महाभारतम्-01-आदिपर्व-062
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भारतप्रशंसा।। 1 ।। तच्छ्रवणादिफलकथनम्।। 2 ।।
जनमेजय उवाच। | 1-62-1x |
कथितं वै समासेन त्वया सर्वं द्विजोत्तम। महाभारतमाख्यानं कुरूणां चरितं महत्।। | 1-62-1a 1-62-1b |
कथां त्वनघ चित्रार्थां कथयस्व तपोधन। विस्तरश्रवणे जातं कौतूहलमतीव मे।। | 1-62-2a 1-62-2b |
स भवान्विस्तरेणेमां पुनराख्यातुमर्हति। न हि तृप्यामि पूर्वेषां शृण्वानश्चरितं महत्।। | 1-62-3a 1-62-3b |
न तत्कारणमल्पं वै धर्मज्ञा यत्र पाण्डवाः। अवध्यान्सर्वशो जघ्नुः प्रशस्यन्ते च मानवैः।। | 1-62-4a 1-62-4b |
किमर्थं ते नरव्याघ्राः शक्ताः सन्तो ह्यनागसः। प्रयुज्यमानान्संक्लेशान्क्षान्तवन्तो दुरात्मनाम्।। | 1-62-5a 1-62-5b |
कथं नागायुतप्राणो बाहुशाली वृकोदरः। परिक्लिश्यन्नपि क्रोधं धृतवान्वै द्विजोत्तम।। | 1-62-6a 1-62-6b |
कथं सा द्रौपदी कृष्णा क्लिश्यमाना दुरात्मभिः। शक्ता सती धार्तराष्ट्रान्नादहत्क्रोधचक्षुषा।। | 1-62-7a 1-62-7b |
कथं व्यसनिनं द्यूते पार्थौ माद्रीसुतौ तदा। अन्वयुस्ते नरव्याघ्रा बाध्यमाना दुरात्मभिः।। | 1-62-8a 1-62-8b |
कथं धर्मभृतां श्रेष्ठः सुतो धर्मस्य धर्मवित्। अनर्हः परमं क्लेशं सोढवान्स युधिष्ठिरः।। | 1-62-9a 1-62-9b |
कथं च बहुलाः सेनाः पाण्डवः कृष्णसारथिः। अस्यन्नेकोऽनयत्सर्वाः पितृलोकं धनंजयः।। | 1-62-10a 1-62-10b |
एतदाचक्ष्व मे सर्वं यथावृत्तं तपोधन। यद्यच्च कृतवन्तस्ते तत्रतत्र महारथाः।। | 1-62-11a 1-62-11b |
वैशंपायन उवाच। | 1-62-12x |
क्षणं कुरु महाराज विपुलोऽयमनुक्रमः। पुण्याख्यानस्य वक्तव्यः कृष्णद्वैपायनेरितः।। | 1-62-12a 1-62-12b |
महर्षेः सर्वलोकेषु पूजितस्य महात्मनः। प्रवक्ष्यामि मतं कृत्स्नं व्यासस्यामिततेजसः।। | 1-62-13a 1-62-13b |
इदं शतसहस्रं हि श्लोकानां पुण्यकर्मणाम्। सत्यवत्यात्मजेनेह व्याख्यातममितौजसा।। | 1-62-14a 1-62-14b |
`उपाख्यानैः सह ज्ञेयं श्राव्यं भारतमुत्तमम्। संक्षेपेण तु वक्ष्यामि सर्वमेतन्नराधिप।। | 1-62-15a 1-62-15b |
अध्यायानां सहस्रे द्वे पर्वणां शतमेव च। श्लोकानां तु सहस्राणि नवतिश्च दशैव च। ततोऽष्टादशभिः पर्वैः संगृहीतं महर्षिणा'।। | 1-62-16a 1-62-16b 1-62-16c |
य इदं श्रावयेद्विद्वान्ये चेदं शृणुयुर्नराः। ते ब्रह्मणः स्थानमेत्य प्राप्नुयुर्देवतुल्यताम्।। | 1-62-17a 1-62-17b |
इदं हि वेदैः समितं पवित्रमपि चोत्तमम्। श्राव्याणामुत्तमं चेदं पुराणमृषिसंस्तुतम्।। | 1-62-18a 1-62-18b |
अस्मिन्नर्थश्च कामश्च निखिलेनोपदेक्ष्यते। इतिहासे महापुण्ये बुद्धिश्च परिनैष्ठिकी।। | 1-62-19a 1-62-19b |
अक्षुद्रान्दानशीलांश्च सत्यशीलाननास्तिकान्। कार्ष्णं वेदमिमं विद्वाञ्छ्रावयित्वाऽर्थमश्नुते।। | 1-62-20a 1-62-20b |
भ्रूणहत्याकृतं चापि पापं जह्यादसंशयम्। इतिहासमिमं श्रुत्वा पुरुषोऽपि सुदारुणः।। | 1-62-21a 1-62-21b |
मुच्यते सर्वपापेभ्यो राहुणा चन्द्रमा यथा। जयो नामेतिहासोऽयं श्रोतव्यो विजिगीषुणा।। | 1-62-22a 1-62-22b |
महीं विजयते राजा शत्रूंश्चापि पराजयेत्। इदं पुंसवनं श्रेष्ठमिदं स्वस्त्ययनं महत्।। | 1-62-23a 1-62-23b |
महिषीयुवराजाभ्यां श्रोतव्यं बहुशस्तथा। वीरं जनयते पुत्रं कन्यां वा राज्यभागिनीम्।। | 1-62-24a 1-62-24b |
धर्मशास्त्रमिदं पुण्यमर्थशास्त्रमिदं परम्। मोक्षशास्त्रमिदं प्रोक्तं व्यासेनामितबुद्धिना।। | 1-62-25a 1-62-25b |
`धर्मे चार्थे च कामे च मोक्षे च भरतर्षभ। यदिहास्ति तदन्यत्र यन्नेहास्ति न कुत्रचित्। इदं हि ब्राह्मणैर्लोके आख्यातं ब्राह्मणेष्विह'।। | 1-62-26a 1-62-26b 1-62-26c |
संप्रत्याचक्षते चेदं तथा श्रोष्यन्ति चापरे। पुत्राः शुश्रूषवः सन्ति प्रेष्याश्च प्रियकारिणः।। | 1-62-27a 1-62-27b |
भरतानां महज्जन्म शृण्वतामनसूयताम्। नास्ति व्याधिभयं तेषां परलोकभयं कुतः।। | 1-62-28a 1-62-28b |
शरीरेण कृतं पापं वाचा च मनसैव च। सर्वं संत्यजति क्षिप्रं य इदं शृणुयान्नरः।। | 1-62-29a 1-62-29b |
धन्यं यशस्यमायुष्यं पुण्यं स्वर्ग्यं तथैव च। कृष्णद्वैपायनेनेदं कृतं पुण्यचिकीर्षुणा।। | 1-62-30a 1-62-30b |
कीर्तिं प्रथयता लोके पाण्डवानां महात्मनाम्। अन्येषां क्षत्रियाणां च भूरिद्रविणतेजसाम्।। | 1-62-31a 1-62-31b |
सर्वविद्यावदातानां लोके प्रथितकर्मणाम्। य इदं मानवो लोके पुण्यार्थे ब्राह्मणाञ्छुचीन्।। | 1-62-32a 1-62-32b |
श्रावयेत महापुण्यं तस्य धर्मः सनातनः। कुरूणां प्रथितं वंशं कीर्तयन्सततं शुचिः।। | 1-62-33a 1-62-33b |
वंशमाप्नोति विपुलं लोके पूज्यतमो भवेत्। योऽधीते भारतं पुम्यं ब्राह्मणो नियतव्रतः।। | 1-62-34a 1-62-34b |
चतुरो वार्षिकान्मासान्सर्वपापैः प्रमुच्यते। विज्ञेयः स च वेदानां पारगो भारतं पठन्।। | 1-62-35a 1-62-35b |
देवा राजर्षयो ह्यत्र पुण्या ब्रह्मर्षयस्तथा। कीर्त्यन्ते धूतपाप्मानः कीर्त्यते केशवस्तथा।। | 1-62-36a 1-62-36b |
भगवांश्चापि देवेशो यत्र देवी च कीर्त्यते। अनेकजननो यत्र कार्तिकेयस्य संभवः।। | 1-62-37a 1-62-37b |
ब्राह्मणानां गवां चैव माहात्म्यं यत्र कीर्त्यते। सर्वश्रुतिसमूहोऽयं श्रोतव्यो धर्मबुद्धिभिः।। | 1-62-38a 1-62-38b |
य इदं श्रावयेद्विद्वान्ब्राह्मणानिह पर्वसु। धूतपाप्मा जितस्वर्गो ब्रह्म गच्छति शाश्वतम्।। | 1-62-39a 1-62-39b |
श्रावयेद्ब्राह्मणाञ्श्राद्धे यश्चेमं पादमन्ततः। अक्षय्यं तस्य तच्छ्राद्धमुपावर्तेत्पितॄनिह।। | 1-62-40a 1-62-40b |
अह्ना यदेनः क्रियते इन्द्रियैर्मनसाऽपि वा। ज्ञानादज्ञानतो वापि प्रकरोति नरश्च यत्।। | 1-62-41a 1-62-41b |
तन्महाभारताख्यानं श्रुत्वैव प्रविलीयते। भरतानां महज्जन्म महाभारतमुच्यते।। | 1-62-42a 1-62-42b |
निरुक्तमस्य यो वेद सर्वपापैः प्रमुच्यते। भरतानां महज्जन्म महाभारतमुच्यते।। | 1-62-43a 1-62-43b |
महतो ह्येनसो मर्त्यान्मोचयेदनुकीर्तितः। त्रिभिर्वर्षैर्महाभागः कृष्णद्वैपायनोऽब्रवीत्।। | 1-62-44a 1-62-44b |
नित्योत्थितः शुचिः शक्तो महाभारतमादितः। तपोनियममास्थाय कृतमेतन्महर्षिणा।। | 1-62-45a 1-62-45b |
तस्मान्नियमसंयुक्तैः श्रोतव्यं ब्राह्मणैरिदम्। कृष्णप्रोक्तामिमां पुण्यां भारतीमुत्तमां कथाम्।। | 1-62-46a 1-62-46b |
श्रावयिष्यन्ति ये विप्रा ये च श्रोष्यन्ति मानवाः। सर्वथा वर्तमाना वै न ते शोच्याः कृताकृतैः।। | 1-62-47a 1-62-47b |
नरेण धर्मकामेन सर्वः श्रोतव्य इत्यपि। निखिलेनेतिहासोऽयं ततः सिद्धिमवाप्नुयात्।। | 1-62-48a 1-62-48b |
न तां स्वर्गगतिं प्राप्य तुष्टिं प्राप्नोति मानवः। यां श्रुत्वैवं महापुण्यमितिहासमुपाश्नुते।। | 1-62-49a 1-62-49b |
शृण्वञ्श्राद्धः पुण्यशीलः श्रावयंश्चेदमद्भुतम्। नरः फलमवाप्नोति राजसूयाश्वमेधयोः।। | 1-62-50a 1-62-50b |
यथा समुद्रो भगवान्यथा मेरुर्महागिरिः। उभौ ख्यातौ रत्ननिधी तथा भारतमुच्यते।। | 1-62-51a 1-62-51b |
इदं हि वेदैः समितं पवित्रमषि चोत्तमम्। श्राव्यं श्रुतिसुखं चैव पावनं शीलवर्धनम्।। | 1-62-52a 1-62-52b |
य इदं भारतं राजन्वाचकाय प्रयच्छति। तेन सर्वा मही दत्ता भवेत्सागरमेखला।। | 1-62-53a 1-62-53b |
पारिक्षित कथां दिव्यां पुण्याय विजयाय च। कथ्यमानां मया कृत्स्नां शृणु हर्षकरीमिमाम्।। | 1-62-54a 1-62-54b |
त्रिभिर्वर्षैः सदोत्थायी कृष्णद्वैपायनो मुनिः। महाभारतमाख्यानं कृतवानिदमद्भुतम्।। | 1-62-55a 1-62-55b |
शृणु कीर्तयतस्तन्म इतिहासं पुरातनम्।। | 1-62-56a |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि अंशावतरणपर्वणि द्विषष्टितमोऽध्यायः।। 62 ।। |
1-62-4 अवध्यान् भीष्मद्रोणादीन्।। 1-62-6 क्रोधं धृतवान् निरुद्धवान्।। 1-62-10 अस्यन् शरान् क्षिपन् स कथं क्लेशं सोढवानित्यनुषज्ज्यते।। 1-62-18 ऋषिभिर्मन्त्रैस्तद्द्रष्टृभिर्वा संस्तुतं समं स्तुतं वा।। 1-62-19 परिनैष्ठिकी परिनिष्ठा मोक्षस्तदुचिता।। 1-62-20 अनास्तिकान् नास्तिका न भवन्तीत्यनास्तिकास्तान्।। 1-62-23 पुंसवनं पुमांसः सूयन्तेऽस्मिन् श्रुते।। 1-62-24 महिषी पट्टराज्ञी।। 1-62-47 सर्वथा साधुनाऽसाधुना वा वर्त्मना वर्तमाना अपि कृताकृतैः क्रमेण पापपुण्यैस्ते न शोच्याः। एतच्छ्रवणादेव सर्वप्रत्यवायपरिहारो भवतीति भावः।। 1-62-49 स्वर्गादप्येतच्छ्रवणं सुखकरं मुक्तिहेतुत्वादिति भावः।। 1-62-50 श्राद्धः श्रद्धावान्।। 1-62-52 श्राव्यमर्थतो रम्यम्।। 1-62-55 सदोत्थायी सदोद्युक्तः।।
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