महाभारतम्-01-आदिपर्व-171
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एकचक्रायां भिक्षामटतः पाण्डवान्दृष्ट्वा पौराणां वितर्कः।। 1 ।।
कुम्भकाराद्भीमस्य महत्तरपात्रलाभः।। 2 ।।
सभार्यस्य तद्गृहस्वामिनो ब्राह्मणस्य क्रन्दितं श्रुतवत्याः कुन्त्याः भीमानुमत्या ब्राह्मणान्तर्गृहप्रवेशः।। 3 ।।
ब्राह्मणप्रलापः।। 4 ।।
जनमेजय उवाच। | 1-171-1x |
एकचक्रां गतास्ते तु कुन्तीपुत्रा महारथाः। अत ऊर्ध्वं द्विजश्रेष्ठ किमकुर्वत पाण्डवाः।। | 1-171-1a 1-171-1b |
वैशंपायन उवाच। | 1-171-2x |
एकचक्रां गतास्ते तु कन्तीपुत्रा महारथाः। ऊषुर्नातिचिरं कालं ब्राह्मणस्य निवेशने।। | 1-171-2a 1-171-2b |
रमणीयानि पश्यन्तो वनानि विविधानि च। पार्थिवानपि चोद्देशान्सरितश्च सरांसि च।। | 1-171-3a 1-171-3b |
चेरुर्भैश्रं तदा ते तु सर्व एव विशांपते। `युधिष्ठिरं च कुन्तीं च चिन्तयन्त उपासते।। | 1-171-4a 1-171-4b |
भैक्षं चरन्तस्तु तदा जटिला ब्रह्मचारिणः। बभूवुर्नागराणां च गुणैः संप्रियदर्शनाः।। | 1-171-5a 1-171-5b |
नागरा ऊचुः। | 1-171-6x |
दर्शनीया द्विजाः शुभ्रा देवगर्भोपमाः शुभाः। भैक्षानर्हाश्च राज्यार्हाः सुकुमारास्तपस्विनः।। | 1-171-6a 1-171-6b |
नैते यथार्थतो विप्राः सुकुमारास्तपस्विनः। चरन्ति भूमौ प्रच्छन्नाः कस्माच्चित्कारणादिह।। | 1-171-7a 1-171-7b |
सर्वलक्षणसंपन्ना भैक्षं नार्हन्ति नित्यशः। कार्यार्थिनश्चरन्तीति तर्कयन्त इति ब्रुवन्।। | 1-171-8a 1-171-8b |
बन्धूनामागमान्नित्यमुपचारैस्तु नागराः। भाजनानि च पूर्णानि भक्ष्यभोज्यैरकारयन्।। | 1-171-9a 1-171-9b |
मौनव्रतेन संयुक्ता भैश्रं गृह्णन्ति पाण्डवाः। माता चिरगतान्ज्ञात्वा शोचन्ती पाण्डवान्प्रति।। | 1-171-10a 1-171-10b |
दुःखाश्रुपूर्णनयना लिखन्त्यास्ते महीतलम्। भिक्षित्वा द्विजगेहेषु चिन्तयन्तश्च मातरम्।। | 1-171-11a 1-171-11b |
त्वरमाणा निवर्तन्ते मातृगौरवयन्त्रिताः। मात्रे निवेदयन्ति स्म कुन्त्यै भैक्षं दिवानिशम्।। | 1-171-12a 1-171-12b |
सर्वं संपूर्णभैक्षान्नं मातृदत्तं पृथक्पृथक्। विभज्याभुञ्जतेष्टं ते यथाभागं पृथक्पृथक्।। | 1-171-13a 1-171-13b |
अर्धं स्म भुञ्जते पञ्च सह मात्रा परन्तपाः। अर्धं सर्वस्य भैक्षस्य भीमो भुङ्क्ते महाबलः।। | 1-171-14a 1-171-14b |
स नाशितश्च भवति कल्याणान्नभुजिः पुरा। स वैवर्ण्यं च कार्श्यं च जगामातृप्तिकारितम्।। | 1-171-15a 1-171-15b |
आज्यबिन्दुर्यथा वह्नौ महति ज्वलिते भवेत्। तथार्धभागं भीमस्य भिक्षान्नस्य नरोत्तम।। | 1-171-16a 1-171-16b |
तथैव वसतां तत्र तेषां राजन्महात्मनाम्। अतिचक्राम सुमहान्कालोऽथ भरतर्षभ।। | 1-171-17a 1-171-17b |
भीमोऽपि क्रीडयित्वाथ मिथो ब्राह्मणबन्धुषु। कुम्भकारेण संबन्धाल्लेभे पात्रं महत्तरम्।। | 1-171-18a 1-171-18b |
कुम्भकारोऽददात्पात्रं महत्कृत्वातिमात्रकम्। प्रहसन्भीमसेनाय विस्मितस्तस्य कर्मणा।। | 1-171-19a 1-171-19b |
तस्याद्भुतं कर्म कुर्वन्मृद्भारं महदाददे। मृद्भारैः शतसाहस्रैः कुम्भकारमतोषयत्।। | 1-171-20a 1-171-20b |
चक्रे चक्रे च मृद्भाण्डान्सततं भैक्षमाचरन्। तदादायागतं दृष्ट्वा हसन्ति प्रहसन्ति च।। | 1-171-21a 1-171-21b |
भक्ष्यभोज्यानि विविधान्यादाय प्रक्षिपन्ति च। एवमेव सदा भुक्त्वा मात्रे वदति वै रहः। न चाशितोऽस्मि भवति कल्याणान्नभृतः पुरा।।' | 1-171-22a 1-171-22b 1-171-22c |
ततः कदाचिद्भैक्षाय गतास्ते पुरषर्षभाः। संगत्य भीमसेनस्तु तत्रास्ते पृथया सह।। | 1-171-23a 1-171-23b |
अथार्तिजं महाशब्दं ब्राह्मणस्य निवेशने। भृशमुत्पतितं घोरं कुन्ती शुश्राव भारत।। | 1-171-24a 1-171-24b |
रोरुयमाणांस्तान्दृष्ट्वा परिदेवयतश्च सा। कारुण्यात्साधुभावाच्च कुन्ती राजन्न चक्षमे।। | 1-171-25a 1-171-25b |
मथ्यमानेव दुःखेन हृदयेन पृथा तदा। उवाच भीमं कल्याणी कृपान्वितमिदं वचः।। | 1-171-26a 1-171-26b |
वसामः सुसुखं पुत्र ब्राह्मणस्य निवेशने। अज्ञाता धार्तराष्ट्रस्य सत्कृतां वीतमन्यवः।। | 1-171-27a 1-171-27b |
सा चिन्तये सदा पुत्र ब्राह्मणस्यास्य किं न्वहम्।। कदा प्रियं करिष्यामि यत्कुर्युरुषिताः सुखम्।। | 1-171-28a 1-171-28b |
एतावान्पुरुषस्तात कृतं यस्मिन्न नश्यति। यावच्च कुर्यादन्योऽस्य कुर्यादभ्यधिकं ततः।। | 1-171-29a 1-171-29b |
तदिदं ब्राह्मणस्यास्य दुःखमापतितं ध्रुवम्। न तत्र यदि साहाय्यं कुर्याम सुकृतं भवेत्।। | 1-171-30a 1-171-30b |
भीमसेन उवाच। | 1-171-31x |
ज्ञायतामस्य यद्दुःखं यतश्चैव समुत्थितम्। विदित्वा व्यवसिष्यामि यद्यपि स्यात्सुदुष्करम्।। | 1-171-31a 1-171-31b |
वैशंपायन उवाच। | 1-171-32x |
एवं तौ कथयन्तौ च भूयः सुश्रुवतुः स्वनम्। आर्तिजं तस्य विप्रस्य सभार्यस्य विशांपते।। | 1-171-32a 1-171-32b |
अन्तःपुरं ततस्तस्य ब्राह्मणस्य महात्मनः। विवेश त्वरिता कुन्ती बद्धवत्सेव सौरभी।। | 1-171-33a 1-171-33b |
ततस्तं ब्राह्मणं तत्र भार्यया च सुतेन च। दुहित्रा चैव सहितं ददर्श विकृताननम्।। | 1-171-34a 1-171-34b |
ब्राह्मण उवाच। | 1-171-35x |
धिगिदं जीवितं लोके गतसारमनर्थकम्। दुःखमूलं पराधीनं भृशमप्रियभागि च।। | 1-171-35a 1-171-35b |
जीविते परमं दुःखं जीविते परमो ज्वरः। जीविते वर्तमानस्य द्वन्द्वानामागमो ध्रुवः।। | 1-171-36a 1-171-36b |
आत्मा ह्येको हि धर्मार्थौ कामं चैव निषेवते। एतैश्च विप्रयोगोऽपि दुःखं परमनन्तकम्।। | 1-171-37a 1-171-37b |
आहुः केचित्परं मोक्षं स च नास्ति कथंचन। अर्थप्राप्तौ तु नरकः कृत्स्न एवोपपद्यते।। | 1-171-38a 1-171-38b |
अर्थेप्सुता परं दुःखमर्थप्राप्तौ ततोऽधिकम्। जातस्नेहस्य चार्थेषु विप्रयोगे महत्तरम्।। | 1-171-39a 1-171-39b |
`यावन्तो यस्य संयोगा द्रव्यैरिष्टैर्भवन्त्युत। तावन्तोऽस्य निख्यन्ते हृदये शोकशङ्कवः।। | 1-171-40a 1-171-40b |
तदिदं जीवितं प्राप्य अल्पकालं महाभयम्। त्यागो हि न मया प्राप्तो भार्यया सहितेन च।।' | 1-171-41a 1-171-41b |
न हि योगं प्रपश्यामि येन मुच्येयमापदः। पुत्रदारेण वा सार्धं प्राद्रवेयमनामयम्।। | 1-171-42a 1-171-42b |
यतितं वै मया पूर्वं वेत्थ ब्राह्मणि तत्तथा। क्षेमं यतस्ततो गन्तुं त्वया तु मम न श्रुतम्।। | 1-171-43a 1-171-43b |
इह जाता विवृद्धाऽस्मि पिता माता ममेति वै। उक्तवत्यसि दुर्मेधे याच्यमाना मयाऽसकृत्।। | 1-171-44a 1-171-44b |
स्वर्गतोऽपि पिता वृद्धस्तथा माता चिरं तव। बन्धवा भूतपूर्वाश्च तत्र वासे तु का रतिः।। | 1-171-45a 1-171-45b |
`न भोजनं विरुद्धं स्यान्न स्त्रीदेशो निबन्धनः। सुदूरमपि तं देशं व्रजेद्गरुडहंसवत्।।' | 1-171-46a 1-171-46b |
सोऽयं ते बन्धुकामाया अशृण्वन्त्या वचो मम। बन्धुप्रणाशः संप्राप्तो भृशं दुःखकरो मम।। | 1-171-47a 1-171-47b |
अथवा मद्विनाशो यं न हि शक्ष्यामि कंचन। परित्यक्तुमहं बन्धुं स्वयं जीवन्नृशंसवत्।। | 1-171-48a 1-171-48b |
सहधर्मचरीं दान्तां नित्यं मातृसमां मम। सखायं विहितां देवैर्नित्यं परमिकां गतिम्।। | 1-171-49a 1-171-49b |
पित्रा मात्रा च विहितां सदा गार्हस्थ्यभागिनीम्। वरयित्वा यथान्यायं मन्त्रवत्परिणीय च।। | 1-171-50a 1-171-50b |
कुलीनां शीलसंपन्नामपत्यजननीमपि। त्वामहं जीवितस्यार्थे साध्वीमनपकारिणीम्।। | 1-171-51a 1-171-51b |
परित्यक्तुं न शक्ष्यामि भार्यां नित्यमनुव्रताम्। कुत एव परित्यक्तुं सुतां शक्ष्याम्यहं स्वयम्।। | 1-171-52a 1-171-52b |
बालामप्राप्तवयसमजातव्यञ्जनाकृतिम्। भर्तुरर्थाय निक्षिप्तां न्यासं धात्रा महात्मना।। | 1-171-53a 1-171-53b |
यया दौहित्रजाँल्लोकानाशंसे पितृभिः सह। स्वयमुत्पाद्य तां बालां कथमुत्स्रष्टुमुत्सहे।। | 1-171-54a 1-171-54b |
मन्यन्ते केचिदधिकं स्नेहं पुत्रे पितुर्नराः। कन्यायां केचिदपरे मम तुल्यावुभौ स्मृतौ।। | 1-171-55a 1-171-55b |
यस्यां लोकाः प्रसूतिश्च स्थिता नित्यमथो सुखम्। अपापां तामहं बालां कथमुत्स्रष्टुमुत्सहे।। | 1-171-56a 1-171-56b |
`कुत एव परित्यक्तुं सुतं शक्ष्याम्यहं स्वयम्। प्रार्थयेयं परां प्रीतिं यस्मिन्स्वर्गफलानि च।। | 1-171-57a 1-171-57b |
यस्य जातस्य पितरो मुखं दृष्ट्वा दिवं गताः। अहं मुक्तः पितृऋणाद्यस्य जातस्य तेजसा।। | 1-171-58a 1-171-58b |
दयितं मे कथं बालमहं त्यक्तुमिहोत्सहे। तमहं ज्येष्ठपुत्रं मे कुलनिर्हारकं विभुम्।। | 1-171-59a 1-171-59b |
मम पिण्डोदकनिधिं कथं त्यक्ष्यामि पुत्रकम्। त्यागोऽयं मम संप्राप्तो ममन्वा मे सुतस्य वा।। | 1-171-60a 1-171-60b |
तव वा तव पुत्र्या वा अत्र वासस्य तत्फलम्। न शृणोषि वचो मह्यं तत्फलं भुङ्क्ष्व भामिनि।। | 1-171-61a 1-171-61b |
अथवाहं न शक्ष्यामि स्वयं मर्तुं सुतं मम। एकं त्यक्तुं न शक्नोति भवतीं च सुतामपि।। | 1-171-62a 1-171-62b |
अथ मद्रक्षणार्थं वा न हि शक्ष्यामि कंचन। परित्यक्तुमहं बन्धुं स्वयं जीवन्नृशंसवत्।। | 1-171-63a 1-171-63b |
आत्मानमपि चोत्सृज्य गते प्रेतवशं मयि।' त्यक्ता ह्येते मया व्यक्तं नेह शक्ष्यन्ति जीवितुम्।। | 1-171-64a 1-171-64b |
एषां चान्यतमत्यागो नृशंसो गर्हितो बुधैः। आत्मत्यागे कृते चेमे मरिष्यन्ति मया विना।। | 1-171-65a 1-171-65b |
स कृच्छ्रामहमापन्नो न शक्तस्तर्तुमापदम्। अहो धिक्कां गतिं त्वद्य गमिष्यामि सबान्धवः। सर्वैः सह मृतं श्रेयो न च मे जीवितुं क्षमम्।। | 1-171-66a 1-171-66b 1-171-66c |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि बकवचपर्वणि एकसप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः।। 171 ।। |
1-171-42 योगमुपायम्।। एकसप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः।। 171 ।।
आदिपर्व-170 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आदिपर्व-172 |