महाभारतम्-01-आदिपर्व-223
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पाण्डवाः संविभाज्या इति द्रोणवचनम्।। 1 ।।
तद्विरोधितया कर्णेन अम्बुवीचवृत्तान्तकथनम्।। 2 ।।
मदुक्तं न क्रियते चेत्कुरवो विनङ्क्ष्यन्तीति द्रोणेनोक्तिः।। 3 ।।
द्रोण उवाच। | 1-223-1x |
मन्त्राय समुपानीतैर्धृतराष्ट्र हितैर्नृप। धर्म्यमर्थ्यं यशस्यं च वाच्यमित्यनुशुश्रुम।। | 1-223-1a 1-223-1b |
ममाप्येषा मतिस्तात या भीष्मस्य महात्मनः। संविभज्यास्तु कौन्तेया धर्म एष सनातनः।। | 1-223-2a 1-223-2b |
प्रेष्यतां द्रुपदायाशु नऱः कश्चित्प्रियंवदः। बहुलं रत्नमादाय तेषामर्थाय भारत।। | 1-223-3a 1-223-3b |
मिथः कृत्यं च तस्मै स आदाय वसु गच्छतु। वृद्धिं च परमां ब्रूयात्तत्संयोगोद्भवां तथा।। | 1-223-4a 1-223-4b |
संप्रीयमाणं त्वां ब्रूयाद्राजन्दुर्योधनं तथा। असकृद्द्रुपदे चैव धृष्टद्युम्ने च भारत।। | 1-223-5a 1-223-5b |
उचितत्वं प्रियत्वं च योगस्यापि च वर्णयेत्। पुनःपुनश्च कौन्येयान्माद्रीपुत्रौ च सान्त्वयन्।। | 1-223-6a 1-223-6b |
हिरण्मयानि शुभ्राणि बहून्याभरणानि च। वचनात्तव राजेन्द्र द्रौपद्याः संप्रयच्छतु।। | 1-223-7a 1-223-7b |
तथा द्रुपदपुत्राणां सर्वेषां भरतर्षभ। पाण्डवानां च सर्वेषां कुन्त्या युक्तानि यानि च।। | 1-223-8a 1-223-8b |
`दत्त्वा तानि महार्हाणि पाण्डवान्संप्रहर्षय।' एवं सान्त्वसमायुक्तं द्रुपदं पाण्डवैः सह। उक्त्वा सोऽनन्तरं ब्रूयात्तेषामागमनं प्रति।। | 1-223-9a 1-223-9b 1-223-9c |
अनुज्ञातेषु वीरेषु बलं गच्छतु शोभनम्। दुःशासनो विकर्णश्चाप्यानेतुं पाण्डवानिह।। | 1-223-10a 1-223-10b |
ततस्ते पाण्डवाः श्रेष्ठाः पूज्यमानाः सदा त्वया। प्रकृतीनामनुमते पदे स्थास्यन्ति पैतृके।। | 1-223-11a 1-223-11b |
एतत्तव महाराज तेषु पुत्रेषु चैव हि। वृत्तमौपयिकं मन्ये भीष्मेण सह भारत।। | 1-223-12a 1-223-12b |
कर्ण उवाच। | 1-223-13x |
योजितावर्थमानाभ्यां सर्वकार्येष्वनन्तरौ। न मन्त्रयेतां त्वच्छ्रेयः किमद्भुततरं ततः।। | 1-223-13a 1-223-13b |
दुष्टेन मनसा यो वै प्रच्छन्नेनान्तरात्मना। ब्रूयान्नि)श्रेयसं नाम कथं कुर्यात्सतां मतम्।। | 1-223-14a 1-223-14b |
न मित्राण्यर्थकृच्छ्रेषु श्रेयसे चेतराय वा। विधिपूर्वं हि सर्वस्य दुःखं वा यदि वा सुखम्।। | 1-223-15a 1-223-15b |
कृतप्रज्ञोऽकृतप्रज्ञो बालो वृद्धश्च मानवः। ससहायोऽसहायश्च सर्वं सर्वत्र विन्दति।। | 1-223-16a 1-223-16b |
श्रूयते हि पुरा कश्चिदम्बुवीच इतीश्वरः। आसीद्राजगृहे राजा मागधानां महीक्षिताम्।। | 1-223-17a 1-223-17b |
स हीनः करणैः सर्वैरुच्छ्वासपरमो नृपः। अमात्यसंस्थः सर्वेषु कार्येष्वेवाभवत्तदा।। | 1-223-18a 1-223-18b |
तस्यामात्यो महाकर्णिर्बभूवैकेश्वरस्तदा। स लब्धबलमात्मानं मन्यमानोऽवमन्यते।। | 1-223-19a 1-223-19b |
स राज्ञ उपभोग्यानि स्त्रियो रत्नधनानि च। आददे सर्वशो मूढ ऐश्वर्यं च स्वयं तदा।। | 1-223-20a 1-223-20b |
तदादाय च लुब्धस्य लोभाल्लोभोऽभ्यवर्धत। तथाहि सर्वमादाय राज्यमस्य जिहीर्षति।। | 1-223-21a 1-223-21b |
हीनस्य करणैः सर्वैरच्छ्वासपरमस्य च। यतमानोऽपि तद्राज्यं न शशाकेति नः श्रुतं।। | 1-223-22a 1-223-22b |
किमन्यद्विहिता नूनं तस्य सा पुरुषेन्द्रता। यदि ते विहितं राज्यं भविष्यति विशांपते।। | 1-223-23a 1-223-23b |
मिषतः सर्वलोकस्य स्थास्यते त्वयि तद्धुवम्। अतोऽन्यथा चेद्विहितं यतमानो न लप्स्यसे।। | 1-223-24a 1-223-24b |
एवं विद्वन्नुपादत्स्व मन्त्रिणां साध्वसाधुताम्। दुष्टानां चैव बोद्धव्यमदुष्टानां च भाषितम्।। | 1-223-25a 1-223-25b |
द्रोण उवाच। | 1-223-26x |
विद्म ते भावदोषेण यदर्थमिदमुच्यते। दुष्ट पाण्डवहेतोस्त्वं दोषमाख्यापयस्युत।। | 1-223-26a 1-223-26b |
हितं तु परमं कर्ण ब्रवीमि कुलवर्धनम्। अथ त्वं मन्यसे दुष्टं ब्रूहि यत्परमं हितम्।। | 1-223-27a 1-223-27b |
अतोऽन्यथा चेत्क्रियते यद्ब्रवीमि परं हितम्। कुरवो वै विनङ्क्ष्यन्ति नचिरेणैव मे मतिः।। | 1-223-28a 1-223-28b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि विदुरागमनराज्यलाभपर्वणि त्रयोविंशत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 223 ।। |
1-223-4 मिथः कृत्यं सांबन्धिकं वरपक्षीयैर्वध्वलंकारादिकन्यापक्षीयैर्वरालंकारादि।। 1-223-15 विधिपूर्वं अधृष्टकारणकम्।। 1-223-17 अम्बुवीर इति श्रुतः इति घ. पाठः। विनिन्द इति वितश्रुः इति ङ पाठः। ईश्वरः समर्थः। राजगृहे तन्नामके नगरे।। त्रयोविंशत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 223 ।।
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