महाभारतम्-01-आदिपर्व-072
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स्वर्गंप्रत्यागतात्कचात्संजीविन्यध्ययनेन देवानां कृतार्थता।। 1 ।। शुक्रवृषपर्वणोर्विरोधोत्पादनार्थमिन्द्रकृतं कन्यानां वस्त्रमिश्रणम्।। 2 ।। वस्त्रमिश्रणेन शर्मिष्ठादेवयान्योर्विरोधः।। 3 ।। शर्मिष्ठया कूपे प्रक्षिप्ताया देवयान्या ययातिना कूपादुद्धरणम्।। 4 ।। शुक्रस्य कूपसमीपागमनं देवयानीसान्त्वनं च।। 5 ।।
वैशंपायन उवाच। | 1-72-1x |
कृतविद्ये कचे प्राप्ते हृष्टरूपा दिवौकसः। कचादधीत्य तां विद्यां कृतार्था भरतर्षभ।। | 1-72-1a 1-72-1b |
सर्व एव समागम्य शतक्रतुमथाब्रुवन्। कालस्ते विक्रमस्याद्य जहि शत्रून्पुरन्दर।। | 1-72-2a 1-72-2b |
वैशंपायन उवाच। | 1-72-3x |
एवमुक्तस्तु सहितैस्त्रिदशैर्मघवांस्तदा। तथेत्युक्त्वा प्रचक्राम सोऽपश्यत वने स्त्रियः।। | 1-72-3a 1-72-3b |
क्रीडन्तीनां तु कन्यानां वने चैत्ररथोपमे। वायुभूतः स वस्त्राणि सर्वाण्येव व्यमिश्रयत्।। | 1-72-4a 1-72-4b |
ततो जलात्समुत्तीर्य कन्यास्ताः सहितास्तदा। वस्त्राणि जगृहुस्तानि यथाऽऽसन्नान्यनेकशः।। | 1-72-5a 1-72-5b |
तत्र वासो देवयानयाः शर्मिष्ठा जगृहे तदा। व्यतिमिश्रमजानन्ती दुहिता वृषपर्वणः।। | 1-72-6a 1-72-6b |
ततस्तयोर्मिथस्तत्र विरोधः समजायत। देवयान्याश्च राजेन्द्र शर्मिष्ठायाश्च तत्कृते।। | 1-72-7a 1-72-7b |
देवयान्युवाच। | 1-72-8x |
कस्माद्गृह्णासि मे वस्त्रं शिष्या भूत्वा ममासुरि। समुदाचारहीनाया न ते साधु भविष्यति।। | 1-72-8a 1-72-8b |
सर्मिष्ठोवाच। | 1-72-9x |
आसीनं च शयानं च पिता ते पितरं मम। स्तौतिबन्दीव चाभीक्ष्णं नीचैः स्थित्वा विनीतवत्।। | 1-72-9a 1-72-9b |
याचतस्त्वं हि दुहिता स्तुवतः प्रतिगृह्णतः। सुताहं स्तूयमानस्य ददतोऽप्रतिगृह्णतः।। | 1-72-10a 1-72-10b |
आदुन्वस्व विदुन्वस्व द्रुह्य कुप्यस्व याचकि। अनायुधा सायुधाया रिक्ता क्षुभ्यसि भिक्षुकि।। | 1-72-11a 1-72-11b |
लप्स्यसे प्रतियोद्धारं न हि त्वां गणयाम्यहम्। `प्रतिकूलं वदसि चेदितःप्रभृति याचकि।।' | 1-72-12a 1-72-12b |
वैशंपायन उवाच। | 1-72-13x |
समुच्छ्रयं देवयानीं गतां सक्तां च वाससि। शर्मिष्ठा प्राक्षिपत्कूपे ततः स्वपुरमागमत्। हतेयमिति विज्ञाय शर्मिष्ठा पापनिश्चया।। | 1-72-13a 1-72-13b 1-72-13c |
अनवेक्ष्य ययौ वेश्म क्रोधवेगपरायणा। `प्रविश्य स्वगृहं स्वस्था धर्ममासुरमास्थिता।' अथ तं देशमभ्यागाद्ययातिर्नहुषात्मजः।। | 1-72-14a 1-72-14b 1-72-14c |
श्रान्तयुग्यः श्रान्तहयो मृगलिप्सुः पिपासितः। स नाहुषः प्रेक्षमाण उदपानं गतोदकम्।। | 1-72-15a 1-72-15b |
ददर्श राजा तां तत्र कन्यामग्निशिखामिव। तामपृच्छत्स दृष्ट्वैव कन्याममरवर्णिनीम्।। | 1-72-16a 1-72-16b |
सान्त्वयित्वा नृपश्रेष्ठः साम्ना परमवल्गुना। का त्वं ताम्रनखी श्यामा सुमृष्टमणिकुण्डला।। | 1-72-17a 1-72-17b |
दीर्घं ध्यायसि चात्यर्थं कस्माच्छ्वसिषि चातुरा। कथं च पतिताऽस्यस्मिन्कूपे वीरुत्तृणावृते।। | 1-72-18a 1-72-18b |
दुहिता चैव कस्य त्वं वद सत्यं सुमध्यमे। | 1-72-19a |
देवयान्युवाच। | 1-72-20x |
योऽसौ देवैर्हतान्दैत्यानुत्थापयति विद्यया।। | 1-72-19b |
तस्य शुक्रस्य कन्याहं स मां नूनं न बुध्यते। एष मे दक्षिणो राजन्पाणिस्ताम्रनखाङ्गुलिः।। | 1-72-20a 1-72-20b |
समुद्धर गृहीत्वा मां कुलीनस्त्वं हि मे मतः। जानामि हि त्वां संशान्तं वीर्यवन्तं यशस्विनम्।। | 1-72-21a 1-72-21b |
तस्मान्मां पतितामस्मात्कूपादुद्धर्तुमर्हसि। | 1-72-22a |
वैशंपायन उवाच। | 1-72-22x |
तामथो ब्राह्मणीं कन्यां विज्ञायनहुषात्मजः।। | 1-72-22b |
गृहीत्वा दक्षिणे पाणावुज्जहार ततोऽवटात्। उद्धृत्य चैनां तरसा तस्मात्कूपान्नराधिपः।। | 1-72-23a 1-72-23b |
`ययातिरुवाच। | 1-72-24x |
गच्छ भद्रे यथाकामं न भयं विद्यते तव। इत्युच्यमाना नृपतिं देवयानीदमुत्तरम्।। | 1-72-24a 1-72-24b |
उवाच मामुपादाय गच्छ शीघ्रं प्रियो हि मे। गृहीताहं त्वया पाणौ तस्माद्भर्ता भविष्यसि।। | 1-72-25a 1-72-25b |
इत्येवमुक्तो नृपतिराह क्षत्रकुलोद्भवः। त्वं भद्रे ब्राह्मणी तस्मान्मया नार्हसि सङ्गमम्।। | 1-72-26a 1-72-26b |
सर्वलोकगुरुः काव्यस्त्वं तस्य दुहिता शुभे। तस्मादपि भयं मेऽद्य ततः कल्याणि नार्हसि।। | 1-72-27a 1-72-27b |
देवयान्युवाच। | 1-72-28x |
यदि मद्वचनान्नाद्य मां नेच्छसि नराधिप। त्वामेव वरये पित्रा तस्माल्लप्स्यसि गच्छ हि।। | 1-72-28a 1-72-28b |
वैशंपायन उवाच। | 1-72-29x |
आमन्त्रयित्वा सुश्रोणीं ययातिः स्वपुरं ययौ। गते तु नाहुषे तस्मिन्देवयान्यप्यनिन्दिता।। | 1-72-29a 1-72-29b |
क्वचिद्गत्वा च रुदती वृक्षमाश्रित्य धिष्ठिता। ततश्चिरायमाणायां दुहितर्यथ भार्गवः।। | 1-72-30a 1-72-30b |
संस्मृत्योवाच धात्रीं तां दुहितुः स्नेहविक्लवः। धात्रि त्वमानय क्षिप्रं देवयानीं समुध्यमाम्।। | 1-72-31a 1-72-31b |
इत्युक्तमात्रे सा धात्री त्वरिताऽऽनयितुं गता। यत्रयत्र सशीभिः सा गता पदममार्गत।। | 1-72-32a 1-72-32b |
सा ददर्श तथा दीनां श्रमार्तां रुदतीं स्थिताम्। वृत्तान्तं किमिदं भद्रे शीघ्रं वद पिताह्वयत्।। | 1-72-33a 1-72-33b |
एवमुक्ताह धात्रीं तां शर्मिष्ठावृजिनं कृतम्। उवाच शोकसंतप्ता घूर्णिकामागतां पुरः'।। | 1-72-34a 1-72-34b |
देवयान्युवाच। | 1-72-35x |
त्वरितं घूर्णिके गच्छ शीघ्रमाचक्ष्व मे पितुः।। | 1-72-35a |
नेदानीं संप्रवेक्ष्यामि नगरं वृषपर्वणः। | 1-72-36a |
वैशंपायन उवाच। | 1-72-36x |
सा तत्र त्वरितं गत्वा घूर्णिकाऽसुरमन्दिरम्।। | 1-72-36b |
दृष्ट्वा काव्यमुवाचेदं संभ्रमाविष्टचेतना। आचचक्षे महाप्राज्ञं देवयानीं वने हताम्।। | 1-72-37a 1-72-37b |
शर्मिष्ठया महाभाग दुहित्रा वृषपर्वणः। श्रुत्वा दुहितरं काव्यस्तत्र शर्मिष्ठया हताम्।। | 1-72-38a 1-72-38b |
त्वरया निर्ययौ दुःखान्मार्गमाणः सुतां वने। दृष्ट्वा दुहितरं काव्यो देवयानीं ततो वने।। | 1-72-39a 1-72-39b |
बाहुभ्यां संपरिष्वज्य दुःखितो वाक्यमब्रवीत्। आत्मदोषैर्नियच्छन्ति सर्वे दुःखसुखे जनाः।। | 1-72-40a 1-72-40b |
मन्ये दुश्चरितं तेऽस्ति यस्येयं निष्कृतिः कृता। | 1-72-41a |
देवयान्युवाच। | 1-72-41x |
निष्कृतिर्मेऽस्तु वा मास्तु शृणुष्वावहितो मम।। | 1-72-41b |
शर्मिष्ठया यदुक्ताऽस्मि दुहित्रा वृषपर्वणः।। सत्यं किलैतत्सा प्राह दैत्यानामसि गायनः।। | 1-72-42a 1-72-42b |
एवं हि मे कथयति शर्मिष्ठा वार्षपर्वणी। वचनं तीक्ष्णपरुषं क्रोधरक्तेक्षणा भृशम्।। | 1-72-43a 1-72-43b |
स्तुवतो दुहिता नित्यं याचतः प्रतिगृह्णतः। अहं तु स्तूयमानस्य ददतोऽप्रतिगृह्णतः।। | 1-72-44a 1-72-44b |
इदं मामाह शर्मिष्ठा दुहिता वृषपर्वणः। क्रोधसंरक्तनयना दर्पपूर्णा पुनः पुनः।। | 1-72-45a 1-72-45b |
यद्यह स्तुवतस्तात दुहिता प्रतिगृह्णतः। प्रसादयिष्ये शर्मिष्ठामित्युक्ता तु सखी मया।। | 1-72-46a 1-72-46b |
`उक्ताप्येवं भृशं मां सा निगृह्य विजने वने। कूपे प्रक्षेपयामास प्रक्षिप्य गृहमागमत्।।' | 1-72-47a 1-72-47b |
शुक्र उवाच। | 1-72-48x |
स्तुवतो दुहिता न त्वं याचतः प्रतिगृह्णतः। अस्तोतुः स्तूयमानस्य दुहिता देवयान्यसि।। | 1-72-48a 1-72-48b |
वृषपर्वैव तद्वेद शक्रो राजा च नाहुषः। अचिन्त्यं ब्रह्म निर्द्वन्द्वमैश्वरं हि बलं मम।। | 1-72-49a 1-72-49b |
`जानामि जीविनीं विद्यां लोकेस्मिञ्शाश्वतीं ध्रुवम्। मृतः संजीवते जन्तुर्यया कमललोचने।। | 1-72-50a 1-72-50b |
कत्थनं स्वगुणानां च कृत्वा तप्यति सज्जनः। ततो वक्तुमशक्तोऽस्मित्वं मे जानासि यद्बलम्।। | 1-72-51a 1-72-51b |
तसमादुत्तिष्ठ गच्छामः स्वगृहं कुलनन्दिनि। क्षमां कृत्वा विशालाक्षि क्षमासारा हि साधवः'।। | 1-72-52a 1-72-52b |
यच्च किंचित्सर्वगतं भूमौ वा यदि वा दिवि। तस्याहमीश्वरो नित्यं तुष्टेनोक्तः स्वयंभुवा।। | 1-72-53a 1-72-53b |
अहं जलं विमुञ्चामि प्रजानां हितकाम्यया। पुष्णाम्यौषधयः सर्वा इति सत्यं ब्रवीमि ते।। | 1-72-54a 1-72-54b |
वैशंपायन उवाच। | 1-72-55x |
एवं विषादमापन्नां मन्युना संप्रपीडिताम्। वचनैर्मधुरैः श्लक्ष्णैः सान्त्वयामास तां पिता।। | 1-72-55a 1-72-55b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि संभवपर्वणि द्विसप्ततितमोऽध्यायः।। 72 ।। |
1-72-3 प्रचक्राम भूतलं प्रतीति शेषः।। 1-72-8 समुदाचारः सदाचारः।। 1-72-11 आदुन्वस्व आभिमुख्येन वक्षस्ताडनादिना संतापं प्राप्नुहि। विदुन्वस्व पांसुषु लुण्ठनादिना। द्रुह्य द्रोहं चिरकालिकं क्रोधं कुरु। कुप्यस्व सद्यः परानिष्टफलो यत्नः कोपस्तं कुरु। रिक्ता दरिद्रा।। 1-72-12 प्रतियोद्धारं प्रहर्तारम्।। 1-72-15 युग्या रथवाहकाः। हयाः केवलाश्वाः। उदकं पीयतेस्मादित्युदपानं कूपः।। 1-72-23 अवटाद्गर्तात्।। 1-72-34 घूर्णिकां दासीम्।। 1-72-37 हतां ताडिताम्।। 1-72-40 नियच्छन्ति प्रयच्छन्ति प्राप्नुवन्तीति भावः।। 1-72-41 एतदेवाह मन्ये इति। निष्कृतिः फलभोगेन निरसनम्।। 1-72-45 इदं पूर्वोक्तम्।। 1-72-49 नाहुषो ययातिः। मम ऐश्वरं निर्द्वन्द्वमप्रतिपक्षं बलमस्ति।। द्विसप्ततितमोऽध्यायः।। 72 ।।
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