1 संविदध्वमैकमत्यं कुरुध्वम्। संवदध्वमित्यपि पाठः।। 1-56-4 विद्विषाणः विद्वेषं कृतवान्। लिटः कान्च। अभ्यासलोप आर्षः।। 1-56-5 शस्त्राणि शंसनमन्त्रदेवताः।। 1-56-7 पुराणं पूर्वकल्पीयवृत्तान्तम्। आगम्य ज्ञात्वा।। 1-56-15 भयं आविशत् प्राप्तवान्।। 1-56-20 हे बाल।। षट्पञ्चाशत्तमोऽध्यायः।। 56 ।।
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