महाभारतम्-01-आदिपर्व-236
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सौभद्रतीर्थे स्नानार्थमवतीर्णस्यार्जुनस्य ग्राहेण ग्रहणम्।। 1 ।।
जलादुद्धरणेन ग्राहरूपं परित्यज्य नारीरूपं प्राप्तया वर्गानाम्नया स्वप्रभृतीनां ब्राह्मणेन शापदानकथनम्।। 2 ।।
वैशंपायन उवाच। | 1-236-1x |
ततः समुद्रे तीर्थानि दक्षिमे भरतर्षभः। अभ्यगच्छत्सुपुण्यानि सोभितानि तपस्विभिः।। | 1-236-1a 1-236-1b |
वर्जयन्ति स्म तीर्तानि तत्र पञ्च सम तापसाः। अवकीर्णानि यान्यासन्पुरस्तात्तु तपस्विभिः।। | 1-236-2a 1-236-2b |
अगस्त्यतीर्थं सौभद्रं पौलोमं च सुपावनम्। कारन्धमं प्रसन्नं च महमेधफलं च तत्।। | 1-236-3a 1-236-3b |
भारद्वाजस्य तीर्थं तु पापप्रशमनं महत्। एतानि पञ्च तीर्थानि ददर्श कुरुसत्तमः।। | 1-236-4a 1-236-4b |
विविक्तान्युपलक्ष्याथ तानि तीर्थानि पाण्डवः। दृष्ट्वा च वर्ज्यमानानि मुनिभिर्धर्मबुद्धिभिः।। | 1-236-5a 1-236-5b |
तपस्विनस्ततोऽपृच्छत्प्राञ्जलिः कुरुनन्दनः। तीर्थानीमानि वर्ज्यन्ते किमर्थं ब्रह्मवादिभिः।। | 1-236-6a 1-236-6b |
तापसा ऊचुः। | 1-236-7x |
ग्राहाः पञ्च वसन्त्येषु हरन्ति च तपोधनान्। तत एतानि वर्ज्यन्ते तीर्थानि कुरुनन्दन।। | 1-236-7a 1-236-7b |
वैशंपायन उवाच। | 1-236-8x |
तेषां श्रुत्वा महाबाहुर्वार्यमाणस्तपोधनैः। जगाम तानि तीर्थानि द्रष्टुं पुरुषसत्तमः।। | 1-236-8a 1-236-8b |
ततः सौभद्रमासाद्य महर्षेस्तीर्थमुत्तमम्। विगाह्य सहसा शूरः स्नानं चक्रे परन्तपः।। | 1-236-9a 1-236-9b |
अथ तं पुरुषव्याघ्रमन्तर्जलचरो महान्। जग्राह चरणे ग्राहः कुन्तीपुत्रं धनञ्जयम्।। | 1-236-10a 1-236-10b |
स तमादाय कौन्तेयो विस्फुरन्तं जलेचरम्। उदतिष्ठन्महाबाहुर्बलेन बलिनां वरः।। | 1-236-11a 1-236-11b |
उत्कृष्ट एव ग्राहस्तु सोऽर्जुनेन यशस्विना। बभूव नारी कल्याणी सर्वाभरणभूषइता।। | 1-236-12a 1-236-12b |
दीप्यमाना श्रिया राजन्दिव्यरूपा मनोरमा। तदद्भुतं महद्दृष्ट्वा कुन्तीपुत्रो धनञ्जयः।। | 1-236-13a 1-236-13b |
तां स्त्रियं परमप्रीत इदं वचनमब्रवीत्। का वै त्वमसि कल्याणिकुतो वाऽसि जलेचरी।। | 1-236-14a 1-236-14b |
किमर्थं च महत्पापमिदं कृतवती पुरा। | 1-236-15a |
वर्गोवाच। | 1-236-15x |
अप्सराऽस्मि महाबाहो देवारण्यविहारिणी।। | 1-236-15b |
इष्टा धनपतेर्नित्यं वर्गा नाम महाबल। मम सख्यश्चतस्रोऽन्याः सर्वाः कामगमाः शुभाः।। | 1-236-16a 1-236-16b |
ताभिः सार्धं प्रयाताऽस्मि लोकपालनिवेशनम्। ततः पश्यामहे सर्वा ब्राह्मणं संशितव्रतम्।। | 1-236-17a 1-236-17b |
रूपवन्तमधीयानमेकमेकान्तचारिणम्। तस्यैव तपसा राजंस्तद्वयं तेजसा वृतम्।। | 1-236-18a 1-236-18b |
आदित्य इव तं देशं इत्वं सर्व व्यकाशयत्। तस्य दृष्ट्वा तपस्तादृग्रूपचाद्भुतमुत्तमम्।। | 1-236-19a 1-236-19b |
अवतीर्णाः स्म तं देशं तपोविघ्नचिकीर्षया। अहं च सौरभेयी च समीची बुद्बुदा लता।। | 1-236-20a 1-236-20b |
यौगपद्येन तं विप्रमभ्यगच्छाम भारत। गायन्त्योऽथहसन्त्यश्च लोभयित्वा च तं द्विजं।। | 1-236-21a 1-236-21b |
स च नास्मासु कृतवान्मनो वीर कथंचन। नाकम्पत महातेजाः स्थितस्तपसि निर्मले।। | 1-236-22a 1-236-22b |
सोऽशपत्कुपितोऽस्मांस्तु ब्राह्मणः क्षत्रियर्षभ। ग्राहभूता जले यूयं चरिष्यथ शतं समाः।। | 1-236-23a 1-236-23b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि अर्जुनवनवासपर्वणि षट्त्रिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 236 ।। |
1-236-5 धर्मबुद्धिभिर्दुर्मरणज दोषं तीर्थेनाप्यविनाश्यं पश्यद्भिः।। 1-236-15 चर्चोवाच इति घ पाठः।। षट्त्रिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 236 ।।
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