महाभारतम्-01-आदिपर्व-151
← आदिपर्व-150 | महाभारतम् प्रथमपर्व महाभारतम्-01-आदिपर्व-151 वेदव्यासः |
आदिपर्व-152 → |
यौवराज्ये युधिष्ठिरस्याभिषेकः।। 1 ।।
भीमसेनस्य बलरामाद्गदायुद्धशिक्षणम्।। 2 ।।
द्रोणेनार्जुनस्य ब्रह्मशिरोस्त्रविषये नियमकथनम्।। 3 ।।
भीमार्जुनदिग्विजयेन धृतराष्ट्रचिन्ता।। 4 ।।
वैशंपायन उवाच। | 1-151-1x |
`धृतराष्ट्रस्तु राजन्द्रे यदा कौरवनन्दनम्। युधिष्ठिरं विजानन्वै समर्थं राज्यरक्षणे।। | 1-151-1a 1-151-1b |
यौवराज्याभिषेकार्थममन्त्रयत मन्त्रिभिः। ते तु बुद्ध्वान्वतप्यन्त धृतराष्ट्रात्मजास्तदा।। | 1-151-2a 1-151-2b |
ततः संवत्सरस्यान्ते यौवराज्याय पार्थिव। स्थापितो धृतराष्ट्रेण पाण्डुपुत्रो युधिष्ठिरः।। | 1-151-3a 1-151-3b |
ततोऽदीर्घेण कालेन कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः। पितुरन्तर्दधे कीर्तिं शीलवृत्तसमाधिभिः।। | 1-151-4a 1-151-4b |
असियुद्धे गदायुद्धे रथयुद्धे च पाण्डवः। संकर्षणादशिक्षद्वै शश्वच्छिक्षां वृकोदरः।। | 1-151-5a 1-151-5b |
समाप्तशिक्षो भीमस्तु द्युमत्सेनसमो बले। पराक्रमेण संपन्नो भ्रातॄणामचरद्वशे।। | 1-151-6a 1-151-6b |
प्रगाढदृढमुष्टित्वे लाघवे वेधने तथा। क्षुरनाराचभल्लानां विपाठानां च तत्त्ववित्।। | 1-151-7a 1-151-7b |
ऋजुवक्रविशालानां प्रयोक्ता फाल्गुनोऽभवत्। लाघवे सौष्ठवे चैव नान्यः कश्चन विद्यते।। | 1-151-8a 1-151-8b |
बीभत्सुसदृशो लोक इति द्रोणो व्यवस्थितः। ततोऽब्रवीद्गुडाकेशं द्रोणः कौरवसंसदि।। | 1-151-9a 1-151-9b |
अगस्त्यस्य धनुर्वेदे शिष्यो मम गुरुः पुरा। अग्निवेश्य इति ख्यातस्तस्य शिष्योऽस्मि भारत।। | 1-151-10a 1-151-10b |
तीर्थात्तीर्थं गमयितुमहमेतत्समुद्यतः। तपसा यन्मया प्राप्तममोघमशनिप्रभम्।। | 1-151-11a 1-151-11b |
अस्त्रं ब्रह्मशिरो नाम यद्दहेत्पृथिवीमपि। ददता गुरुणा चोक्तं न मनुष्येष्विदंत्वया।। | 1-151-12a 1-151-12b |
भारद्वाज विमोक्तव्यमल्पवीर्येषु संयुगे। यद्यदन्तर्हितं भूतं किंचिद्युद्ध्येत्त्वया सह।। | 1-151-13a 1-151-13b |
महातेजस्त्वमेतेन हन्याः शस्त्रेण संयुगे। त्वया प्राप्तमिदं वीर दिव्यं नान्योऽर्हति त्विदम्।। | 1-151-14a 1-151-14b |
समयस्तु त्वया रक्ष्यो मुनिसृष्टो विशांपते। आचार्यदक्षिणां देहि ज्ञातिग्रामस्य पश्यतः।। | 1-151-15a 1-151-15b |
ददानीति प्रतिज्ञाते फाल्गुनेनाब्रवीद्गुरुः। युद्धेऽहं प्रतियोद्धव्यो युध्यमानस्त्वयाऽनघ।। | 1-151-16a 1-151-16b |
तथेति च प्रतिज्ञाय द्रोणाय कुरुपुङ्गवः। उपसंगृह्य चरणावुपतस्थे विनीतवत्।। | 1-151-17a 1-151-17b |
द्रोणो जगाद वचनं समालिङ्ग्य तु फाल्गुनम्। यन्मयोक्तं पुरा पार्थ तव लोके नरं क्वचित्।। | 1-151-18a 1-151-18b |
सदृशं कारये नैव सर्वप्रहरणे युधि। तत्कृतं च मया सम्यक्तव तुल्यो न वर्तते।। | 1-151-19a 1-151-19b |
देवा युधि न शक्तास्त्वां योद्धुं दैत्या न दानवाः। नाहं त्वत्तो विशिष्टोऽस्मि किं पुनर्मानवा रणे।। | 1-151-20a 1-151-20b |
एकस्तवाधिको लोके यो हि वृष्णिकुलोद्भवः। कृष्णः कमलपत्राक्षः कंसकालियसूदनः।। | 1-151-21a 1-151-21b |
स जेता सर्वलोकानां सर्वप्रहरणायुधः। नैतावता ते पार्थाहं भवाम्यनृतवागिह।। | 1-151-22a 1-151-22b |
तदधीनं जगत्सर्वं तत्प्रलीनं तदुद्भवम्। तत्पदं न विजानन्ति ब्रह्मेशानादयोऽपि वा।। | 1-151-23a 1-151-23b |
तन्नाभिप्रभवो ब्रह्मा सर्वभूतानि निर्ममे। स एव कर्ता भोक्ता च संहर्ता च जगन्मयम्।। | 1-151-24a 1-151-24b |
स एव भूतं भव्यं च भवच्च पुरुषः परः। नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः।। | 1-151-25a 1-151-25b |
प्रादुर्भवति योगात्मा पालनार्थं स लीलया। तत्तुल्यो हि न जायेत न जातो न जनिष्यते।। | 1-151-26a 1-151-26b |
स हि मातुलजोऽभूत्ते चराचरगुरुः पिता। को हि तं जेतुमीहेत जानन्नात्महितं नरः।। | 1-151-27a 1-151-27b |
श्यालश्च ते सखा चासौ तस्य त्वं प्राणवल्लभः। स्नेहमभ्यधिकं तस्य तव सख्यमवस्थितम्।। | 1-151-28a 1-151-28b |
न तेन भवतो युद्धं भविता नर्मतोऽपि वा। अपिचार्थे तव पुरा शक्रेण किल चोदितः।। | 1-151-29a 1-151-29b |
गोकुले वर्धमानस्तु नन्दगोपस्य कारणात्। ममांशः पाण्डवो लोके पृथिव्यां पुरुषोत्तमः।। | 1-151-30a 1-151-30b |
कौन्तेयावरजः श्रीमानर्जुनो नाम वीर्यवान्। भुवो भारापहरणे साहाय्यं ते करिष्यति।। | 1-151-31a 1-151-31b |
तदर्थमभयं देहि पाहि चास्मत्कृते प्रभो। इत्युक्तः पुण्डरीकाक्षस्तदा शक्रेण फल्गुन।। | 1-151-32a 1-151-32b |
तमुवाच ततः श्रीमाञ्शङ्खचक्रगदाधरः। जानामि पाण्डवे वंशे जातं पार्थं पितृष्वसुः।। | 1-151-33a 1-151-33b |
पुत्रं परमधर्मिष्ठं सर्वशस्त्रभृतां वरम्। पालयामि त्वदंशं तं सर्वलोकमहाभुजम्।। | 1-151-34a 1-151-34b |
आवयोः सख्यसदृशं न च लोके भविष्यति। यस्तद्भक्तः समद्भक्तो यस्तं द्वेष्टि स मामपि।। | 1-151-35a 1-151-35b |
यन्मे वित्तं तु तत्तस्य तं विनाहं न जीवये। इति पार्थ पुरा शक्रमाह सर्वेश्वरो हरिः।। | 1-151-36a 1-151-36b |
तस्मात्तवापि सदृशस्तं विनाभ्यधिकः पुमान्। न चेह भविता लोके तमेव शरणं व्रज।। | 1-151-37a 1-151-37b |
शरण्यः सर्वभूतानां देवदेवो जनार्दनः।।' | 1-151-38a |
वैशंपायन उवाच। | 1-151-39x |
तथेति च प्रतिज्ञाय द्रोणाय कुरुपुङ्गवः। उपसंगृह्य चरणौ युधिष्ठिरवशोऽभवत्।। | 1-151-39a 1-151-39b |
स्वभावादगमच्छब्दो महीं सागरमेखलाम्। अर्जुनस्य समो लोके नास्ति कश्चिद्धनुर्धरः।। | 1-151-40a 1-151-40b |
गदायुद्धेऽसियुद्धे च रथयुद्धे च पाण्डवः। पारगश्च धनुर्युद्धे बभूवाथ धनञ्जयः।। | 1-151-41a 1-151-41b |
नीतिमान्सकलां नीतिं विबुधाधिपतेस्तदा। `अस्त्रे शस्त्रे च शास्त्रे च रथनागाश्वकर्मणि।' अवाप्य सहदेवोऽपि भ्रातॄणां ववृते वशे।। | 1-151-42a 1-151-42b 1-151-42c |
द्रोणेनैवं विनीतश्च भ्रातॄणां नकुलः प्रियः। चित्रयोधी समाख्यातो बभूवातिरथोदितः।। | 1-151-43a 1-151-43b |
त्रिवर्षकृतयज्ञस्तु गन्धर्वाणामुपप्लवे। अर्जुनप्रमुखैः पार्थैः सौवीरः समरे हतः।। | 1-151-44a 1-151-44b |
न शशाक वशे कर्तुं यं पाण्डुरपि वीर्यवान्। सोऽर्जुनेन वशं नीतो राजासीद्यवनाधिपः।। | 1-151-45a 1-151-45b |
अतीव बलसंपन्नः सदा मानि कुरून्प्रति। विपुलो नाम सौवीरः शस्तः पार्थेन धीमता।। | 1-151-46a 1-151-46b |
दत्तामित्र इति ख्यातं सङ्ग्रामे कृतनिश्चयम्। सुमित्रं नाम सौवीरमर्जुनोऽदमयच्छरैः।। | 1-151-47a 1-151-47b |
भीमसेनसहायश्च रथानामयुतं च सः। अर्जुनः समरे प्राच्यान्सर्वानेकरथोऽजयत्।। | 1-151-48a 1-151-48b |
तथैवैकरथो गत्वा दक्षिणामजयद्दिशम्। धनौघं प्रापयामास कुरुराष्ट्रं धनञ्जयः।। | 1-151-49a 1-151-49b |
`यतः पञ्चदशे वर्षे सर्वमेतच्चकार सः। तं दृष्ट्वा धार्तराष्ट्राणां ततो भयमजायत।। | 1-151-50a 1-151-50b |
यः सर्वान्धृतराष्ट्रस्य पुत्रान्विप्रचकार ह। भीमसेनो महाबाहुर्बलाद्बलवतां वरः।। | 1-151-51a 1-151-51b |
अदुष्टभावं तं दोषैर्जगृहुर्दोषबुद्धयः। धार्तराष्ट्रास्तथा सर्वे भयाद्भीमस्य कर्मणा।। | 1-151-52a 1-151-52b |
तं दृष्ट्वा कर्मभिः पार्थान्सर्वानागतलक्षणान्। बलाद्बहुगुणांस्तेभ्यो बिभियुर्दोषबुद्धयः।।' | 1-151-53a 1-151-53b |
एवं सर्वे महात्मानः पाण्डवा मनुजोत्तमाः। परराष्ट्राणि निर्जित्य स्वराष्ट्रं ववृधुः पुरा।। | 1-151-54a 1-151-54b |
ततो बलमतिख्यातं विज्ञाय दृढधन्विनाम्। दूषितः सहसा भावो धृतराष्ट्रस्य पाण्डुषु। स चिन्तापरमो राजा न निद्रामलभन्निशि।। | 1-151-55a 1-151-55b 1-151-55c |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि संभवपर्वणि एकपञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः।। 151 ।। |
1-151-9 गुडाका निद्रा तस्या ईशमर्जुनं जितनिद्रं, गुडा स्नुही तद्वत्केशा यस्य।। 1-151-11 तीर्थात्पात्रान्तरं गमयितुं संप्रदायाविच्छेदार्थमित्यर्थः।। 1-151-14 त्वया ग्राहान्मां मोचयता प्राप्तं प्रागेव।। 1-151-28 तस्य त्वयीति शेषः। तव तस्मिन्निति शेषः।। 1-151-35 तस्य मम च।। 1-151-42 विबुधाधिपतेरुद्धवात्।। 1-151-43 विनीतः शिक्षितः। अतिरथेषूदितः ख्यातः।। 1-151-44 गन्धर्वोपप्लवेऽपि यस्य सौवीरस्य यज्ञो न विप्लुत इत्ययोध्यत्वमुक्तम्।। 1-151-46 शस्तो हिंसितः।। 1-151-53 बिभियुः बिभ्युः।। 1-151-54 ववृधुर्वर्धितवन्तः।। एकपञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः।। 151 ।।
आदिपर्व-150 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आदिपर्व-152 |