महाभारतम्-01-आदिपर्व-061
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वैशंपायनेन जनमेजयाय संक्षिप्य भारतकथाकथनम्।। 1 ।।
वैशंपायन उवाच। | 1-61-1x |
`शृणु राजन्यथा वीरा भ्रातरः पञ्च पाण्डवाः। विरोधमन्वगच्छन्त धार्तराष्ट्रैर्दुरात्मभिः।।' | 1-61-1a 1-61-1b |
गुरवे प्राङ्नमस्कृत्य मनोबुद्धिसमाधिभिः। संपूज्य च द्विजान्सर्वांस्तथान्यान्विदुषो जनान्।। | 1-61-2a 1-61-2b |
महर्षेर्विश्रुतस्येह सर्वलोकेषु धीमतः। प्रवक्ष्यामि मतं कृत्स्नं व्यासस्यामिततेजसः।। | 1-61-3a 1-61-3b |
श्रोतुं पात्रं च राजंस्त्वं प्राप्येमां भारतीं कथाम्। गुरोर्वक्त्रपरिस्पन्दो मनः प्रोत्साहतीव मे।। | 1-61-4a 1-61-4b |
शृणु राजन्यथा भेदः कुरुपाण्डवयोरभूत्। राज्यार्थे द्यूतसंभूतो वनवासस्तथैव च।। | 1-61-5a 1-61-5b |
यथा च युद्धमभवत्पृथिवीक्षयकारकम्। तत्तेऽहं कथयिष्यामि पृच्छते भरतर्षभ।। | 1-61-6a 1-61-6b |
मृते पितरि ते वीरा वनादेत्य स्वमन्दिरम्। नचिरादेव विद्वांसो वेदे धनुषि चाभवन्।। | 1-61-7a 1-61-7b |
तांस्तथा सत्ववीर्यौजःसंपन्नान्पौरसंमतान्। नामृष्यन्कुरवो दृष्ट्वा पाण्डवाञ्श्रीयशोभृतः।। | 1-61-8a 1-61-8b |
ततो दुर्योधनः क्रूरः कर्णश्च सहसौबलः। तेषां निग्रहनिर्वासान्विविधांस्ते समारभन्।। | 1-61-9a 1-61-9b |
ततो दुर्योधनः क्रूरः कुलिङ्गस्य मते स्थितः। पाम्डवान्विविधोपायै राज्यहेतोरपीडयत्।। | 1-61-10a 1-61-10b |
ददावथ विषं पापो भीमाय धृतराष्ट्रजः। जरयामास तद्वीरः सहान्नेन वृकोदरः।। | 1-61-11a 1-61-11b |
प्रमाणकोट्यां संसुप्तं पुनर्बद्ध्वा वृकोदरम्। तोयेषु भीमं गङ्गायाः प्रक्षिप्य पुरमाव्रजत्।। | 1-61-12a 1-61-12b |
यदा विबुद्धः कौन्तेयस्तदा संछिद्य बन्धनम्। उदतिष्ठन्महाबाहुर्भीमसेनो गतव्यथः।। | 1-61-13a 1-61-13b |
आशीविषैः कृष्णसर्पैः सुप्तं चैनमदंशयत्। सर्वेष्वेवाङ्गदेशेषु न ममार स शत्रुहा।। | 1-61-14a 1-61-14b |
तेषां तु विप्रकारेषु तेषु तेषु महामतिः। मोक्षणे प्रतिकारे च विदुरोऽवहितोऽभवत्।। | 1-61-15a 1-61-15b |
स्वर्गस्थो जीवलोकस्य यथा शक्रः सुखावहः। पाण्डवानां तथा नित्यं विदुरोऽपि सुखावहः।। | 1-61-16a 1-61-16b |
यदा तु विविधोपायैः संवृतैर्विवृतैरपि। नाशकद्विनिहन्तुं तान्दैवभाव्यर्थरक्षितान्।। | 1-61-17a 1-61-17b |
ततः संमन्त्र्य सचिवैर्वृषदुःशासनादिभिः। धृतराष्ट्रमनुज्ञाप्य जातुषं गृहमादिशत्।। | 1-61-18a 1-61-18b |
`तत्र तान्वासयामास पाण्डवानमितौजसः।' सुतप्रियैषी तान्राजा पाण्डवानम्बिकासुतः। ततो विवासयामास राज्यभोगबुभुक्षया।। | 1-61-19a 1-61-19b 1-61-19c |
ते प्रातिष्ठन्त सहिता नगरान्नागसाह्वयात्। प्रस्थाने चाभवन्मन्त्री क्षत्ता तेषां महात्मनाम्।। | 1-61-20a 1-61-20b |
तेन मुक्ता जतुगृहान्निशीथे प्राद्रवन्वनम्। ततः संप्राप्य कौन्तेया नगरं वारणावतम्।। | 1-61-21a 1-61-21b |
न्यवसन्त महात्मानो मात्रा सह परन्तपाः। धृतराष्ट्रेण चाज्ञप्ता उषिता जातुषे गृहे।। | 1-61-22a 1-61-22b |
पुरोचनाद्रक्षमाणाः संवत्सरमतन्द्रिताः। सुरुङ्गां कारयित्वा तु विदुरेण प्रचोदिताः।। | 1-61-23a 1-61-23b |
आदीप्य जातुषं वेश्म दग्ध्वा चैव पुरोचनम्। प्राद्रवन्भयसंविग्ना मात्रा सह पन्तपाः।। | 1-61-24a 1-61-24b |
ददृशुर्दारुमं रक्षो हिडिम्बं वननिर्झरे। हत्वा च तं राक्षसेन्द्रं भीताः समवबोधनात्।। | 1-61-25a 1-61-25b |
निशि संप्राद्रवन्पार्था धार्तराष्ट्रभयार्दिताः। प्राप्ता हिडिम्बा भीमेन यत्र जातो घटोत्कचः।। | 1-61-26a 1-61-26b |
एकचक्रां ततो हत्वा पाण्डवाः संशितव्रताः। वेदाध्ययनसंपन्नास्तेऽभवन्ब्रह्मचारिणः।। | 1-61-27a 1-61-27b |
ते तत्र नियताः कालं कंचिदूषुर्नरर्षभाः। मात्रा सहैकचक्रायां ब्राह्मणस्य निवेशने।। | 1-61-28a 1-61-28b |
तत्राससाद क्षुधितं पुरुषादं वृकोदरः। भीमसेनो महाबाहुर्बकं नाम महाबलम्।। | 1-61-29a 1-61-29b |
तं चापि पुरुषव्याघ्रो बाहुवीर्येण पाण्डवः। निहत्य तरसा वीरो नागरान्पर्यसान्त्वयत्।। | 1-61-30a 1-61-30b |
ततस्ते शुश्रुवुः कृष्णां पञ्चालेषु स्वयंवराम्। श्रुत्वा चैवाभ्यगच्छ्त गत्वा चैवालभन्त ताम्।। | 1-61-31a 1-61-31b |
ते तत्र द्रौपदीं लब्ध्वा परिसंवत्सरोषिताः। विदिता हास्तिनपुरं प्रत्याजग्मुररिन्दमाः।। | 1-61-32a 1-61-32b |
ते उक्ता धृतराष्ट्रेण राज्ञा शान्तनवेन च। भ्रातृभिर्विग्रहस्तात कथं वो न भवेदिति।। | 1-61-33a 1-61-33b |
अस्माभिः खाण्डवप्रस्थे युष्मद्वासोऽनुचिन्तितः। तस्माज्जनपदोपेतं सुविभक्तमहापथम्।। | 1-61-34a 1-61-34b |
वासाय स्वाण्डवप्रस्थं व्रजध्वं गतमत्सराः। तयोस्ते वचनाज्जग्मुः सह सर्वैः सुहृज्जनैः।। | 1-61-35a 1-61-35b |
नगरं खाण्डवप्रस्थं रत्नान्यादाय सर्वशः। तत्र ते न्यवसन्पार्थाः संवत्सरगणांन्बहून्।। | 1-61-36a 1-61-36b |
वशे शस्त्रप्रतापेन कुर्वन्तोऽन्यान्महीभृतः। एवं धर्मप्रधानास्ते सत्यव्रतपरायणाः।। | 1-61-37a 1-61-37b |
अप्रमत्तोत्थिताः क्षान्ताः प्रतपन्तोऽहितान्बहून्। अजयद्भीमसेनस्तु दिशं प्राचीं महायशाः।। | 1-61-38a 1-61-38b |
उदीचीमर्जुनो वीरः प्रतीचीं नकुलस्तथा। दक्षिणां सहदेवस्तु विजिग्ये परवीरहा।। | 1-61-39a 1-61-39b |
एवं चक्रुरिमां सर्वे वशे कृत्स्नां वसुन्धराम्। पञ्चभिः सूर्यसङ्काशैः सूर्येण च विराजता।। | 1-61-40a 1-61-40b |
षट्सूर्येवाभवत्पृथ्वी पाण्डवैः सत्यविक्रमैः। ततो निमित्ते कस्मिंश्चिद्धर्मराजो युधिष्ठिरः।। | 1-61-41a 1-61-41b |
वनं प्रस्थापयामास तेजस्वी सत्यविक्रमः। प्राणेभ्योऽपि प्रियतरं भ्रातरं सव्यसाचिनम्।। | 1-61-42a 1-61-42b |
अर्जुनं पुरुषव्याघ्रं स्थिरात्मानं गुणैर्युतम्। स वै संवत्सरं पूर्णं मासं चैकं वने वसन्।। | 1-61-43a 1-61-43b |
`तीर्थयात्रां च कृतवान्नागकन्यामवाप च। पाण्ड्यस्य तनयां लब्ध्वा तत्र ताभ्यांसहोषितः'।। | 1-61-44a 1-61-44b |
ततोऽगच्छद्धृषीकेशं द्वारवत्यां कदाचन। लब्धवांस्तत्र बीभत्सुर्भार्यां राजीवलोचनाम्।। | 1-61-45a 1-61-45b |
अनुजां वासुदेवस्य सुभद्रां भद्रभाषिणीम्। सा शचीव महेन्द्रेण श्रीः कृष्णेनेव सङ्गता।। | 1-61-46a 1-61-46b |
सुभद्रा युयुजे प्रीत्या पाण्डवेनार्जुनेन ह। अतर्पयच्च कौन्तेयः खाण्डवे हव्यवाहनम्।। | 1-61-47a 1-61-47b |
बीभत्सुर्वासुदेवेन सहितो नृपस्तम। नातिभारो हि पार्थस्य केशवेन सहाभवत्।। | 1-61-48a 1-61-48b |
व्यवसायसहायस्य विष्णोः शत्रुवधेष्विव। पार्थायाग्निर्ददौ चापि गाण्डीवं धनुरुत्तमम्।। | 1-61-49a 1-61-49b |
इषुधी चाक्षयैर्बाणै रथं च कपिलक्षणम्। मोक्षयामास बीभत्सुर्मयं यत्र महासुरम्।। | 1-61-50a 1-61-50b |
स चकार सभां दिव्यां सर्वरत्नसमाचिताम्। तस्यां दुर्योधनो मन्दो लोभं चक्रे सुदुर्मतिः।। | 1-61-51a 1-61-51b |
ततोऽक्षैर्वञ्चयित्वा च सौबलेन युधिष्ठिरम्। वनं प्रस्थापयामास सप्तवर्षाणि पञ्च च।। | 1-61-52a 1-61-52b |
अज्ञातमेकं राष्ट्रे च ततो वर्षं त्रयोदशम्। ततश्चतुर्दशे वर्षे याचमानाः स्वकं वसु।। | 1-61-53a 1-61-53b |
नालभन्त महाराज ततो युद्धमवर्तत। ततस्ते क्षत्रमुत्साद्य हत्वा दुर्योधनं नृपम्।। | 1-61-54a 1-61-54b |
राज्यं विहतभूयिष्ठं प्रत्यपद्यन्त पाण्डवाः। `इष्ट्वा क्रतूंश्च विविधानश्वमेधादिकान्बहून्।। | 1-61-55a 1-61-55b |
धृतराष्ट्रे गते स्वर्गं विदुरे पञ्चतां गते। गमयित्वा क्रियां स्वर्ग्यां राज्ञाममिततेजसाम्।। | 1-61-56a 1-61-56b |
स्वं धाम याते वार्ष्णेये कृष्णदारान्प्ररक्ष्य च। महाप्रस्थानिकं कृत्वा गताः स्वर्गमनुत्तमम्'।। | 1-61-57a 1-61-57b |
एवमेतत्पुरावृत्तं तेषामक्लिष्टकर्मणाम्। भेदो राज्यविनाशश्च जयश्च जयतांवर।। | 1-61-58a 1-61-58b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि अंशावतरणपर्वणि एकषष्टितमोऽध्यायः।। 61 ।। |
1-61-4 प्रोत्साहतीव प्रोत्साहयतीव। परिस्पन्दमुदुत्साहयतीव मे इति पाठेगुरोर्वक्त्रपरिस्पन्दस्त्वं कथां कथयेत्याज्ञावचनं तज्जन्या मुत्प्रीतिः सा प्रोत्साहयती।। 4 ।। 1-61-7 नचिरात् शीघ्र। विद्वांसोऽमवन्।। 1-61-12 प्रमाणकोट्यां गङ्गायास्तीर्थविशेषे। वृकनामा बहुभ क्षोऽग्निरुदरे यस्य स वृकोदरः।। 1-61-17 संवृतैर्गुप्तैः। विवृतै प्रकाशैः। दैवभाव्यर्थरक्षितान् दैवेनादृष्टेन भावी कुरुक्षयपाण्ड वराज्यलाभादिरर्थस्तस्मै रक्षितान्।। 1-61-18 वृषः कर्णः जातुषं लाक्षामयम्।। 1-61-20 अभवन्मित्रमित्यपि पाठः। क्षत्ता विदुरः।। 1-61-21 तेन क्षत्तुर्मन्त्रणेन।। 1-61-31 स्वयं वृणुते इति स्वयंवरा ताम्।। 1-61-33 शान्तनवेन भीष्मेण।। 1-61-36 आदाय भागश इत्यपि पाठः।। 1-61-48 नातीति खाण्डवदाह इति शेषः।। 1-61-49 व्यवसायो बुद्धिः।। 1-61-50 बाणैर्युक्ताविति शेषः। कपिलक्षणं वानरध्वजं। यत्र खाण्डवदाहे।। एकषष्टितमोऽध्यायः।। 61 ।।
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