महाभारतम्-01-आदिपर्व-105
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गङ्गया जातमात्रस्य पुत्रसप्तकस्य हननम्।। 1 ।।
अष्टमपुत्रहननोद्युक्तां स्वभार्यां प्रति शांन्तनुप्रश्नाः।। 2 ।।
पूर्ववृत्तकथनपूर्वकं गङ्गायाः प्रतिवचनम्।। 3 ।।
वैशंपायन उवाच। | 1-105-1x |
संवत्सरानृतून्मासान्बुबुधे न बहून्गतान्। रममाणस्तया सार्धं यथाकामं नरेश्वरः।। | 1-105-1a 1-105-1b |
`दिविष्ठान्मानुषांश्चैव भोगान्भुङ्क्ते स वै नृपः।' आसाद्य शान्तनुः श्रीमान्मुमुदे योषितां वराम्।। | 1-105-2a 1-105-2b |
ऋतुकाले तु सा देवी दिव्यं गर्भमधारयत्। अष्टावजनयत्पुत्रांस्तस्मादमरसन्निभान्।। | 1-105-3a 1-105-3b |
जातं जातं च सा पुत्रं क्षिपत्यम्यसि भारत। सूतके कण्ठमाक्रम्य तान्निनाय यमक्षयम्।। | 1-105-4a 1-105-4b |
प्रीणाम्यहं त्वामित्युक्त्वा गङ्गास्रोतस्यमज्जयत्। तस्य तन्न प्रियं राज्ञः शान्तनोरभवत्तदा।। | 1-105-5a 1-105-5b |
न च तां किंचनोवाच त्यागाद्भीतो महीपतिः। `अमीमांस्या कर्मयोनिरागमश्चेति शान्तनुः।। | 1-105-6a 1-105-6b |
स्मरन्पितृवचश्चैव नापृच्छत्पुत्रकिल्बिषम्। जाताञ्जातांश्च वै हन्ति सा स्त्री सप्त वरान्सुतान्।। | 1-105-7a 1-105-7b |
शान्तनुर्धर्मभङ्गाच्च नापृच्छत्तां कथंचन। अष्टमं तु जिघांसन्त्यां चुक्षुभे शान्तनोर्धृतिः।।' | 1-105-8a 1-105-8b |
अथैनामष्टमे पुत्रे जाते प्रहसतीमिव। उवाच राजा दुःखार्तः परीप्सन्पुत्रमात्मनः।। | 1-105-9a 1-105-9b |
`आलभन्तीं तदा दृष्ट्वा तां स कौरवनन्दनः। अब्रवीद्भरतश्रेष्ठो वाक्यं परमदुःखितः।।' | 1-105-10a 1-105-10b |
मावधीः कस्य काऽसीति किं हिनत्सि सुतानिति। पुत्रघ्नि सुमहत्पापं संप्राप्तं ते सुगर्हितम्।। | 1-105-11a 1-105-11b |
गङ्गोवाच। | 1-105-12x |
पुत्रकाम न ते हन्मि पुत्रं पुत्रवतां वर। जीर्णस्तु मम वासोऽयं यथा स समयः कृतः।। | 1-105-12a 1-105-12b |
अहं गङ्गा जह्नुसुता महर्षिगणसेविता। देवकार्यार्थसिद्ध्यर्थमुषिताऽहं त्वया सह।। | 1-105-13a 1-105-13b |
इमेऽष्टौ वसवो देवा महाभागा महौजसः। वसिष्ठशापदोषेण मानुषत्वमुपागताः।। | 1-105-14a 1-105-14b |
तेषां जनयिता नान्यस्त्वदृते भुवि विद्यते। मद्विधा मानुषी धात्री लोके नास्तीह काचन।। | 1-105-15a 1-105-15b |
तस्मात्तज्जननीहेतोर्मानुषत्वमुपागता। जनयित्वा वसूनष्टौ जिता लोकास्त्वयाऽक्षयाः।। | 1-105-16a 1-105-16b |
देवानां समयस्त्वेष वसूनां संश्रुतो मया। जातं जातं मोक्षयिष्ये जन्मतो मानुषादिति।। | 1-105-17a 1-105-17b |
तत्ते शापाद्विनिर्मुक्ता आपवस्य महात्मनः। स्वस्ति तेस्तु गमिष्यामि पुत्रं पाहि महाव्रतम्।। | 1-105-18a 1-105-18b |
`अयं तव सुतस्तेषां वीर्येण कुलनन्दनः। संभूतोतिजनं कर्म करिष्यति न संशयः।। ।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि संभवपर्वणि पञ्चाधिकशततमोऽध्यायः।। 105 ।। | 1-105-19a 1-105-19b |
1-105-11 तेत्वया।। 1-105-15 धात्री गर्भधारिणी।। 1-105-17 संश्रुतोऽङ्गीकृतः।। 1-105-18 आपवस्य वसिष्ठस्य।। पञ्चाधिकशततमोऽध्यायः।। 105 ।।
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