महाभारतम्-01-आदिपर्व-245
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कृष्णेन बलरामसान्त्वनम्।। 1 ।।
अर्जुनंप्रत्यानेतुं यादवानां गमनम्।। 2 ।।
विपृथुवाक्यादुर्जनं दूरगतं ज्ञात्वा तेषां प्रतिनिवर्तनम्।। 3 ।।
सुभद्रया सह अर्जुनस्य खाण्डवप्रस्थगमनम्।। 4 ।।
वैशंपायन उवाच। | 1-245-1x |
उक्तवन्तो यथावीर्यमसकृत्सर्ववृष्णयः। ततोऽब्रवीद्वासुदेवो वाक्यं धर्मार्थसंयुतम्।। | 1-245-1a 1-245-1b |
`मयोक्तं न श्रुतं पूर्वं सहितैः सर्वयादवैः। अतिक्रान्तमतिक्रान्तं न निवर्तेत कर्हिचित्। शृणुध्वं सहिताः सर्वे मम वाक्यं सहेतुकम्।।' | 1-245-2a 1-245-2b 1-245-2c |
नावमानं कुलस्यास्य गुडाकेशः प्रयुक्तवान्। संमानोऽभ्यधिकस्तेन प्रयुक्तोऽयं न संशयः।। | 1-245-3a 1-245-3b |
अर्थलुब्धान्न वः पार्थो मन्यते सात्वतान्सदा। स्वयंवरमनाधृष्यं मन्यते चापि पाण्डवः।। | 1-245-4a 1-245-4b |
प्रदानमपि कन्यायाः पशुवत्को नु मन्यते। विक्रयं चाप्यपत्यस्य कः कुर्यात्पुरुषो भुवि।। | 1-245-5a 1-245-5b |
एतान्दोषांस्तु कौन्तेयो दृष्टवानिति मे मतिः। `क्षत्रियाणां तु वीर्येण प्रशस्तं हरणं बलात्।' अतः प्रसह्य हृतवान्कन्यां धर्मेण पाण्डवः।। | 1-245-6a 1-245-6b 1-245-6c |
उचितश्चैव संबन्धः सुभद्रा च शयस्विनी। एष चापीदृशः पार्थः प्रसह्य हृतवानतः।। | 1-245-7a 1-245-7b |
भरतस्यान्वये जातं शान्तनोश्च यशस्विनः। कुन्तिभोजात्माजापुत्रं का बुभूषेत नार्जुनम्।। | 1-245-8a 1-245-8b |
न तं पश्यामि यः पार्थं विजयेत रणे बलात्। वर्जयित्वा विरूपाक्षं भगनेत्रहरं हरम्।। | 1-245-9a 1-245-9b |
अपि सर्वेषु लोकेषु सेन्द्ररुद्रेषु मारिष। स च नाम रथस्तादृङ्मदीयास्ते च वाजिनः।। | 1-245-10a 1-245-10b |
`मम शस्त्रं विशेषेण तूणौ चाक्षयसायकौ।' योद्धा पार्थश्च शीघ्रास्त्रः को नु तेन समो भवेत्। तमभिद्रुत्य सान्त्वेन परमेण धनञ्जयम्।। | 1-245-11a 1-245-11b 1-245-11c |
निवर्तयत संहृष्टा ममैषा परमा मतिः। यदि निर्जित्य वः पार्थो बलाद्गच्छेत्स्वकं पुरं।। | 1-245-12a 1-245-12b |
प्रणश्येद्वो यशः सद्यो न तु सान्त्वे पराजयः। `पितृष्वसायाः पुत्रो मे संबन्धं नार्हति द्विषाम्।' तच्छ्रुत्वा वासुदेवस्य तथा कर्तुं जनाधिप।। | 1-245-13a 1-245-13b 1-245-13c |
`उद्योगं कृतवन्तस्ते भेरीं सन्नाद्य यादवाः। अर्जुनस्तु तदा श्रुत्वा भेरीसन्नादनं महत्।। | 1-245-14a 1-245-14b |
कौन्तेयस्त्वरमाणस्तु सुभद्रामभ्यभाषत। आयान्ति वृष्णयः सर्वे ससुहृज्जनबान्धवाः।। | 1-245-15a 1-245-15b |
त्वदर्थं योद्धुकामास्ते मदरक्तान्तलोचनाः। प्रमत्तानशुचीन्मूढान्सुरामत्तान्नराधमान्।। | 1-245-16a 1-245-16b |
वमनं पानशीलांस्तान्करिष्यामि शरोत्तमैः। उताहो वा मदोन्मत्तान्नयिष्यामि यमक्षयम्।। | 1-245-17a 1-245-17b |
एवमुक्त्वा प्रियां पार्थो न्यवर्तत महाबलः। निवर्तमानं दृष्ट्वैव सुभद्रा त्रस्ततां गता।। | 1-245-18a 1-245-18b |
एवं मा वद पार्थेति पादयोः पतिता तदा। सुभद्रा तु कलिर्जाता वृष्णीनां निधाय च।। | 1-245-19a 1-245-19b |
एवं ब्रुवन्तः पौरास्ते ह्यपवादरताः प्रभो। मम शोकं वर्धयन्ति तस्मान्नाशं न चिन्तये। परिवादभयान्मुक्ता त्वत्प्रसादाद्भवाम्यहम्।। | 1-245-20a 1-245-20b 1-245-20c |
वैशंपायन उवाच। | 1-245-21x |
एवमुक्तस्ततः पार्थः प्रियया भद्रया तदा। गमनाय मतिं चक्रे पार्थः सत्यपराक्रमः।। | 1-245-21a 1-245-21b |
स्तितपूर्वं तदाऽऽभाष्य परिष्वज्य प्रियां तदा। उत्थाप्य च पुनः पार्थो याहि याहीति चाब्रवीत्।। | 1-245-22a 1-245-22b |
ततः सुभद्रा त्वरिता रश्मीन्संगृह्य पाणिना। चोदयामास जवनाञ्शीग्रमश्वान्कृतत्वरा।। | 1-245-23a 1-245-23b |
ततस्तु कृतसन्नाहा वृष्णिवीराः समाहिताः। प्रत्यानयार्थं पार्थस्य जवनैस्तुरगोत्तमैः।। | 1-245-24a 1-245-24b |
राजमार्गमनुप्राप्ता दृष्ट्वा पार्थस्य विक्रमम्। प्रासादपङ्क्तिस्तम्भेषु वेदिकासु ध्वजेषु च।। | 1-245-25a 1-245-25b |
अर्जुनस्य शरान्दृष्ट्वा विस्मयं परमं गताः। केशवस्य वचस्तथ्यं मन्यमानास्तु यादवाः।। | 1-245-26a 1-245-26b |
अतीत्य तं रैवतकं श्रुत्वा तु विपृथोर्वचः। अर्जुनेन कृतं श्रुत्वा गन्तुकामास्तु वृष्णयः।। | 1-245-27a 1-245-27b |
श्रुत्वा दीर्घं गतं पार्थं न्यवर्तन्त महारथाः। पुरोद्यानमतिक्रम्य विशालं च गिरिव्रजम्।। | 1-245-28a 1-245-28b |
सानुमुज्जयिनीं चैव वनान्युपवनानि च। पुण्येष्वानर्तराष्ट्रेषु वापीपद्मसरांसि च।। | 1-245-29a 1-245-29b |
प्राप्य धेनुमतीतीर्थमश्वरोधसरः प्रति। प्रेक्षावर्तं ततः शैलमम्बुदं च नगोत्तमम्।। | 1-245-30a 1-245-30b |
आराच्छृङ्गमथासाद्य तीर्णः करवतीं नदीम्। प्राप्य साल्वेयराष्ट्राणि निषधानप्यतीत्य च।। | 1-245-31a 1-245-31b |
देवापृथुपुरं पश्यन् सर्वतः सुसमाहितः। तमतीत्य महाबाहुर्देवारण्यमपश्यत।। | 1-245-32a 1-245-32b |
पूजयामासुरायान्तं देवारण्ये महर्षयः। स वनानि नदीः शैलान् गिरिप्रस्रवणानि च।। | 1-245-33a 1-245-33b |
अतीत्य च तदा पार्थः सुभद्रासारथिस्तदा। कौरवं विषयं प्राप्य विशोकः समपद्यत।। | 1-245-34a 1-245-34b |
सोदर्याणां महाबाहुः सिंहाशयमिवाशयम्। दूरादुपवनोपेतं समन्तात्सलिलावृतम्।। | 1-245-35a 1-245-35b |
भद्रया मुदितो जिष्णुर्ददर्श वृजिनं पुरम्।। | 1-245-36a |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि हरणाहरणपर्वणि पञ्चत्वारिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 245 ।। |
1-245-20 तस्मात्पापं न चिन्तये।।
पञ्चत्वारिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 245 ।।
आदिपर्व-244 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आदिपर्व-246 |