महाभारतम्-01-आदिपर्व-085
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ब्रह्मचर्याद्याश्रमविषयकाष्टकययातिप्रश्नप्रतिवचनम्।। 1 ।।
अष्टक उवाच। | 1-85-1x |
चरन्गृहस्थः कथमेति धर्मान्कथं भिक्षुः कथमाचार्यकर्मा। वानप्रस्थः सत्पथे सन्निविष्टो बहून्यस्मिन्संप्रति वेदयन्ति।। | 1-85-1a 1-85-1b 1-85-1c 1-85-1d |
ययातिरुवाच। | 1-85-2x |
आहूताध्यायी गुरुकर्मस्वचोद्यः पूर्वोत्थायी चरमं चोपशायी। मृदुर्दान्तो धृतिमानप्रमत्तः स्वाध्याशीलः सिध्यति ब्रह्मचारी।। | 1-85-2a 1-85-2b 1-85-2c 1-85-2d |
धर्मागतं प्राप्य धनं यजेत दद्यात्सदैवातिथीन्भोजयेच्च। अनाददानश्च परैरदत्तं सैषा गृहस्थोपनिषत्पुराणी।। | 1-85-3a 1-85-3b 1-85-3c 1-85-3d |
स्ववीर्यजीवी वृजिनान्निवृत्तो दाता परेभ्यो न परोपतापी। तादृङ्मुनिः सिद्धिमुपैति मुख्यां वसन्नरण्ये नियताहारचेष्टः।। | 1-85-4a 1-85-4b 1-85-4c 1-85-4d |
अशिल्पजीवी गुणवांश्चैव नित्यं जितेन्द्रियः सर्वतो विप्रयुक्तः। अनोकशायी लघुरल्पप्रसार- श्चरन्देशानेकचरः स भिक्षुः।। | 1-85-5a 1-85-5b 1-85-5c 1-85-5d |
रात्र्या यया वाऽभिजिताश्च लोका भवन्ति कामाभिजिताः सुखाश्च। तामेव रात्रिं प्रयतेत विद्वा- नरण्यसंस्थो भवितुं यतात्मा।। | 1-85-6a 1-85-6b 1-85-6c 1-85-6d |
दशैव पूर्वान्दश चापरांश्च ज्ञातीनथात्मानमथैकविंशम्। अरण्यवासी सुकृते दधाति विमुच्यारण्ये स्वशरीरधातून्।। | 1-85-7a 1-85-7b 1-85-7c 1-85-7d |
अष्टक उवाच। | 1-85-8x |
कतिस्विदेव मुनयः कति मौनानि चाप्युत। भवन्तीति तदाचक्ष्व श्रोतुमिच्छामहे वयम्।। | 1-85-8a 1-85-8b |
ययातिरुवाच। | 1-85-9x |
अरण्ये वसतो यस्य ग्रामो भवति पृष्ठतः। ग्रामे वा वसतोऽरण्यं स मुनिः स्याज्जनाधिप।। | 1-85-9a 1-85-9b |
अष्टक उवाच। | 1-85-10x |
कथंस्विद्वसतोऽरण्ये ग्रामो भवति पृष्ठतः। ग्रामे वा वसतोऽरण्यं कथं भवति पृष्ठतः।। | 1-85-10a 1-85-10b |
ययातिरुवाच। | 1-85-11x |
न ग्राम्यमुपयुञ्जीत य आरण्यो मुनिर्भवेत्। तथास्य वसतोऽरण्ये ग्रामो भवति पृष्ठतः।। | 1-85-11a 1-85-11b |
अनग्निरनिकेतश्चाप्यगोत्रचरणो मुनिः। कौपीनाच्छादनं यावत्तावदिच्छेच्च चीवरम्।। | 1-85-12a 1-85-12b |
यावत्प्राणाभिसन्धानं तावदिच्छेच्च भोजनम्। तथाऽस्य वसतो ग्रामेऽरण्यं भवति पृष्ठतः।। | 1-85-13a 1-85-13b |
यस्तु कामान्परित्यज्य त्यक्तकर्मा जितेन्द्रियः। आतिष्ठेच्च मुनिर्मौनं स लोके सिद्धिमाप्नुयात्।। | 1-85-14a 1-85-14b |
धौतदन्तं कृत्तनखं सदा स्नातमलङ्कृतम्। असितं सितकर्माणं कस्तमर्हति नार्चितुम्।। | 1-85-15a 1-85-15b |
तपसा कर्शितः क्षामः क्षीणमांसास्थिशोणितः। स च लोकमिमं जित्वा लोकं विजयते परम्।। | 1-85-16a 1-85-16b |
यदा भवति निर्द्वन्द्वो मुनिर्मौनं समास्थितः। अथ लोकमिमं जित्वा लोकं विजयते परम्।। | 1-85-17a 1-85-17b |
आस्येन तु यदाऽहारं गोवन्मृगयते मुनिः। अथास्य लोकः सर्वोऽयं सोऽमृतत्वाय कल्पते।। | 1-85-18a 1-85-18b |
सामान्यधर्मः सर्वेषां क्रोधो लोभो द्रुहाऽक्षमा। विहाय मत्सरं शाठ्यं दर्पं दम्भं च पैशुनम्। क्रोधं लोभं ममत्वं च यस्य नास्ति स धर्मवित्।। | 1-85-19a 1-85-19b 1-85-19c |
अष्टक उवाच। | 1-85-20x |
नित्याशनो ब्रह्मचारी गृहस्थो वनगो मुनिः। नाधर्ममशनात्प्राप्येत्कथं ब्रूहीह पृच्छते।। | 1-85-20a 1-85-20b |
ययातिरुवाच। | 1-85-21x |
अष्टौ ग्रासा मुनेः प्रोक्ताः षोडशारण्यवासिनः। द्वात्रिंशत्तु गृहस्थस्य अमितं ब्रह्मचारिणः।। | 1-85-21a 1-85-21b |
इत्येवं कारणैर्ज्ञेयमष्टकैतच्छुभाशुभम्।। | 1-85-22a |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि संभवपर्वणि पञ्चाशीतितमोऽध्यायः।। 85 ।। |
1-85-1 अस्मिन्धर्मे विषये बहूनि प्राप्तिद्वाराणि वेदयन्ति वैदिकाः।। 1-85-4 स्ववीर्यजीवी स्वप्रयत्नलब्धजीविकः।। 1-85-5 अनोकशायी यत्र क्वचनशायी। लघुः परिग्रहशून्यः।। 1-85-6 तामेव रात्रिं तदैव सर्वपरिग्रहं संन्यस्य अरण्यसंस्थो भवितुं प्रयतेत।। 1-85-8 संन्यासः कतिधेति पृच्छति। कतिस्विदिति।। 1-85-9 संन्यासं चतुष्प्रकारमभिप्रेत्य प्रथमं कुटीचकबहूदकरूपं भेदद्वयमाह। अरण्येति।। 1-85-10 ग्रामारण्ययोः पृष्ठतःकरणं कथमिति पृच्छति। कथमिति।। 1-85-11 कृटीचकं विशिनष्टि। न ग्राम्यमिति।। 1-85-12 बहूदकं विशिनष्टि। अनग्निरिति।। 1-85-14 हंसपरमहंसौ प्रस्तौति। यस्त्विति।। 1-85-15 धौतदन्तं शुद्धाहारम्। कृत्तनखं त्यक्तहिंसासाधनम्। सदा स्नातं नित्यं शुद्धचित्तम्। अलंकृतं शमादिना। असितं बन्धरहितम्। सितकर्माणं शुद्धकर्माणम्।। 1-85-18 आस्यस्य यावदपेक्षितं तावदेव मृगयते नतु परदिनार्थणार्जयतीत्यर्थः।। पञ्चाशीतितमोऽध्यायः।। 85 ।।
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