महाभारतम्-01-आदिपर्व-123
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सभार्यस्य पाण्डोर्मृगयार्थं वनगमनम्।। 1 ।।
तत्र मृगरूपस्य मृग्या मैथुनं चरतः किन्दमस्य मुनेर्हननम्।। 2 ।।
मैथुनकाले त्वं मरिष्यसीति किन्दमेन पाण्डुं प्रति शापः।। 3 ।।
वैशंपायन उवाच। | 1-123-1x |
धृतराष्ट्राभ्यनुज्ञातः स्वबाहुविजितं धनम्। भीष्माय सत्यवत्यै च मात्रे चोपजहार सः।। | 1-123-1a 1-123-1b |
विदुराय च वै पाण्डुः प्रेषयामास तद्धनम्। सुहृदश्चापि धर्मात्मा धनेन समतर्पयत्।। | 1-123-2a 1-123-2b |
ततः सत्यवतीं भीष्मं कौसल्यां च यशस्विनीम्। शुभैः पाण्डुर्जितैरर्थैस्तोषयामास भारत।। | 1-123-3a 1-123-3b |
ननन्द माता कौसल्या तमप्रतिमतेजसम्। जयन्तमिव पौलोमी परिष्वज्य नर्षभम्।। | 1-123-4a 1-123-4b |
तस्य वीरस्य विक्रान्तैः सहस्रशतदक्षिणैः। अश्वमेधशतैरीजे धृतराष्ट्रो महामखैः।। | 1-123-5a 1-123-5b |
संप्रयुक्तस्तु कुन्त्या च माद्र्या च भरतर्षभ। जिततन्द्रीस्तदा पाण्डुर्बभूव वनगोचरः।। | 1-123-6a 1-123-6b |
हित्वा प्रासादनिलयं शुभानि शयनानि च। अरण्यनित्यः सततं बभूव मृगयापरः।। | 1-123-7a 1-123-7b |
स चरन्दक्षिणं पार्श्वं रम्यं हिमवतो गिरः। उवास गिरिपृष्ठेषु महाशालवनेषु च।। | 1-123-8a 1-123-8b |
रराज कुन्त्या माद्र्या च पाण्डुः सह वने चरन्। करेण्वोरिव मध्यस्थः श्रीमान्पौरन्दरो गजः।। | 1-123-9a 1-123-9b |
भारतं सह भार्याभ्यां खङ्गबाणधनुर्धरम्। विचित्रकवचं वीरं परमास्त्रविदं नृपम्। देवोऽयमित्यमन्यन्त चरन्तं वनवासिनः।। | 1-123-10a 1-123-10b 1-123-10c |
तस्य कामांश्च भोगांश्च नरा नित्यमतन्द्रिताः। उपजह्रुर्वनान्तेषु धृतराष्ट्रेण चोदिताः।। | 1-123-11a 1-123-11b |
तदासाद्य महारण्यं मृगव्यालनिषेवितम्। तत्र मैथुनकालस्थं ददर्श मृगयूथपम्।। | 1-123-12a 1-123-12b |
ततस्तं च मृगीं चैव रुक्मपुङ्खैः सुपत्रिभिः। निर्बिभेद शरैस्तीक्ष्णैः पाण्डुः पञ्चभिराशुगैः।। | 1-123-13a 1-123-13b |
स च राजन्महातेजा ऋषिपुत्रस्तपोधनः। भार्यया सह तेजस्वी मृगरूपेण सङ्गतः।। | 1-123-14a 1-123-14b |
स संयुक्तस्तया मृग्या मानुषीं वाचमीरयन्। क्षणेन पतितो भूमौ विललापातुरो मृगः।। | 1-123-15a 1-123-15b |
मृग उवाच। | 1-123-16x |
काममन्युवशं प्राप्ता बुद्ध्यन्तरगता अपि। वर्जयन्ति नृशंसानि पापेष्वपि रता नराः।। | 1-123-16a 1-123-16b |
न विधिं ग्रसते प्रज्ञा प्रज्ञां तु ग्रसते विधिः। विधिपर्यागतानर्थान्प्रज्ञावान्प्रतिपद्यते।। | 1-123-17a 1-123-17b |
शस्वद्धर्मात्मनां मुख्ये कुले जातस्य भारत। कामलोभाभिभूतस्य कथं ते चलिता मतिः।। | 1-123-18a 1-123-18b |
पाण्डुरुवाच। | 1-123-19x |
शत्रूणां या वधे वृत्तिः सा मृगाणां वधे स्मृता। राज्ञां मृग न मां मोहात्त्वं गर्हयितुमर्हसि।। | 1-123-19a 1-123-19b |
अच्छद्मनाऽमायया च मृगाणां वध इष्यते। स एव धर्मो राज्ञां तु तद्धि त्वं किं नु गर्हसे।। | 1-123-20a 1-123-20b |
अगस्त्यः सत्रमासीनश्चकार मृगयामृषिः। आरण्यान्सर्वदैवत्यान्मृगान्प्रोक्ष्य महावने।। | 1-123-21a 1-123-21b |
प्रमाणदृष्टधर्मेण कथमस्मान्विगर्हसे। अगस्त्यस्याभिचारेण युष्माकं विहितो वधः।। | 1-123-22a 1-123-22b |
न रिपून्वै समुद्दिश्य विमुञ्चन्ति नराः शरान्। रन्ध्र एषां विशेषेण वधकालः प्रशस्यते।। | 1-123-23a 1-123-23b |
प्रमत्तमप्रमत्तं वा विवृतं घ्नन्ति चौजसा। उपायैर्विविधैस्तीक्ष्णैः कस्मान्मृग विगर्हसे।। | 1-123-24a 1-123-24b |
मृग उवाच। | 1-123-25x |
नाहं घ्न्तं मृगन्राजन्विगर्हे चात्मकारणात्। मैथुनं तु प्रतीक्ष्यं मे त्वयेहाद्यानृशंस्यतः।। | 1-123-25a 1-123-25b |
सर्वभूतहिते काले सर्वभूतेप्सिते तथा। को हि विद्वान्मृगं हन्याच्चरन्तं मैथुनं वने।। | 1-123-26a 1-123-26b |
अस्यां मृग्यां च राजेन्द्र हर्षान्मैथुनमाचरम्। पुरुषार्थफलं कर्तुं तत्त्वया विफलीकृतम्।। | 1-123-27a 1-123-27b |
पौरवाणां महाराज तेषामक्लिष्टकर्मणाम्। वंशे जातस्य कौरव्य नानुरूपमिदं तव।। | 1-123-28a 1-123-28b |
नृशंसं कर्म सुमहत्सर्वलोकविगर्हितम्। अस्वर्ग्यमयशस्यं चाप्यधर्मिष्ठं च भारत।। | 1-123-29a 1-123-29b |
स्त्रीभोगानां विशेषज्ञः शास्त्रधर्मार्थतत्त्ववित्। नार्हस्त्वं सुरसङ्काश कर्तुमस्वर्ग्यमीदृशम्।। | 1-123-30a 1-123-30b |
त्वया नृशंसकर्तारः पापाचाराश्च मानवाः। निग्राह्याः पार्थिवश्रेष्ठ त्रिवर्गपरिवर्जिताः।। | 1-123-31a 1-123-31b |
किं कृतं ते नरश्रेष्ठ मामिहानागसं घ्नतः। मुनिं मूलफलाहारं मृगवेषधरं नृप।। | 1-123-32a 1-123-32b |
वसमानमरण्येषु नित्यं शमपरायणम्। त्वयाऽहं हिंसितो यस्मात्तस्मात्त्वामप्यनागसः।। | 1-123-33a 1-123-33b |
द्वयोर्नृशंसकर्तारमवशं काममोहितम्। जीवितान्तकरो भावो मैथुने समुपैष्यति।। | 1-123-34a 1-123-34b |
अहं हि किंदमो नाम तपसा भावितो मुनिः। व्यपत्रपन्मनुष्याणां मृग्यां मैथुनमाचरम्।। | 1-123-35a 1-123-35b |
मृगो भत्वा मृगैः सार्धं चरामि गहने वने। न तु ते ब्रह्महत्येयं भविष्यत्यविजानतः।। | 1-123-36a 1-123-36b |
मृगरूपधरं हत्वा मामेवं काममोहितम्। अस्य तु त्वं फलं मूढ प्राप्स्यसीदृशमेव हि।। | 1-123-37a 1-123-37b |
प्रियया सह संवासं प्राप्य कामविमोहितः। त्वमप्यस्यामवस्थायां प्रेतलोकं गमिष्यसि।। | 1-123-38a 1-123-38b |
अन्तकाले हि संवासं यया गन्तासि कान्तया। प्रेतराजपुरं प्राप्तं सर्वभूतदुरत्ययम्। भक्त्या मतिमतां श्रेष्ठ सैव त्वाऽनुगमिष्यति।। | 1-123-39a 1-123-39b 1-123-39c |
वर्तमानः सुखे दुःखं यथाऽहं प्रापितस्त्वया। तथा त्वां च सुखं प्राप्तं दुःखमभ्यागमिष्यति।। | 1-123-40a 1-123-40b |
वैशंपायन उवाच। | 1-123-41x |
एवमुक्त्वा सुदुःखार्तो जीवितात्स व्यमुच्यत। मृगः पाण्डुश्च दुःखार्तः क्षणेन समपद्यत।। | 1-123-41a 1-123-41b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि संभवपर्वणि त्रयोविंशत्यधिकशततमोऽध्यायः।। 123 ।। |
1-123-23 रन्ध्रे विशस्त्रत्वव्यसनाक्रान्तत्वादिसमये शरान्न विमुञ्चन्तीति संबन्धः। किंत्वेषां शत्रूणां वधकालः सर्वलोकप्रसिद्धः सङ्ग्राम आभिमुख्यादिमान्स एव प्रशश्यतेऽन्यो निन्द्यत इत्यर्थः।। 1-123-24 प्रमत्तमसावधानम्।। 1-123-32 ते त्वया।। 1-123-34 द्वयोः स्त्रीपुंसयोर्नृशंसं निन्द्यं मैथुनासक्तयोर्वधस्तस्य कर्तारम्।। 1-123-39 प्राप्तं त्वा त्वाम्।। त्रयोविंशत्यधिकशततमोऽध्यायः।। 123 ।।
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