महाभारतम्-01-आदिपर्व-164
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हिडिम्बप्रेरितायाः तद्भगिन्या हिडिम्बायाः पाण्डवसमीपगमनम्।। 1 ।।
भीमं दृष्ट्वा कामार्ताया हिडिम्बायाः भीमं प्रति वाक्यम्।। 2 ।।
भीमहिडिम्बासंवादः।। 3 ।।
वैशंपायन उवाच। | 1-164-1x |
तत्र तेषु शयानेषु हिडिम्बो नाम राक्षसः। अविदूरे वनात्तस्माच्छालवृक्षं समाश्रितः।। | 1-164-1a 1-164-1b |
क्रूरो मानुषमांसादो महावीर्यपराक्रमः। प्रावृड्जलधरश्यामः पिङ्गाक्षो दारुणाकृतिः।। | 1-164-2a 1-164-2b |
दष्ट्राकरालवदनः करालो भीमदर्शनः। लम्बस्फिग्लम्बजठरो रक्तश्मश्रुशिरोरुहः।। | 1-164-3a 1-164-3b |
महावृक्षगलस्कन्धः शङ्कर्णो विभीषणः। यदृच्छया तानपश्यत्पाण्डुपुत्रान्महारथान्।। | 1-164-4a 1-164-4b |
विरूपरूपः पिङ्गाक्षः करालो घोरदर्शनः। पिशितेप्सुः क्षुधार्तश्च जिघ्रन्गन्धं यदृच्छया।। | 1-164-5a 1-164-5b |
ऊर्ध्वाङ्गुलिः स कण्डूयन्धुन्वन्रूक्षाञ्शिरोरुहान्। जृम्भमाणो महावक्त्रः पुनःपुनरवेक्ष्य च।। | 1-164-6a 1-164-6b |
हृष्टो मानुषमांसस्य महाकायो महाबलः। आघ्राय मानुषं गन्धं भगिनीमिदमब्रवीत्।। | 1-164-7a 1-164-7b |
उपपन्नं चिरस्याद्य भक्ष्यं मम मनःप्रियम्। जिघ्रतः प्रस्रुता स्नेहाज्जिह्वा पर्येति मे मुखात्।। | 1-164-8a 1-164-8b |
अष्टौ दंष्ट्राः सुतीक्ष्णाग्राश्चिरस्यापातदुःसहाः। देहेषु मज्जयिष्यामि स्निग्धेषु पिशितेषु च।। | 1-164-9a 1-164-9b |
आक्रम्य मानुषं कण्ठमाच्छिद्य धमनीमपि। उष्णं नवं प्रपास्यामि फेनलिं रुधिरं बहु।। | 1-164-10a 1-164-10b |
गच्छ जानीहि के त्वेते शेरते वनमाश्रिताः। मानुषो बलवान्गन्धो घ्राणं तर्पयतीव मे।। | 1-164-11a 1-164-11b |
हत्वैतान्मानुषान्सर्वानानयस्व ममान्तिकम्। अस्मद्विषयसुप्तेभ्यो नैतेभ्यो भयमस्ति ते।। | 1-164-12a 1-164-12b |
एषामुत्कृत्य मांसानि मानुषाणां यथेष्टतः। भक्षयिष्याव सहितौ कुरु पूर्णं वचो मम।। | 1-164-13a 1-164-13b |
भक्षयित्वा च मांसानि मानुषाणां प्रकामतः। नृत्याव सहितावावां दत्ततालावनेकशः।। | 1-164-14a 1-164-14b |
वैशंपायन उवाच। | 1-164-15x |
एवमुक्ता हिडिम्बा तु हिडिम्बेन महावने। भ्रातुर्वचनमाज्ञाय त्वरमाणेव राक्षसी।। | 1-164-15a 1-164-15b |
`आप्लुत्याप्लुत्य च तरूनगच्छत्पाण्डवान्प्रति।' जगाम तत्र यत्र स्म शेरते पाण्डवा वने।। | 1-164-16a 1-164-16b |
ददर्श तत्र सा गत्वा पाण्डवान्पृथया सह। शयानान्भीमसेनं च जाग्रतं त्वपराजितम्।। | 1-164-17a 1-164-17b |
`उपास्यमानान्भीमेन रूपयौवनशालिनः। सुकुमारांश्च पार्थान्सा व्यायामेन च कर्शितान्।। | 1-164-18a 1-164-18b |
दुःखेन संप्रयुक्तांश्च सहज्येष्ठान्प्रमाथिनः। रौद्री सती राजपुत्रं दर्शनीयप्रदर्शनम्।।' | 1-164-19a 1-164-19b |
दृष्ट्वैव भीमसेनं सा सालस्कन्धमिवोद्यतम्। राक्षसी कामयामास रूपेणाप्रतिमं भुवि।। | 1-164-20a 1-164-20b |
`अन्तर्गतेन मनसा चिन्तयामास राक्षसी'। अयं श्यामो महाबाहुः सिंहस्कन्धो महाद्युतिः।। | 1-164-21a 1-164-21b |
कम्बुग्रीवः पुष्कराक्षो भर्ता युक्तो भवेन्मम। नाहं भ्रातृवचो जातु कुर्यां क्रूरमसांप्रतम्।। | 1-164-22a 1-164-22b |
पतिस्नेहोऽतिबलवान्न तथा भ्रातृसौहृदम्। मुहूर्तमिव तृप्तिश्च भवेद्धातुर्ममैव च।। | 1-164-23a 1-164-23b |
हतैरेतैरहत्वा तु मोदिष्ये शाश्वतीः समाः। `निश्चित्येत्थं हिडिम्बा सा भीमं दृष्ट्वा महाभुजं।। | 1-164-24a 1-164-24b |
उत्सृज्य राक्षसं रूपं मानुषं रूपमास्थिता।' सा कामरूपिणी रूपं कृत्वा मदनमोहिता।। | 1-164-25a 1-164-25b |
उपतस्थे महात्मानं भीमसेनमनिन्दिता। `इङ्गिताकारकुशला सोपासर्पच्छनैः शनैः।। | 1-164-26a 1-164-26b |
विनम्यमानेव लता दिव्याभरणभूषिता। शनैः शनैश्च तां भीमः समीपमुपसर्पतीम्।। | 1-164-27a 1-164-27b |
हर्षमाणां तदा पश्यत्तन्वीं पीनपयोधराम्। चन्द्राननां पद्मनेत्रां नीलकुञ्चितमूर्धजाम्।। | 1-164-28a 1-164-28b |
कृष्णां सुपाण्डुरैर्दन्तैर्बिम्बोष्ठीं चारुदर्शनाम्। दृष्ट्वा तां रूपसंपन्नां भीमो विस्मयमागतः।। | 1-164-29a 1-164-29b |
उपचारगुणैर्युक्तां ललितैर्हाससंमितैः। समीपमुपसंप्राप्य भीमं साथ वरानता।। | 1-164-30a 1-164-30b |
वचो वचनवेलायां भीमं प्रोवाच भामिनी।' लज्जया नम्यमानेव सर्वाभरणभूषिता।। | 1-164-31a 1-164-31b |
स्मितपूर्वमिदं वाक्यं भीमसेनमथाब्रवीत्। कुतस्त्वमसि संप्राप्तः कश्चासि पुरुषर्षभ।। | 1-164-32a 1-164-32b |
क इमे शेरते चेह पुरुषा देवरूपिणः। केयं वै बृहती श्यामा सुकुमारी तवानघ।। | 1-164-33a 1-164-33b |
शेते वनमिदं प्राप्य विश्वस्ता स्वगृहे यथा। नेदं जानीथ गहनं वनं राक्षससेवितम्।। | 1-164-34a 1-164-34b |
वसति ह्यत्र पापात्मा हिडिम्बो नाम राक्षसः।। | 1-164-35a |
तेनाहं प्रेषिता भ्रात्रा दुष्टभावेन रक्षसा। बिभक्षयिषता मांसं युष्माकममरोपमाः।। | 1-164-36a 1-164-36b |
साऽहं त्वमभिसंप्रेक्ष्य देवगर्भसमप्रभम्। नान्यं भर्तारमिच्छामि सत्यमेतद्ब्रवीमि ते।। | 1-164-37a 1-164-37b |
एतद्विज्ञाय धर्मज्ञ युक्तं मयि समाचर। कामोपहतचित्तां हि भजमानां भजस्व माम्।। | 1-164-38a 1-164-38b |
त्रास्यामि त्वां महाबाहो राक्षसात्पुरुषादकात्। वत्स्यावो गिरिदुर्गेषु भर्ता भव ममानघ।। | 1-164-39a 1-164-39b |
`इच्छामि वीर भद्रं ते मा मे प्राणान्विहासिषः। त्वया ह्यहं परित्यक्ता न जीवेयमरिन्दम।।' | 1-164-40a 1-164-40b |
अन्तरिक्षचरी ह्यस्मि कामतो विचरामि च। अतुलामाप्नुहि प्रीतिं तत्र तत्र मया सह।। | 1-164-41a 1-164-41b |
भीमसेन उवाच। | 1-164-42x |
`एष ज्येष्ठो मम भ्राता मान्यः परमको गुरुः। अनिविष्टो हि तन्नाहं परिविद्यां कथंचन।।' | 1-164-42a 1-164-42b |
मातरं भ्रातरं ज्येष्ठं कनिष्ठानपरानपि। परित्यजेत कोन्वद्य प्रभवन्निह राक्षसि।। | 1-164-43a 1-164-43b |
को हि सुप्तानिमान्भ्रातॄन्दत्त्वा राक्षसभोजनम्। मातरं च नरो गच्छेत्कामार्त इव मद्विधः।। | 1-164-44a 1-164-44b |
राक्षस्युवाच। | 1-164-45x |
`एकं त्वां मोक्षयिष्यामि सह मात्रा परन्तप। सोदरानुत्सृजैनांस्त्वमारोह जघनं मम।। | 1-164-45a 1-164-45b |
भीम उवाच। | 1-164-46x |
नाहं जीवितुमाशंसे भ्रातॄनुत्सृज्य राक्षसि। यथाश्रद्धं व्रजैका हि विप्रियं मे प्रभाषसे।। | 1-164-46a 1-164-46b |
राक्षस्युवाच।' | 1-164-47x |
यत्ते प्रियं तत्करिष्ये सर्वानेतान्प्रबोधय। मोक्षयिष्याम्यहं कामं राक्षसात्पुरुषादकात्।। | 1-164-47a 1-164-47b |
भीमसेन उवाच। | 1-164-48x |
सुखसुप्तान्वने भ्रातॄन्मातरं चैव राक्षसि। न भयाद्बोधयिष्यामि भ्रातुस्तव दुरात्मनः।। | 1-164-48a 1-164-48b |
न हि मे राक्षसा भीरु सोढुं शक्ताः पराक्रमम्। न मनुष्या न गन्धर्वा न यक्षाश्चारुलोचने।। | 1-164-49a 1-164-49b |
गच्छ वा तिष्ठ वा भद्रे यद्वा पीच्छसि तत्कुरु। तं वा प्रेषय तन्वङ्गि भ्रातरं पुरुषादकम्।। | 1-164-50a 1-164-50b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि हिडिम्बवधपर्वणि चतुःषष्ट्यधिकशततमोऽध्यायः।। 164 ।। |
1-164-4 यदृच्छया सालवृक्षं समाश्रित इत्यन्वयः।। 1-164-10 धमनीं नाडीम्।। 1-164-21 श्यामः तरुणः।। 1-164-36 बिभक्षयिषता भक्षयितुमिच्छता।। चतुःषष्ट्यधिकशततमोऽध्यायः।। 164 ।।
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