महाभारतम्-01-आदिपर्व-078
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स्वजरामनङ्गीकुर्वतां यदुप्रभृतीनां ययातिना शापः।। 1 ।। तामङ्गीकुर्वतः पूरोर्वरदानम्।। 2 ।।
वैशंपायन उवाच। | 1-78-1x |
जरां प्राप्य ययातिस्तु स्वपुरं प्राप्य चैव हि। पुत्रं ज्येष्ठं वरिष्ठं च यदुमित्यब्रवीद्वचः।। | 1-78-1a 1-78-1b |
ययातिरुवाच। | 1-78-2x |
जरावली च मां तात पलितानि च पर्यगुः। काव्यस्योशनसः शापान्न च तृप्तोऽस्मि यौवने।। | 1-78-2a 1-78-2b |
त्वं यदो प्रतिपद्यस्व पाप्मानं जरया सह। यौवनेन त्वदीयेन चरेयं विषयानहम्।। | 1-78-3a 1-78-3b |
पूर्णे वर्षसहस्रे तु पुनस्ते यौवनं त्वहम्। दत्त्वा स्वं प्रतिपत्स्यामि पाप्मानं जरया सह।। | 1-78-4a 1-78-4b |
यदुरुवाच। | 1-78-5x |
जरायां बहवो दोषाः पानभोजनकारिताः। तस्माज्जरां न ते राजन्ग्रहीष्य इति मे मतिः।। | 1-78-5a 1-78-5b |
सितश्मश्रुर्निरानन्दो जरया शिथिलीकृतः। वलीसङ्गतगात्रस्तु दुर्दर्शो दुर्बलः कृशः।। | 1-78-6a 1-78-6b |
अशक्तः कार्यकरणे परिभूतः स यौवतैः। सहोपजीविभिश्चैव तां जरां नाभिकामये।। | 1-78-7a 1-78-7b |
सन्ति ते बहवः पुत्रा मत्तः प्रियतरा नृप। जरां ग्रहीतुं धर्मज्ञ तस्मादन्यं वृणीष्व वै।। | 1-78-8a 1-78-8b |
ययातिरुवाच। | 1-78-9x |
यत्त्वं मे हृदयाज्जातो वयः स्वं न प्रयच्छसि। तस्मादराज्यभाक्तात प्रजा तव भविष्यति।। | 1-78-9a 1-78-9b |
`प्रत्याख्यातस्तु राजा स तुर्वसुं प्रत्युवाच ह।' तुर्वसो प्रतिपद्यस्व पाप्मानं जरया सह। यौवनेन चरेयं वै विषयांस्तव पुत्रक।। | 1-78-10a 1-78-10b 1-78-10c |
पूर्णे वर्षसहस्रे तु पुनर्दास्यामि यौवनम्। स्वं चैव प्रतिपत्स्यामि पाप्मानं जरया सह।। | 1-78-11a 1-78-11b |
तुर्वसुरुवाच। | 1-78-12x |
न कामये जरां तात कामभोगप्रणाशिनीम्। बलरूपान्तकरणीं बुद्धिप्राणप्रणाशिनीम्।। | 1-78-12a 1-78-12b |
ययातिरुवाच। | 1-78-13x |
यत्त्वं मे हृदयाज्जातो वयः स्वं न प्रयच्छसि। तस्मात्प्रजा समुच्छेदं तुर्वसो तव यास्यति।। | 1-78-13a 1-78-13b |
संकीर्णाचारधर्मेषु प्रतिलोमचरेषु च। पिशिताशिषु चान्त्येषु मूढ राजा भविष्यसि।। | 1-78-14a 1-78-14b |
गुरुदारप्रसक्तेषु तिर्यग्योनिगतेषु च। पशुधर्मेषु पापेषु म्लेच्छेषु त्वं भविष्यसि।। | 1-78-15a 1-78-15b |
वैशंपायन उवाच। | 1-78-16x |
एवं स तुर्वसुं शप्त्वा ययातिः सुतमात्मनः। शर्मिष्ठायाः सुतं द्रुह्युमिदं वचनमब्रवीत्।। | 1-78-16a 1-78-16b |
ययातिरुवाच। | 1-78-17x |
द्रुह्यो त्वं प्रतिपद्यस्व वर्णरूपविनाशिनीम्। जरां वर्षसहस्रं मे यौवनं स्वं ददस्व च।। | 1-78-17a 1-78-17b |
पूर्णे वर्षसहस्रे तु पुनर्दास्यामि यौवनम्। स्वं चादास्यामि भूयोऽहं पाप्मानं जरया सह।। | 1-78-18a 1-78-18b |
द्रुह्युरुवाच। | 1-78-19x |
न गजं न रथं नाश्वं जीर्णो भुङ्क्ते न च स्त्रियम्। वाग्भङ्गश्चास्य भवति तां जरां नाभिकामये।। | 1-78-19a 1-78-19b |
ययातिरुवाच। | 1-78-20x |
यत्त्वं मे हृदयाज्जातो वयः स्वं न प्रयच्छसि। तस्माद्द्रुह्यो प्रियः कामो न ते संपत्स्यते क्वचित्।। | 1-78-20a 1-78-20b |
यत्राश्वरथमुख्यानामश्वानां स्याद्गतं न च। हस्तिनां पीठकानां च गर्दभानां तथैव च।। | 1-78-21a 1-78-21b |
बस्तानां च गवां चैव शिबिकायास्तथैव च। उडुपप्लवसंतारो यत्र नित्यं भविष्यति। | 1-78-22a 1-78-22b |
ययातिरुवाच। | 1-78-23x |
अनो त्वं प्रतिपद्यस्व पाप्मानं जरया सह। एकं वर्षसहस्रं तु चरेयं यौवनेन ते।। | 1-78-23a 1-78-23b |
अनुरुवाच। | 1-78-24x |
जीर्णः शिशुवदादत्ते कालेऽन्नमशुचिर्यथा। न जुहोति च कालेऽग्निं तां जरां नाभिकामये।। | 1-78-24a 1-78-24b |
ययातिरुवाच। | 1-78-25x |
यत्त्वं मे हृदयाज्जातो वयः स्वं न प्रयच्छसि। जरादोषस्त्वया प्रोक्तस्तस्मात्त्वं प्रतिलप्स्यसे।। | 1-78-25a 1-78-25b |
प्रजाश्च यौवनप्राप्ता विनशिष्यन्त्यनो तव। अग्निप्रस्कन्दनपरस्त्वं चाप्येवं भविष्यसि।। | 1-78-26a 1-78-26b |
वैशंपायन उवाच। | 1-78-27x |
प्रत्याख्यातश्चतुर्भिश्च शप्त्वा तान्यदुपूर्वकान्। पूरोः सकाशमगमन्मत्त्वा पूरुमलङ्घनम्।। | 1-78-27a 1-78-27b |
ययातिरुवाच। | 1-78-28x |
पूरो त्वं मे प्रियः पुत्रस्त्वं वरीयान्भविष्यसि। जरा वली च मांतात पलितानि च पर्यगुः।। | 1-78-28a 1-78-28b |
काव्यस्योशनसः शापान्न च तृप्तोऽस्मि यौवने। पूरो त्वं प्रतिपद्यस्व पाप्मानं जरया सह। कंचित्कालं चरेयं वै विषयान्वयसातव।। | 1-78-29a 1-78-29b 1-78-29c |
पूर्णे वर्षसहस्रे तु पुनर्दास्यामि यौवनम्। स्वं चैव प्रतिपत्स्यामि पाप्मानं जरया सह।। | 1-78-30a 1-78-30b |
वैशंपायन उवाच। | 1-78-31x |
एवमुक्तः प्रत्युवाच पूरुः पितरमज्जसा। यदात्थ मां महाराज तत्करिष्यामि ते वचः।। | 1-78-31a 1-78-31b |
`गुरोर्वै वचनं पुण्यं स्वर्ग्यमायुष्करं नृणाम्। गुरुप्रसादात्त्रैलोक्यमन्वशासच्छतक्रतुः।। | 1-78-32a 1-78-32b |
गुरोरनुमतं प्राप्य सर्वान्कामानमाप्नुयात्। यावदिच्छसि तावच्च धारयिष्यामि ते जराम्'।। | 1-78-33a 1-78-33b |
प्रतिपत्स्यामि ते राजन्पाप्मानं जरया सह। गृहाण यौवनं मत्तश्चर कामान्यथेप्सितान्।। | 1-78-34a 1-78-34b |
जरयाहं प्रतिच्छन्नो वयोरूपधरस्तव। यौवनं भवते दत्त्वा चरिष्यामि यथात्थमाम्।। | 1-78-35a 1-78-35b |
ययातिरुवाच। | 1-78-36x |
पूरो प्रीतोऽस्मि ते वत्स प्रीतश्चेदं ददामि ते। सर्वकामसमृद्धा ते प्रजा राज्ये भविष्यति।। | 1-78-36a 1-78-36b |
वैशंपायन उवाच। | 1-78-37x |
एवमुक्त्वा ययातिस्तु स्मृत्वा काव्यं महातपाः। संक्रामयामास जरां तदा पूरौ महात्मनि।। | 1-78-37a 1-78-37b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि संभवपर्वणि अष्टसप्ततितमोऽध्यायः।। 78 ।। |
1-78-2 वली त्वचःसंवलनम्। पलितानि केशरोम्णां शौक्ल्यम्। पर्यगुः परितः शरीरे गतानि प्राप्तानियौवने यौवनसाध्ये कामभोगे।। 1-78-3 पाप्मानं भोगसामर्थ्येऽपि तदिच्छारूपं चित्तस्य दौस्थ्यम्। चरेयं भुज्जीय।। 1-78-5 दोषाः कफाद्याधिक्याद्वमनादयः।। 1-78-15 तिर्यग्योनीनामिव गतं प्रकाशं मैथुनाद्याचरणं येप तेषु।। 1-78-21 पीठकानां राजयोग्यानां नरयानविशेषाणां तखतरावा इति म्लेच्छेषु प्रसिद्धानाम्।। 1-78-26 अग्निप्रस्कन्दनं श्रौतस्मार्ताद्यग्निसाध्यकर्मत्यागस्तत्परः।। 1-78-28 वरीयान्स्वभ्रातृभ्यो महान्। जरो देहेन्द्रियशक्तिघातः।। 1-78-31 अञ्जसा आर्जवेन।। 1-78-34 यथेप्सितान् यावज्जीवम्।। अष्टसप्ततितमोऽध्यायः।। 78 ।।
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