महाभारतम्-01-आदिपर्व-179
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ब्राह्मणगृहे प्रतिश्रयार्थमागतस्य कस्यचिद्ब्राह्मणस्य मुखात् पाण्डवानां द्रौपदीस्वयंवरश्रवणम्।। 1 ।।
पाण्डवकृतधृष्टद्युन्नद्रौपदीसंभवप्रश्नस्य ब्राह्मणेनोत्तरकथनम्।। 2 ।।
जनमेजय उवाच। | 1-179-1x |
ते तथा पुरुषव्याघ्रा निहत्य बकराक्षसम्। अत ऊर्ध्वं ततो ब्रह्मन्किमकुर्वत पाण्डवाः।। | 1-179-1a 1-179-1b |
वैशंपायन उवाच। | 1-179-2x |
तत्रैव न्यवसन्राजन्निहत्य बकराक्षसम्। अधीयानाः परं ब्रह्म ब्राह्मणस्य निवेशने।। | 1-179-2a 1-179-2b |
ततः कतिपयाहस्य ब्राह्मणः संशितव्रतः। प्रतिश्रयार्थी तद्वेश्म ब्राह्मणस्याजगाम ह।। | 1-179-3a 1-179-3b |
स म्यक् पूजयित्वा तं विप्रं विप्रर्षभस्तदा। ददौ प्रतिश्रयं तस्मै सदा सर्वातिथिव्रतः।। | 1-179-4a 1-179-4b |
ततस्ते पाण्डवाः सर्वे सह कुन्त्या नरर्षभाः। उपासाञ्चक्रिरे विप्रं कथयन्तं कथाः शुभाः।। | 1-179-5a 1-179-5b |
कथयामास देशांश्च तीर्थानि सरितस्तथा। राज्ञश्च विविधाश्चर्यान्देशांश्चैव पुराणि च।। | 1-179-6a 1-179-6b |
स तत्राकथयद्विप्रः कथान्ते जनमेजय। पञ्चालेष्वद्भुताकारं याज्ञसेन्याः स्वयंवरम्।। | 1-179-7a 1-179-7b |
धृष्टद्युम्नस्य चोत्पत्तिमुत्पत्तिं च शिखण्डिनः। अयोनिजत्वं कृष्णाया द्रुपदस्य महामखे।। | 1-179-8a 1-179-8b |
तदद्भुततमं श्रुत्वा लोके तस्य महात्मनः। विस्तरेणैव पप्रच्छुः कथां ते पुरुषर्षभाः।। | 1-179-9a 1-179-9b |
पाण्डवा ऊचुः। | 1-179-10x |
कथं द्रुपदपुत्रस्य धृष्टद्युम्नस्य पावकात्। वेदीमध्याच्च कृष्णायाः संभवः कथमद्भुतः।। | 1-179-10a 1-179-10b |
कथं द्रोणान्महेष्वासात्सर्वाण्यस्त्राण्यशिक्षत। `धृष्टद्युम्नो महेष्वासः कथं द्रोणस्य मृत्युदः।' कथं विप्र सखायौ तौ भिन्नौ कस्य कृतेन वा।। | 1-179-11a 1-179-11b 1-179-11c |
वैशंपायन उवाच। | 1-179-12x |
एवं तैश्चोदितो राजन्स विप्रः पुरुषर्षभैः। कथयामास तत्सर्वं द्रौपदीसंभवं तदा।। | 1-179-12a 1-179-12b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि चैत्ररथपर्वणि ऊनाशीत्यधिकशततमोऽध्यायः।। 179 ।। |
1-179-7 याज्ञसेन्याः द्रौपद्याः।। 7 ।। ऊनाशीत्यधिकशततमोऽध्यायः।। 179 ।।
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