महाभारतम्-01-आदिपर्व-251
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अग्निना वरुणात् आहृतानां रथादीनां अर्जुनाय दानम्।। 1 ।।
अग्नेः खाण्डवदाहारम्भः।। 2 ।।
वैशंपायन उवाच। | 1-251-1x |
एवमुक्तः स भगवान्धूमकेतुर्हुताशनः। चिन्तयामास वरुणं लोकपालं दिदृक्षया।। | 1-251-1a 1-251-1b |
आदित्यमुदके देवं निवसन्तं जलेश्वरम्। स च तच्चिन्तितं ज्ञात्वा दर्शयामास पावकम्।। | 1-251-2a 1-251-2b |
तमब्रवीद्भमकेतुः प्रतिगृह्य जलेश्वरम्। चतुर्थं लोकपालानां देवदेवं सनातनम्।। | 1-251-3a 1-251-3b |
सोमेन राज्ञा यद्दत्तं धनुश्चैवेषुधी च ते। तत्प्रयच्छोभयं शीघ्रं रथं च कपिलक्षणम्।। | 1-251-4a 1-251-4b |
कार्यं च सुमहत्पार्थो गाण्डीवेन करिष्यति। चक्रेण वासुदेवश्च तन्ममाद्य प्रदीयताम्।। | 1-251-5a 1-251-5b |
ददानीत्येव वरुणः पावकं प्रत्यभाषत। तदद्भुतं महावीर्यं यशःकीर्तिविवर्धनम्।। | 1-251-6a 1-251-6b |
सर्वशस्त्रैरनाधृष्यं सर्वशस्त्रप्रमाथि च। सर्वायुधमहामात्रं परसैन्यप्रधर्षणम्।। | 1-251-7a 1-251-7b |
एकं शतसहस्रेण संमितं राष्ट्रवर्धनम्। चित्रमुच्चावचैर्वर्णैः शोभितं श्लक्ष्णमव्रणम्।। | 1-251-8a 1-251-8b |
देवदानवगन्धर्वैः पूजितं शाश्वतीः समाः। प्रादाच्चैव धनूरत्नमक्षय्यौ च महेषुधी।। | 1-251-9a 1-251-9b |
रथं च दिव्याश्वयुजं कपिप्रवरकेतनम्। उपेतं राजतैरश्वैर्गान्धर्वैर्हेममालिभिः।। | 1-251-10a 1-251-10b |
पाण्डुराभ्रप्रतीकाशैर्मनोवायुसमैर्जवे। सर्वोपकरणैर्युक्तमजय्यं देवदानवैः।। | 1-251-11a 1-251-11b |
भावुमन्तं महाघोषं सर्वरत्नमनोरमम्। ससर्ज यं सुतपसा भौमनो भुवनप्रभुः।। | 1-251-12a 1-251-12b |
प्रजापतिरनिर्देश्यं यस्य रूपं रवेरिव। यं स्म सोमः समारुह्य दानवानजयत्प्रभुः।। | 1-251-13a 1-251-13b |
नवमेघप्रतीकाशं ज्ललन्तमिव च श्रिया। आश्रितौ तं रथश्रेष्ठं शक्रायुधसमावुभौ।। | 1-251-14a 1-251-14b |
तापनीया सुरुचिरा ध्वजयष्टिरनुत्तमा। तस्यां तु वानरो दिव्यः सिंहशार्दूलकेतनः।। | 1-251-15a 1-251-15b |
`हनूमान्नाम तेजस्वी कामरूपी महाबलः।' दिधक्षन्निव तत्र स्म संस्थितो मूर्ध्न्यशोभत। ध्वजे भूतानि तत्रासन्विविधानि महान्ति च।। | 1-251-16a 1-251-16b 1-251-16c |
नादेन रिपुसैन्यानां येषां संज्ञा प्रणश्यति। स तं नानापताकाभिः शोभितं रथसत्तमम्।। | 1-251-17a 1-251-17b |
प्रदक्षिणमुपावृत्य दैवतेभ्यः प्रणम्य च। सन्नद्धः कवची खड्गी बद्धगोधाङ्गुलित्रकः।। | 1-251-18a 1-251-18b |
आरुरोह तदा पार्थो विमानं सुकृती यथा। तच्च दिव्यं धनुः श्रेष्ठं ब्रह्मणा निर्मितं पुरा।। | 1-251-19a 1-251-19b |
गाण्डीवमुपसंगृह्य बभूव मुदितोऽर्जुनः। हुताशनं पुरस्कृत्य ततस्तदपि वीर्यवान्।। | 1-251-20a 1-251-20b |
जग्राह बलमास्थाय ज्यया च युयुजे धनुः। मौर्व्यां तु योज्यमानायां बलिना पाण्डवेन ह।। | 1-251-21a 1-251-21b |
येऽशृष्वन्कूजितं यत्र तेषां वै व्यथितं मनः। लब्ध्वा रथं धनुश्चैव तथाऽक्षय्ये महेषुधी।। | 1-251-22a 1-251-22b |
बभूव कल्यः कौन्तेयः प्रहृष्टः साह्यकर्मणि। वज्रनाभं ततश्चक्रं ददौ कृष्णाय पावकः।। | 1-251-23a 1-251-23b |
आग्नेयमस्त्रं दयितं स च कल्योऽभवत्तदा। अब्रवीत्पावकश्चैवमेतेन मधुसूदन।। | 1-251-24a 1-251-24b |
अमानुषानपि रणे जेष्यसि त्वमसंशयम्। अनेन तु मनुष्याणां देवानामपि चाहवे।। | 1-251-25a 1-251-25b |
रक्षःपिशाचदैत्यानां नागानां चाधिकस्तथा। भविष्यसि न सन्देहः प्रवरोऽपि निबर्हणे।। | 1-251-26a 1-251-26b |
क्षिप्तं क्षिप्तं रणे चैतत्त्वया माधव शत्रुषु। हत्वाऽप्रतिहतं सङ्ख्ये पाणिमेष्यति ते पुनः।। | 1-251-27a 1-251-27b |
वैशंपायन उवाच। | 1-251-28x |
वरुणश्च ददौ तस्मै गदामशनिनिःस्वनाम्। दैत्यान्तकरणीं घोरां नाम्ना कौमोदकीं प्रभुः।। | 1-251-28a 1-251-28b |
ततः पावकमब्रूतां प्रहृष्टावर्जुनाच्युतौ। कृतास्त्रौ शस्त्रसंपन्नौ रथिनौ ध्वजिनावपि।। | 1-251-29a 1-251-29b |
कल्यौ स्वो भगवन्योद्धुमपि सर्वैः सुरासुरैः। किं पुनर्वज्रिणैकेन पन्नगार्थे युयुत्सता।। | 1-251-30a 1-251-30b |
अर्जुन उवाच। | 1-251-31x |
चक्रपाणिर्हृषीकेशो विचरन्युधि वीर्यवान्। चक्रेण भस्मसात्सर्वं विसृष्टेन तु वीर्यवान्। त्रिषु लोकेषु तन्नास्ति यन्न कुर्याज्जनार्दनः।। | 1-251-31a 1-251-31b 1-251-31c |
गाण्डीवं धनुरादाय तथाऽक्षय्ये महेषुधी। अहमप्युत्सहे लोकान्विजेतुं युधि पावक।। | 1-251-32a 1-251-32b |
सर्वतः परिवार्यैवं दावमेतं महाप्रभो। कामं संप्रज्वलाद्यैव कल्यौ स्वः साह्यकर्मणि।। | 1-251-33a 1-251-33b |
`यदि खाण्डवमेष्यति प्रमादा- त्सगणो वा परिरक्षितुं महेन्द्रः। शरताडितगात्रकुण्डलानां कदनं द्रक्ष्यति देववाहिनीनाम्।।' | 1-251-34a 1-251-34b 1-251-34c 1-251-34d |
वैशंपायन उवाच। | 1-251-35x |
एवमुक्तः स भगवान्दाशार्हेणार्जुनेन च। तैजसं रपमास्थाय दावं दग्धुं प्रचक्रमे।। | 1-251-35a 1-251-35b |
सर्वतः परिवार्याथ सप्तार्चिर्ज्वलनस्तथा। ददाह खाण्डवं दावं युगान्तमिव दर्शयन्।। | 1-251-36a 1-251-36b |
प्रतिगृह्य समाविश्य तद्वनं भरतर्षभ। मेघस्तनितनिर्घोषः सर्वभूतान्यकम्पयत्।। | 1-251-37a 1-251-37b |
दह्यतस्तस्य च बभौ रूपं दावस्य भारत। मेरोरिव नगेन्द्रस्य कीर्णस्यांशुमतोंशुभिः।। | 1-251-38a 1-251-38b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि खाण्डवदाहपर्वणि एकपञ्चाशदधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 251 ।। |
1-251-2 आदित्यमदितेः पुत्रम्।।
1-251-7 महामात्रं प्रधानम्।। 1-251-12 भौमनो विश्वकर्मा।। 1-251-15 सिंहशार्दूलवद्भयंकरः केतनः कायोयस्य सः।। 1-251-23 कल्यः समर्थः वज्रं वरत्रा सा नाभौ यस्य तत्।। 1-251-27 हत्वा हत्वा रिपून्सङ्ख्ये इति घ. पात।। एकपञ्चाशदधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 251 ।।
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