महाभारतम्-01-आदिपर्व-124
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किन्दमशापात्खिन्नस्य पाण्डोः पत्नीभ्यां वने वासः।। 1 ।।
पाण्डोः शतशृङ्गे तपश्चरणम्।। 2 ।।
वैशंपायन उवाच। | 1-124-1x |
तं व्यतीतमुपक्रम्य राजा स्वमिव बान्धवम्। सभार्यः शोकदुःखार्तः पर्यदेवयदातुरः।। | 1-124-1a 1-124-1b |
पाण्डुरुवाच। | 1-124-2x |
सतामपि कुले जाताः कर्मणा बत दुर्गतिम्। प्राप्नुवन्त्यकृतात्मानः कामजालविमोहिताः।। | 1-124-2a 1-124-2b |
शश्वद्धर्मात्मना जातो बाल एव पिता मम। जीवितान्तमनुप्राप्तः कामात्मैवेति नः श्रुतम्।। | 1-124-3a 1-124-3b |
तस्य कामात्मनः क्षेत्रे राज्ञः संयतवागृषिः। कृष्णद्वैपायनः साक्षाद्भगवान्मामजीजनत्।। | 1-124-4a 1-124-4b |
तस्याद्य व्यसने बुद्धिः संजातेयं ममाधमा। त्यक्तस्य देवैरनयान्मृगयां परिधावतः।। | 1-124-5a 1-124-5b |
मोक्षमेव व्यवस्यामि बन्धो हि व्यसनं महत्। सुवृत्तिमनुवर्तिष्ये तामहं पितुरव्ययाम्।। | 1-124-6a 1-124-6b |
अतीव तपसात्मानं योजयिष्याम्यसंशयम्। तस्मादेकाहमेकाहमेकैकस्मिन्वनस्पतौ।। | 1-124-7a 1-124-7b |
चरन्भैक्षं मुनिर्मुण्डश्चरिष्याम्याश्रमानिमान्। पांसुना समवच्छन्नः शून्यागारकृतालयः।। | 1-124-8a 1-124-8b |
वृक्षमूलनिकेतो वा त्यक्तसर्वप्रियाप्रियः। न शोचन्न प्रहृष्यंश्च तुल्यनिन्दात्मसंस्तुतिः।। | 1-124-9a 1-124-9b |
निराशीर्निर्नमस्कारो निर्द्वन्द्वो निष्परिग्रहः। न चाप्यवहसन्कंचिन्न कुर्वन्भ्रुकुटीं क्वचित्।। | 1-124-10a 1-124-10b |
प्रसन्नवदनो नित्यं सर्वभूतहिते रतः। जङ्गमाजङ्गमं सर्वमविहिंसंश्चतुर्विधम्।। | 1-124-11a 1-124-11b |
स्वासु प्रजास्विव सदा समः प्राणभृतः प्रति। एककालं चरन्भैक्षं कुलानि दश पञ्च च।। | 1-124-12a 1-124-12b |
असंभवे वा भैक्षस्य चरन्ननशनान्यपि। अल्पमल्पं च भुञ्जानः पूर्वालाभे न जातुचित्।। | 1-124-13a 1-124-13b |
अन्यान्यपि चरँल्लोभादलाभे सप्त पूरयन्। अलाभे यदि वा लाभे समदर्शी महातपाः।। | 1-124-14a 1-124-14b |
वास्यैकं तक्षतो बाहुं चन्दनेनैकमुक्षतः। नाकल्याणं न कल्याणं चिन्तयन्नुभयोस्तयोः।। | 1-124-15a 1-124-15b |
न जिजीविषुवत्किंचिन्न मुमूर्षुवदाचरन्। जीवितं मरणं चैव नाभिन्दन्न च द्विषन्।। | 1-124-16a 1-124-16b |
याः काश्चिज्जीवता शक्याः कर्तुमभ्युदयक्रियाः। ताः सर्वाः समतिक्रम्य निमेषादिव्यवस्थितः।। | 1-124-17a 1-124-17b |
तासु चाप्यनवस्थासु त्यक्तसर्वेन्द्रियक्रियः। संपरित्यक्तधर्मार्थः सुनिर्णिक्तात्मकल्मषः।। | 1-124-18a 1-124-18b |
निर्मुक्तः सर्वपापेभ्यो व्यतीतः सर्ववागुराः। न वशे कस्यचित्तिष्ठन्सधर्मा मातरिश्वनः।। | 1-124-19a 1-124-19b |
एतया सततं वृत्त्या चरन्नेवंप्रकारया। देहं संस्थापयिष्यामि निर्भयं मार्गमास्थितः।। | 1-124-20a 1-124-20b |
नाहं सुकृपणे मार्गे स्ववीर्यक्षयशोचिते। स्वधर्मात्सततापेते चरेयं वीर्यवर्जितः।। | 1-124-21a 1-124-21b |
सत्कृतोऽसत्कृतो वाऽपि योऽन्यां कृपणचक्षुषा। उपैति वृत्तिं कामात्मा स शुनां वर्तते पथि।। | 1-124-22a 1-124-22b |
वैशंपायन उवाच। | 1-124-23x |
एवमुक्त्वा सुदुःखार्तो निःश्वासपरमो नृपः। अवेक्षमाणः कुन्तीं च मान्द्रीं च समभाषत।। | 1-124-23a 1-124-23b |
कौसल्या विदुरः क्षत्ता राजा च सह बन्धुभिः। आर्या सत्यवती भीष्मस्ते च राजपुरोहिताः।। | 1-124-24a 1-124-24b |
ब्राह्मणाश्च महात्मानः सोमपाः संशितव्रताः। पौरवृद्धाश्च ये तत्र निवसन्त्यस्मदाश्रयाः। प्रसाद्य सर्वे वक्तव्याः पाण्डुः प्रव्राजितो वने।। | 1-124-25a 1-124-25b 1-124-25c |
निशम्य वचनं भर्तुस्त्यागधर्मकृतात्मनः। तत्समं वचनं कुन्ती माद्री च समभाषताम्।। | 1-124-26a 1-124-26b |
अन्येऽपि ह्याश्रमाः सन्ति ये शक्या भरतर्षभ। `आवाभ्यां सह वस्तुं वै धर्ममाश्रित्य चिन्त्यताम्।' आवाभ्यां धर्मपत्नीभ्यां सह तप्तुं तपो महत्।। | 1-124-27a 1-124-27b 1-124-27c |
शरीरस्यापि मोक्षाय धर्मं प्राप्य महाफलम्। त्वमेव भविता भर्ता स्वर्गस्यापि न संशयः।। | 1-124-28a 1-124-28b |
प्रणिधायेन्द्रियग्रामं भर्तृलोकपरायणे। त्यक्त्वा कामसुखे ह्यावां तप्स्यवो विपुलं तपः।। | 1-124-29a 1-124-29b |
यदि चावां महाप्राज्ञ त्यक्ष्यसि त्वं विशांपते। अद्यैवावां प्रहास्यावो जीवितं नात्र संशयः।। | 1-124-30a 1-124-30b |
पाण्डुरुवाच। | 1-124-31x |
यदि व्यवसितं ह्येतद्युवयोर्धर्मसंहितम्। स्ववृत्तिमनुवर्तिष्ये तामहं पितुरव्ययाम्।। | 1-124-31a 1-124-31b |
त्यक्त्वा ग्राम्यसुखाहारं तप्यमानो महत्तपः। वल्कली फलमूलाशी चरिष्यामि महावने।। | 1-124-32a 1-124-32b |
अग्नौ जुह्वन्नुभौ कालावुभौ कालावुपस्पृशन्। कृशः परिमिताहारश्चीरचर्मजटाधरः।। | 1-124-33a 1-124-33b |
शीतवातातपसहः क्षुत्पिपासानवेक्षकः। तपसा दुश्चरेणेदं शरीरमुपशोषयन्।। | 1-124-34a 1-124-34b |
एकान्तशीली विमृशन्पक्वापक्वेन वर्तयन्। पितृन्देवांश्च वन्येन वाग्भिरद्भिश्च तर्पयन्।। | 1-124-35a 1-124-35b |
वानप्रस्थजनस्यापि दर्शनं कुलवासिनः। नाप्रियाण्याचरिष्यामि किं पुनर्ग्रामवासिनाम्।। | 1-124-36a 1-124-36b |
एवमारण्यशास्त्राणामुग्रमुग्रतरं विधिम्। काङ्क्षमाणोऽहमास्थास्ये देहस्यास्याऽऽसमापनात्।। | 1-124-37a 1-124-37b |
वैशंपायन उवाच। | 1-124-38x |
इत्येवमुक्त्वा भार्ये ते राजा कौरवनन्दनः। ततश्चूडामणिं निष्कमङ्गदे कुण्डलानि च।। | 1-124-38a 1-124-38b |
वासांसि च महार्हाणि स्त्रीणामाभरणानि च। `वाहनानि च मुख्यानि शस्त्राणि कवचानि च।। | 1-124-39a 1-124-39b |
हेमभाण्डानि दिव्यानि पर्यङ्कास्तरणानि च। मणिमुक्ताप्रवालानि रत्नानि विविधानि च।।' | 1-124-40a 1-124-40b |
प्रदाय सर्वं विप्रेभ्यः पाण्डुर्भृत्यानभाषत। गत्वा नागपुरं वाच्यं पाण्डुः प्रव्राजितो वने। अर्थं कामं सुखं चैव रतिं च परमात्मिकाम्।। | 1-124-41a 1-124-41b 1-124-41c |
प्रतस्थे सर्वमुत्सृज्य सभार्यः कुरुनन्दनः। ततस्तस्यानुयातारस्ते चैव परिचारकाः।। | 1-124-42a 1-124-42b |
श्रुत्वा भरतसिंहस्य विधिधाः करुणा गिरः। भममार्तस्वरं कृत्वा हाहेति परिचुक्रुशुः।। | 1-124-43a 1-124-43b |
उष्णमश्रु विमुञ्चन्तस्तं विहाय महीपतिम्। ययुर्नागपुरं तूर्णं सर्वमादाय तद्धनम्।। | 1-124-44a 1-124-44b |
ते गत्वा नगरं राज्ञो यथावृत्तं महात्मनः। कथयांचक्रिरे राज्ञस्तद्धनं विविधं ददुः।। | 1-124-45a 1-124-45b |
श्रुत्वा तेभ्यस्ततः सर्वं यथावृत्तं महावने। धृतराष्ट्रो नरश्रेष्ठः पाण्डुमेवान्वशोचत।। | 1-124-46a 1-124-46b |
न शय्यासनभोगेषु रतिं विन्दति कर्हिचित्। भ्रातृशोकसमाविष्टस्तमेवार्थं विचिन्तयन्।। | 1-124-47a 1-124-47b |
राजपुत्रस्तु कौरव्य पाण्डुर्मूलफलाशनः। जगाम सह पत्नीभ्यां ततो नागशतं गिरिम्।। | 1-124-48a 1-124-48b |
स चैत्ररथमासाद्य कालकूटमतीत्य च। हिमवन्तमतिक्रम्य प्रययौ गन्धमादनम्।। | 1-124-49a 1-124-49b |
रक्ष्यमाणो महाभूतैः सिद्धैश्च परमर्षिभिः। उवास स महाराज समेषु विषमेषु च।। | 1-124-50a 1-124-50b |
इन्द्रद्युम्नसरः प्राप्य हंसकूटमतीत्य च। शतशृङ्गे महाराज तापसः समतप्यत।। | 1-124-51a 1-124-51b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि संभवपर्वणि चतुर्विंशत्यधिकशततमोऽध्यायः।। 124 ।। |
1-124-1 व्यतीतं मारितम्।। 1-124-5 देवैस्त्यक्तस्य अपुत्रतया स्वर्गमनानर्हत्वात्।। 1-124-6 मोक्षं मोक्षमार्गं व्यवस्यामि निश्चिनोमि श्रेयस्करत्वेन। तत्र हि पुत्राद्यनपेक्षा दृष्टा। इष्टमेवैतज्जातमित्याह बन्धो हीति। बन्धः पुत्रैषणादिः। सुवृत्तिं ब्रह्मचर्याख्यां वृत्तिम्। पितुर्व्यासस्य।। 1-124-10 निराशीर्निर्नमस्कारः। आशिषं नमस्कारं वा नेच्छामीत्यर्थः। निर्द्वन्द्वः सुखदुःखादिहीनः। निष्परिग्रहः कन्थापादुकादिहीनः।। 1-124-11 चतुर्विधं जरायुजादिकम्।। 1-124-12 कुलानि गृहाणि।। 1-124-15 वास्या वास्येन काष्ठतक्षणेन।। 1-124-17 अभ्युदयक्रियाः इष्टसाधनक्रियाः। निमेषादिव्यवस्थितः जीवनसाधनकर्मसु व्यवस्थितः।। 1-124-18 अनवस्थासु प्रवाहरूपासु तासु जीवनसाधनक्रियासु।। 1-124-20 संस्थापयिष्यामि नाशयिष्यामि। निर्भयं मार्गं संसारभयरहितम्।। 1-124-25 प्रव्राजितः संन्यासं प्राप्तः।। 1-124-26 त्यागधर्मः संन्यासः।। 1-124-35 विमृशन् हिंसादिदोषम्।। 1-124-38 निष्कं ग्रैवेयकम्।। चतुर्विंशत्यधिकशततमोऽध्यायः।। 124 ।।
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