महाभारतम्-01-आदिपर्व-040
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जरत्कारुनामव्युत्पत्तिकथनम्।। 1 ।। शौनकस्य सौतिं प्रति आस्तीकोत्पत्तिप्रश्नः।। 2 ।। प्रसङ्गेन परीक्षिन्मृगयाकथनम्।। 3 ।। परीक्षिता शमीकस्कन्धे मृतसर्पनिधानम्।। 4 ।।
शौनक उवाच। | 1-40-1x |
जरत्कारुरिति ख्यातो यस्त्वया सूतनन्दन। इच्छामि तदहं श्रोतुं ऋषेस्तस्य महात्मनः।। | 1-40-1a 1-40-1b |
किं कारणं जरत्कारोर्नामैतत्प्रथितं भुवि। जरत्कारुनिरुक्तिं त्वं यथावद्वक्तुमर्हसि।। | 1-40-2a 1-40-2b |
सौतिरुवाच। | 1-40-3x |
जरेति क्षयमाहुर्वै दारुणं कारुसंज्ञितम्। शरीरं कारु तस्यासीत्तत्स धीमाञ्शनैःशनैः।। | 1-40-3a 1-40-3b |
क्षपयामास तीव्रेण तपसेत्यत उच्यते। जरत्कारुरिति ब्रह्मन्वासुकेर्भगिनी तथा।। | 1-40-4a 1-40-4b |
एवमुक्तस्तु धर्मात्मा शौनकः प्राहसत्तदा। उग्रश्रवसमामन्त्र्य उपपन्नमिति ब्रुवन्।। | 1-40-5a 1-40-5b |
शौनक उवाच। | 1-40-6x |
उक्तं नाम यथा पूर्वं सर्वं तच्छ्रुतवानहम्। यथा तु जातो ह्यास्तीक एतदिच्छामि वेदितुम्। तच्छ्रुत्वा वचनं तस्य सौतिः प्रोवाच शास्त्रतः।। | 1-40-6a 1-40-6b 1-40-6c |
सौतिरुवाच। | 1-40-7x |
संदिश्य पन्नगान्सर्वान्वासुकिः सुसमाहितः। स्वसारमुद्यम्य तदा जरत्कारुमृषिं प्रति।। | 1-40-7a 1-40-7b |
अथ कालस्य महतः स मुनिः संशितव्रतः। तपस्यभिरतो धीमान्स दारान्नाभ्यकाङ्क्षत।। | 1-40-8a 1-40-8b |
स तूर्ध्वरेतास्तपसि प्रसक्तः स्वाध्यायवान्वीतभयः कृतात्मा। चचार सर्वां पृथिवीं महात्मा न चापि दारान्मनसाध्यकाङ्क्षत्।। | 1-40-9a 1-40-9b 1-40-9c 1-40-9d |
ततोऽपरस्मिन्संप्राप्ते काले कस्मिंश्चिदेव तु। परिक्षिन्नाम राजासीद्ब्रह्मन्कौरववंशजः।। | 1-40-10a 1-40-10b |
यथा पाण्डुर्महाबाहुर्धनुर्धरवरो युधि। बभूव मृगयाशीलः पुरास्य प्रपितामहः।। | 1-40-11a 1-40-11b |
`तथा विख्यातवाँल्लोके परीक्षिदभिमन्युजः।' मृगान्विध्यन्वराहांश्च तरक्षून्महिषांस्तथा। अन्यांश्च विविधान्वन्यांश्चचार पृथिवीपतिः।। | 1-40-12a 1-40-12b 1-40-12c |
स कदाचिन्मृगं विद्ध्वा बाणेनानतपर्वणा। पृष्ठतो धनुरादाय ससार गहने वने।। | 1-40-13a 1-40-13b |
यथैव भगवान्रुद्रो विद्ध्वा यज्ञमृगं दिवि। अन्वगच्छद्धनुष्पाणिः पर्यन्वेष्टुमितस्ततः।। | 1-40-14a 1-40-14b |
न हि तेन मृगो विद्धो जीवन्गच्छति वै वने। पूर्वरूपं तु तत्तूर्णं तस्यासीत्स्वर्गतिं प्रति।। | 1-40-15a 1-40-15b |
परिक्षितो नरेन्द्रस्य विद्धो यन्नष्टवान्मृगः। दूरं चापहृतस्तेन मृगेण स महीपतिः।। | 1-40-16a 1-40-16b |
परिश्रान्तः पिपासार्त आससाद मुनिं वने। गवां प्रचारेष्वासीनं वत्सानां मुखनिःसृतम्।। | 1-40-17a 1-40-17b |
भूयिष्ठमुपयुञ्जानं फेनमापिबतां पयः। तमभिद्रुत्य वेगेन स राजा संशितव्रतम्।। | 1-40-18a 1-40-18b |
अपृच्छद्धनुरुद्यम्य तं मुनिं क्षुच्छ्रमान्वितः। भोभो ब्रह्मन्नहं राजा परीक्षिदभिमन्युजः।। | 1-40-19a 1-40-19b |
मया विद्धो मृगो नष्टः कच्चित्तं दृष्टवानसि। स मुनिस्तं तु नोवाच किंचिन्मौनव्रते स्थितः।। | 1-40-20a 1-40-20b |
तस्य स्कन्धे मृतं सर्पं क्रुद्धो राजा समासजत्। समुत्क्षिप्य धनुष्कोट्या स चैनं समुपैक्षत।। | 1-40-21a 1-40-21b |
न स किंचिदुवाचैनं शुभं वा यदि वाऽशुभम्। स राजा क्रोधमुत्सृज्य व्यथितस्तं तथागतम्। दृष्ट्वा जगाम नगरमृषिस्त्वासीत्तथैव सः।। | 1-40-22a 1-40-22b 1-40-22c |
न हि तं राजशार्दूलं क्षमाशीलो महामुनिः। स्वधर्मनिरतं भूपं समाक्षिप्तोऽप्यधर्षयत्।। | 1-40-23a 1-40-23b |
न हि तं राजशार्दूलस्तथा धर्मपरायणम्। जानाति भरतश्रेष्ठस्तत एनमधर्षयत्।। | 1-40-24a 1-40-24b |
तरुणस्तस्य पुत्रोऽभूत्तिग्मतेजा महातपाः। शृङ्गी नाम महाक्रोधो दुष्पसादोमहाव्रतः।। | 1-40-25a 1-40-25b |
स देवं परमासीनं सर्वभूतहिते रतम्। ब्रह्माणमुपतस्थे वै काले काले सुंसयतः।। | 1-40-26a 1-40-26b |
सतेन समनुज्ञातो ब्रह्मणा गृहमेयिवान्। सख्योक्तः क्रीडमानेन स तत्र हसता किल।। | 1-40-27a 1-40-27b |
संरम्भात्कोपनोऽतीव विषकल्पो मुनेः सुतः। उद्दिश्य पितरं तस्य यच्छ्रुत्वा रोषमाहरत्। ऋषिपुत्रेण नर्मार्थे कृशेन द्विजसत्तम।। | 1-40-28a 1-40-28b 1-40-28c |
कृश उवाच। | 1-40-29x |
तेजस्विनस्तव पिता तथैव च तपस्विनः। शवं स्कन्धेन वहति मा शृङ्गिन्गर्वितो भव।। | 1-40-29a 1-40-29b |
व्याहरत्स्वृषिपुत्रेषु मा स्म किंचिद्वचो वद। अस्मद्विधेषु सिद्धेषु ब्रह्मवित्सु तपस्विषु।। | 1-40-30a 1-40-30b |
क्व ते पुरुषमानित्वं क्व ते वाचस्तथाविधाः। दर्पजाः पितरं द्रष्टा यस्त्वं शवधरं तथा।। | 1-40-31a 1-40-31b |
पित्रा च तव तत्कर्म नानुरूपमिवात्मनः। कृतं मुनिजनश्रेष्ठ येनाहं भृशदुःखितः।। | 1-40-32a 1-40-32b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि चत्वारिंशोऽध्यायः।। 40 ।। |
1-40-3 कारु कामाद्युपद्रवमूलत्वाद्दारुणं शरीरं जरयति क्षपयतीति जरत्कारुरिति निर्वचनम्।। 1-40-4 तथा तादृस्येव।। 1-40-5 प्राहसत् अतिजीर्णयोरपि ब्रह्मचर्यविनाशः प्रसक्त इत्याश्चर्यं मत्वेति भावः। आमन्त्र्य हेउग्रश्रव इति संबोध्य। उपपन्नं युक्तं यत्तुल्यवयोरूपयोर्विवाह इति भावः।। 1-40-15 तत् मृगस्यादर्शनं। पूर्वरूपं कारणम्।। 1-40-17 प्रचारेषु गोष्ठेषु।। 1-40-18 उपयुञ्जानं भक्षयन्तम्। पयः आपिबतां वत्सानामिति पूर्वेणान्वयः।। 1-40-21 समासजत् आरोपयामास।। चत्वारिंशोऽध्यायः।। 40 ।।
आदिपर्व-039 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आदिपर्व-041 |