महाभारतम्-01-आदिपर्व-143
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अर्जुनेन लक्ष्यभूतभासच्छेदः।। 1 ।।
स्नानार्थं गङ्गामवतीर्णस्य द्रोणस्य ग्राहेण जङ्घायां ग्रहणम्।। 2 ।।
अर्जुनेन ग्राहहननम्।। 3 ।।
अर्जुनस्य ब्रह्मशिरोस्त्रलाभः।। 4 ।।
वैशंपायन उवाच। | 1-143-1x |
ततो धनञ्जयं द्रोणः स्मयमानोऽभ्यभाषत। त्वयेदानीं प्रहर्तव्यमेतल्लक्ष्यं विलोक्यताम्।। | 1-143-1a 1-143-1b |
मद्वाक्यसमकालं ते मोक्तव्योऽत्र भवेच्छरः। वितत्य कार्मुकं पुत्र तिष्ठ तावन्मुहूर्तकम्।। | 1-143-2a 1-143-2b |
एवमुक्तः सव्यसाची मण्डलीकृतकार्मुकः। तस्थौ भासं समुद्दिश्य गुरुवाक्यप्रचोदितः।। | 1-143-3a 1-143-3b |
मुहूर्तादिव तं द्रोणस्तथैव समभाषत। पश्यस्येनं स्थितं भासं द्रुमं मामपि चार्जुन।। | 1-143-4a 1-143-4b |
पश्याम्येकं भासमिति द्रोणं पार्थोऽभ्यभाषत। न तु वृक्षं भवन्तं वा पश्यामीति च भारत।। | 1-143-5a 1-143-5b |
ततः प्रीतमना द्रोणो मुहूर्तादिव तं पुनः। प्रत्यभाषत दुर्धर्षः पाण्डवानां महारथम्।। | 1-143-6a 1-143-6b |
भासं पश्यसि यद्येनं तथा ब्रूहि पुनर्वचः। शिरः पश्यामि भासस्य न गात्रमिति सोऽब्रवीत्।। | 1-143-7a 1-143-7b |
अर्जुनेनैवमुक्तस्तु द्रोणो हृष्टतनूरुहः। मुञ्चस्वेत्यब्रवीत्पार्थं स मुमोचाविचारयन्।। | 1-143-8a 1-143-8b |
ततस्तस्य गस्थस्य क्षुरेण निशितेन च। शिर उत्कृत्य तरसा पातयामास पाण्डवः।। | 1-143-9a 1-143-9b |
तस्मिन्कर्मणि संसिद्धे पर्यष्वजत पाण्डवम्। मेने च द्रुपदं सङ्ख्ये सानुबन्धं पराजितम्।। | 1-143-10a 1-143-10b |
कस्य चित्त्वथ कालस्य सशिष्योऽङ्गिरसां वरः। जगाम गङ्गामभितो मज्जितुं भरतर्षभ।। | 1-143-11a 1-143-11b |
अवगाढमथो द्रोणं सलिले सलिलेचरः। ग्राहो जग्राह बलवाञ्जङ्घान्ते कालचोदितः।। | 1-143-12a 1-143-12b |
स समर्थोऽपि मोक्षाय शिष्यान्सर्वानचोदयत्। ग्राहं हत्वा तु मोक्ष्यध्वं मामिति त्वरयन्निव।। | 1-143-13a 1-143-13b |
तद्वाक्यसमकालं तु बीभत्सुर्निशितैः शरैः। अवार्यैः पञ्चभिर्ग्राहं मग्नमम्भस्यताडयत्।। | 1-143-14a 1-143-14b |
इतरे त्वथ संमूढास्तत्रपत्र प्रपेदिरे। तं तु दृष्ट्वा क्रियोपेतं द्रोणोऽमन्यत पाण्डवम्।। | 1-143-15a 1-143-15b |
विशिष्टं सर्वशिष्येभ्यः प्रीतिमांश्चाभवत्तदा। स पार्थबाणैर्बहुधा खण्डशः परिकल्पितः।। | 1-143-16a 1-143-16b |
ग्राहः पञ्चत्वमापेदे जङ्घां त्यक्त्वा महात्मनः। `सर्वक्रियाभ्यनुज्ञानात्तथा शिष्यान्समानयत्।। | 1-143-17a 1-143-17b |
दुर्योधनं चित्रसेनं दुःशासनविविंशती। अर्जुनं च समानीय ह्यश्वत्थामानमेव च।। | 1-143-18a 1-143-18b |
शिशुकं मृण्मयं कृत्वा द्रोणो गङ्गाजले ततः। शिष्याणां पश्यतां चैव क्षिपति स्म महाभुजः।। | 1-143-19a 1-143-19b |
चक्षुषी वाससा चैव बद्ध्वा प्रादाच्छरासनम्। शिशुकं विद्ध्यतेमं वै जलस्थं बद्धचक्षुषः।। | 1-143-20a 1-143-20b |
तत्क्षणेनैव बीभत्सुरावापैर्दशभिर्वशी। पञ्चकैरनुविव्याध मग्नं शिशुकमम्भसि।। | 1-143-21a 1-143-21b |
ताः स दृष्ट्वा क्रियाः सर्वा द्रोणोऽमन्यत पाण्डवम्। विशिष्टं सर्वशिष्येभ्यः प्रीतिमांश्चाभवत्तदा।' तथाब्रवीन्महात्मानं भारद्वाजो महारथम्।। | 1-143-22a 1-143-22b 1-143-22c |
गृहाणेदं महाबाहो विशिष्टमतिदुर्धरम्। अस्त्रं ब्रह्मशिरो नाम सप्रयोगनिवर्तनम्।। | 1-143-23a 1-143-23b |
न च ते मानुषेष्वेतत्प्रयोक्तव्यं कथंचन। जगद्विनिर्दहेदेतदल्पतेजसि पातितम्।। | 1-143-24a 1-143-24b |
असामान्यमिदं तात लोकेष्वस्त्रं निगद्यते। तद्धारयेथाः प्रयतः शृणु चेदं वचो मम।। | 1-143-25a 1-143-25b |
बाधेतामानुषः शत्रुर्यदि त्वां वीर कश्चन। तद्वधाय प्रयुञ्जीथास्तदस्त्रमिदमाहवे।। | 1-143-26a 1-143-26b |
तथेति संप्रतिश्रुत्य बीभत्सुः स कृताञ्जलिः। जग्राह परमास्त्रं तदाह चैनं पुनर्गुरुः। भविता त्वत्समो नान्यः पुमाँल्लोके धनुर्धरः।। | 1-143-27a 1-143-27b 1-143-27c |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि संभवपर्वणि त्रिचत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः।। 143 ।। |
1-143-12 अवगाढं जलावगाहिनम्।। 1-143-13 मोक्ष्यध्वं मोचयध्वम्।। त्रिचत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः।। 143 ।।
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