महाभारतम्-01-आदिपर्व-205
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अर्जुनेन कर्णपराजयः।। 1 ।।
भीमेन कर्णपराजयः।। 2 ।।
युधिष्ठिरादिभिर्दुर्योधनादिपराजयः।। 3 ।।
पुनर्युद्धाय कृतनिश्चयानां राज्ञां श्रीकृष्णवाक्येन युद्धोद्योगाद्विरम्य स्वस्वालयगमनम्।। 4 ।।
द्रौपद्या सह भीमार्जुनयोः कुलालगृहप्रवेशः।। 5 ।।
वैशंपायन उवाच। | 1-205-1x |
अजिनानि विधुन्वन्तः करकाश्च द्विजर्षभाः। ऊचुस्ते भीर्न कर्तव्या वयं योत्स्यामहे परान्।। | 1-205-1a 1-205-1b |
तानेवं वदतो विप्रानर्जुनः प्रहसन्निव। उवाच प्रेक्षका भूत्वा यूयं तिष्ठत पार्श्वतः।। | 1-205-2a 1-205-2b |
अहमेनानजिह्माग्रैः शतशो विकिरञ्छरैः। वारयिष्यामि संक्रुद्धान्मन्त्रैराशीविषानिव।। | 1-205-3a 1-205-3b |
इति तद्धनुरानम्य शुल्कावाप्तं महाबलः। भ्रात्रा भीमेन सहितस्तस्थौ गिरिरिवाचलः।। | 1-205-4a 1-205-4b |
ततः कर्णमुखान्दृष्ट्वा क्षत्रियान्युद्धदुर्मदान्। संपेततुरभीतौ तौ गजौ प्रतिगजानिव।। | 1-205-5a 1-205-5b |
ऊचुश्च वाचः परुषास्ते राजानो युयुत्सवः। आहवे हि द्विजस्यापि वधो दृष्टो युयुत्सतः।। | 1-205-6a 1-205-6b |
इत्येवमुक्त्वा राजानः सहसा दुद्रुवुर्द्विजान्। ततः कर्णो महातेजा जिष्णुं प्रति ययौ रणे।। | 1-205-7a 1-205-7b |
युद्धार्थी वासिताहेतोर्गजः प्रतिगजं यथा। भीमसेनं ययौ शल्यो मद्राणामीश्वरो बली।। | 1-205-8a 1-205-8b |
दुर्योधनादयः सर्वे ब्राह्मणैः सह संगताः। मृदुपूर्वमयत्नेन प्रत्ययुध्यंस्तदाऽऽहवे।। | 1-205-9a 1-205-9b |
ततोऽर्जुनः प्रत्यविध्यदापतन्तं शितैः शरैः। कर्णं वैकर्तनं श्रीमान्विकृष्य बलवद्धनुः।। | 1-205-10a 1-205-10b |
तेषां शराणां वेगेन शितानां तिग्मतेजसाम्। विमुह्यमानो राधेयो यत्नात्तमनुधावति।। | 1-205-11a 1-205-11b |
तावुभावप्यनिर्देश्यौ लाघवाज्जयतां वरौ। अयुध्येतां सुसंरब्धावन्योन्यविजिगीषिणौ।। | 1-205-12a 1-205-12b |
कृते प्रतिकृतं पश्य पश्य बाहुबलं च मे। इति शूरार्थवचनैरभाषेतां परस्परम्।। | 1-205-13a 1-205-13b |
ततोऽर्जुनस्य भुजयोर्वीर्यमप्रतिमं भुवि। ज्ञात्वा वैकर्तनः कर्णः संरब्धः समयोधयत्।। | 1-205-14a 1-205-14b |
अर्जुनेन प्रयुक्तांस्तान्बाणान्वेगवतस्तदा। प्रतिहत्य ननादोच्चैः सैन्यानि तदपूजयन्।। | 1-205-15a 1-205-15b |
कर्ण उवाच। | 1-205-16x |
तुष्यामि ते विप्रमुख्य भुजवीयर्स्य संयुगे। अविषादस्य चैवास्य शस्त्रास्त्रविजयस्य च।। | 1-205-16a 1-205-16b |
किं त्वं साक्षाद्धनुर्वेदो रामो वा विप्रसत्तम। अथ साक्षाद्धरिहयः साक्षाद्वा विष्णुरच्युतः।। | 1-205-17a 1-205-17b |
आत्मप्रच्छादनार्थं वै बाहुवीर्यमुपाश्रितः। विप्ररूपं विधायेदं मन्ये मां प्रतियुध्यसे।। | 1-205-18a 1-205-18b |
न हि मामाहवे क्रुद्धमन्यः साक्षाच्छचीपतेः। पुमान्योधयितुं शक्तः पाण्डवाद्वा किरीटिनः।। | 1-205-19a 1-205-19b |
`दग्धा जतुगृहे सर्वे पाण्डवाः सार्जुनास्तदा। विनार्जुनं वा समरे मां निहन्तुमशक्नुवन्।।' | 1-205-20a 1-205-20b |
तमेवंवादिनं तत्र फाल्गुनः प्रत्यभाषत। नास्मि कर्ण धनुर्वेदो नास्मि रामः प्रतापवान्।। | 1-205-21a 1-205-21b |
ब्राह्मणोऽस्मि युधां श्रेष्ठः सर्वशस्त्रभृतां वरः। ब्राह्मे पौरन्दरे चास्त्रे निष्ठितोगुरुशासनात्।। | 1-205-22a 1-205-22b |
स्थितोऽस्म्यद्य रणे जेतुं त्वां वै वीर स्थिरो भव। `निर्जितोऽस्मीति वा ब्रूहि ततो व्रज यथासुखम्।। | 1-205-23a 1-205-23b |
वैशंपायन उवाच। | 1-205-24x |
एवमुक्त्वाऽथ कर्णस्य धनुश्चिच्छेद पाण्डवः। ततोऽन्यद्धनुरादाय संयोद्धुं सन्दधे शरम्।। | 1-205-24a 1-205-24b |
दृष्ट्वा तच्चापि कौन्तेयश्छित्वा तद्धनुराशुगैः। तथा वैकर्तनं कर्णं बिभेद समरेऽर्जुनः।। | 1-205-25a 1-205-25b |
ततः कर्णस्तु राधेयः छिन्नछन्वा महाबलः। शरैरतीव विद्धाङ्गः पलायनमथाकरोत्।। | 1-205-26a 1-205-26b |
पुनरायान्मुहूर्तेन गृहीत्वा सशरं धनुः। ववर्ष शरवर्षाणि पार्थं वैकर्तनस्तथा।। | 1-205-27a 1-205-27b |
तानि वै शरजालानि कौन्तेयोऽभ्यहनच्छरैः। ज्ञात्वा सर्वाञ्शरान्घोरान्कर्णोऽदावद्द्रुतं बहिः।।' | 1-205-28a 1-205-28b |
ब्राह्मं तेजस्तदाऽजय्यं मन्यमानो महारथः। अपरस्मिन्वनोद्देशे वीरौ शल्यवृकोदरौ।। | 1-205-29a 1-205-29b |
बलिनौ युद्धसंपन्नौ विद्यया च बलेन च। अन्योन्यमाह्वयन्तौ तु मत्ताविव महागजौ।। | 1-205-30a 1-205-30b |
मुष्टिभिर्जानुभिश्चैव निघ्नन्तावितरेतरम्। प्रकर्षणाकर्षणयोरभ्याकर्षविकर्षणैः।। | 1-205-31a 1-205-31b |
आचकर्षतुरन्योन्यं मुष्टिभिश्चापि जघ्नतुः। ततश्चटचटाशब्दः सुघोरो ह्यभवत्तयोः।। | 1-205-32a 1-205-32b |
पाषाणसंपातनिभैः प्रहारैरभिजघ्नतुः। मुहूर्तं तौ तदाऽन्योन्यं समरे पर्यकर्षताम्।। | 1-205-33a 1-205-33b |
ततो भीमः समुत्क्षिप्य बाहुभ्यां शल्यमाहवे। अपातयत्कुरुश्रेष्ठो ब्राह्मणा जहसुस्तदा।। | 1-205-34a 1-205-34b |
तत्राश्चर्यं भीमसेनश्चकार पुरुषर्षभः। यच्छल्यं पातितं भूमौ नावधीद्बलिनं बली।। | 1-205-35a 1-205-35b |
पातिते भीमसेनेन शल्ये कर्णे च शङ्किते। `विस्मयः परमो जज्ञे सर्वेषां पश्यतां नृणाम्।। | 1-205-36a 1-205-36b |
ततो राजसमूहस्य पश्यतो वृक्षमारुजत्। ततस्तु भीमं संज्ञाभिर्वारयामास धर्मराट्।। | 1-205-37a 1-205-37b |
आकारज्ञस्तथा भ्रातुः पाण्डवोऽपि न्यवर्तत। धर्मराजश्च कौरव्य दुर्योधनममर्षणम्।। | 1-205-38a 1-205-38b |
अयोधयत्सभामध्ये पश्यतां वै महीक्षिताम्। ततो दुर्योधनस्तं तु ह्यवज्ञाय युधिष्ठिरम्।। | 1-205-39a 1-205-39b |
नायोधयत्तदा तेन बलवान्वै सुयोधनः। एतस्मिन्नन्तरेऽविध्यद्बाणेनानतपर्वणा।। | 1-205-40a 1-205-40b |
दुर्योधनममित्रघ्नं धर्मराजो युधिष्ठिरः। ततो दुर्योधनः क्रुद्धो दण्डाहत इवोरगः।। | 1-205-41a 1-205-41b |
प्रत्ययुध्यत राजानं यत्नं परममास्थितः। छित्त्वा राजा धनुः सज्यं धार्तराष्ट्रस्य संयुगे।। | 1-205-42a 1-205-42b |
अभ्यवर्षच्छरौघैस्तं स हित्वा प्राद्रवद्रणम्। दुःशासनस्तु संक्रुद्धः सहदेवेन पार्थिव।। | 1-205-43a 1-205-43b |
युद्ध्वा च सुचिरं कालं सहदेवेन निर्जितः। उत्सृज्य च धनुः सङ्ख्ये जानुभ्यामवनीं गतः। उत्थाय सोऽभिदुद्राव सोसिं जग्राह चर्म च।। | 1-205-44a 1-205-44b 1-205-44c |
विकर्णचित्रसेनाभ्यां निगृहीतश्च कौरवः। मा युद्धमिति कौरव्य ब्राह्मणेनाबलेन वै।। | 1-205-45a 1-205-45b |
दुःसहो नकुलश्चोभौ युद्धं कर्तुं समुद्यतै। तौ दृष्ट्वा कौरवा युद्धं वाक्यमूचुर्महाबलौ।। | 1-205-46a 1-205-46b |
निवर्तन्तां भवन्तो वै कुतो विप्रेषु क्रूरता। दुर्बला ब्राह्मणाश्चेमे भवन्तो वै महाबलाः।। | 1-205-47a 1-205-47b |
द्वावत्र ब्राह्मणौ क्रूरौ वाय्विन्द्रसदृशौ बले। ये वा के वा नमस्तेभ्यो गच्छामः स्वपुरं वयम्।। | 1-205-48a 1-205-48b |
एवं संभाषमाणास्ते न्यवर्तन्ताथ कौरवाः। जहृषुर्ब्राह्मणास्तत्र समेतास्तत्र सङ्घशः।। | 1-205-49a 1-205-49b |
बहुशस्ते ततस्तत्र क्षत्रिया रणमूर्धनि। प्रेक्षमाणास्तथाऽतिष्ठन्ब्राह्मणांश्च समन्ततः।। | 1-205-50a 1-205-50b |
ब्राह्मणाश्च जयं प्राप्ताः कन्यामादाय निर्ययुः। विजिते भीमसेनेन शल्ये कर्णे च निर्जिते।। | 1-205-51a 1-205-51b |
दुर्योधने चापयाते तथा दुःशासने रणात्।' शङ्किताः सर्वराजानः परिवव्रुर्वृकोदरम्।। | 1-205-52a 1-205-52b |
ऊचुश्च सहितास्तत्र साध्विमौ ब्राह्मणर्षभौ। विज्ञायेतां क्वजन्मानौ क्वनिवासौ तथैव च।। | 1-205-53a 1-205-53b |
को हि राधासुतं कर्णं शक्तो योधयितुं रणे। अन्यत्र रामाद्द्रोणाद्वा पाण्डवाद्वा किरीटिनः।। | 1-205-54a 1-205-54b |
कृष्णाद्वा देवकीपुत्रात्कृपाद्वापि शरद्वतः। को वा दुर्योधनं शक्तः प्रतियोथयितुं रणे।। | 1-205-55a 1-205-55b |
तथैव मद्राधिपतिं शल्यं बलवतांवरम्। बलदेवादृते वीरात्पाण्डवाद्वा वृकोदरात्।। | 1-205-56a 1-205-56b |
वीराद्दुर्योधनाद्वाऽन्यः शक्तः पातयितुं रणे। क्रियतामवहारोऽस्माद्युद्धाद्ब्राह्मणसंवृतात्।। | 1-205-57a 1-205-57b |
ब्राह्मणा हि सदा रक्ष्याः सापराधाऽपिनित्यदा। अथैनानुपलभ्येह पुनर्योत्स्याम हृष्टवत्।। | 1-205-58a 1-205-58b |
वैशंपायन उवाच। | 1-205-59x |
तांस्तथावादिनः सर्वान्प्रसमीक्ष्य क्षितीश्वरान्। अथान्यान्पुरुषांश्चापि कृत्वा तत्कर्म संयुगे।। | 1-205-59a 1-205-59b |
तत्कर्म भीमस्य समीक्ष्य कृष्णः कुन्तीसुतौ तौ परिशङ्कमानः। निवारयामास महीपतींस्ता- न्धर्मेण लब्धेत्यनुनीय सर्वान्।। | 1-205-60a 1-205-60b 1-205-60c 1-205-60d |
एवं ते विनिवृत्तास्तु युद्धाद्युद्धविशारदाः। यथावासं ययुः सर्वे विस्मिता राजसत्तमाः।। | 1-205-61a 1-205-61b |
वृत्तो ब्रह्मोत्तरो रङ्गः पाञ्चाली ब्राह्मणैर्वृता। इति ब्रुवन्तः प्रययुर्ये तत्रासन्समागताः।। | 1-205-62a 1-205-62b |
ब्राह्मणैस्तु प्रतिच्छन्नौ रौरवाजिनवासिभिः। कृच्छ्रेण जग्मतुस्तौ तु भीमसेनधनञ्जयौ।। | 1-205-63a 1-205-63b |
विमुक्तौ जनसंबाधाच्छत्रुभिः परिविक्षतौ। कृष्णयानुगतौ तत्र नृवीरौ तौ विरेजतुः।। | 1-205-64a 1-205-64b |
पौर्णमास्यां घनैर्मुक्तौ चन्द्रसूर्याविवोदितौ। तेषां माता बहुविधं विनाशं पर्यचिन्तयत्।। | 1-205-65a 1-205-65b |
अनागच्छत्सु पुत्रेषु भैक्षकाले च लिङ्घिते। धार्तराष्ट्रैर्हताश्च स्युर्विज्ञाय कुरुपुङ्गवाः।। | 1-205-66a 1-205-66b |
मायान्वितैर्वा रक्षोभिः सुघोरैर्दृढवैरिभिः। विपरीतं मतं जातं व्यासस्यापि महात्मनः।। | 1-205-67a 1-205-67b |
इत्येवं चिन्तयामासं सुतस्नेहावृता पृथा। ततः सुप्तजनप्राये दुर्दिने मेघसंप्लुते।। | 1-205-68a 1-205-68b |
महत्यथापराह्णे तु घनैः सूर्य इवावृतः। ब्राह्मणैः प्राविशत्तत्र जिष्णुर्भार्गववेश्म तत्।। | 1-205-69a 1-205-69b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि स्वयंवरपर्वणि प़ञ्चाधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 205 ।। |
1-205-12 विजिगीषिणौ विजिगीषावन्तौ।। 1-205-29 वनोद्देशे रङ्गदृशां निवासस्थाने।। 1-205-34 समुत्क्षिप्य कूष्माण्डफलवदपातयत्।। 1-205-57 अवहारो युद्धान्निवर्तनं।। 1-205-59 संयुगे तत्कर्म कृत्वा तूष्णींभूताविति शेषः।। 1-205-62 ब्रह्म ब्राह्मणजातिः उत्तरं उत्कृष्टं यस्मिन्स ब्रह्मोत्तरः।। 1-205-69 भार्गववेश्म कुलालगृहं।। पाञ्चाधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 205 ।।
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