महाभारतम्-01-आदिपर्व-195
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ब्राह्मणीवाक्येन और्वंप्रति शरणागतानां क्षत्रियाणां चक्षुःप्राप्तिः।। 1 ।।
लोकविनाशार्थं तपस्यत और्वस्य तत्पितृकृततपोनिवारणम्।। 2 ।।
ब्राह्मण्युवाच। | 1-195-1x |
नाहं गृह्णामि वस्ताता दृष्टीर्नास्मि रुषान्विता। अयं तु भार्गवो नूनमूरुजः कुपितोऽद्य वः।। | 1-195-1a 1-195-1b |
तेन चक्षूंषि वस्ताता व्यक्तं कोपान्महात्मना। स्मरता निहतान्बन्धूनादत्तानि न संशयः।। | 1-195-2a 1-195-2b |
गर्भानपि यदा यूयं भृगूणां घ्नत पुत्रकाः। तदायमूरुणा गर्भो मया वर्षशतं धृतः।। | 1-195-3a 1-195-3b |
षडङ्गश्चाखिलो वेद इमं गर्भस्थमेव ह। विवेश भृगुवंशस्य भूयः प्रियचिकीर्षया।। | 1-195-4a 1-195-4b |
सोऽयं पितृवधाद्व्यक्तं क्रोधाद्वो हन्तुमिच्छति। तेजसा तस्य दिव्येन चक्षूंषि मुषितानि वः।। | 1-195-5a 1-195-5b |
तमेव यूयं याचध्वमौर्वं मम सुतोत्तमम्। अयं वः प्रणिपातेन तुष्टो दृष्टीः प्रदास्यति।। | 1-195-6a 1-195-6b |
वसिष्ठ उवाच। | 1-195-7x |
एवमुक्तास्ततः सर्वे राजानस्ते तमूरुजम्। ऊचुः प्रसीदेति तदा प्रसादं च चकार सः।। | 1-195-7a 1-195-7b |
अनेनैव च विख्यातो नाम्ना लोकेषु सत्तमः। स और्व इति विप्रर्षिरूरुं भित्त्वा व्यजायत।। | 1-195-8a 1-195-8b |
चक्षूंषि प्रतिलभ्याथ प्रतिजग्मुस्ततो नृपाः। भार्गवस्तु मुनिर्मेने सर्वलोकपराभवम्।। | 1-195-9a 1-195-9b |
स चक्रे तात लोकानां विनाशाय मतिं तदा। सर्वेषामेव कार्त्स्न्येन मनः प्रवणमात्मनः।। | 1-195-10a 1-195-10b |
इच्छन्नपचितिं कर्तुं भृगूणां भृगुनन्दनः। सर्वलोकविनाशाय तपसा सहतैधितः।। | 1-195-11a 1-195-11b |
तापयामास ताँल्लोकान्सदेवासुरमानुषान्। तपसोग्रेण महता नन्दयिष्यन्पितामहान्।। | 1-195-12a 1-195-12b |
ततस्तं पितरस्तात विज्ञाय कुलनन्दनम्। पितृलोकादुपागम्य सर्व ऊचुरिदं वचः।। | 1-195-13a 1-195-13b |
और्व दृष्टः प्रभावस्ते तपसोग्रस्य पुत्रक। प्रसादं कुरु लोकानां नियच्छ क्रोधमात्मनः।। | 1-195-14a 1-195-14b |
नानीशैर्हि तदा तात भृगुभिर्भावितात्मभिः। वधो ह्युपेक्षितः सर्वैः क्षत्रियाणां विहिंसताम्।। | 1-195-15a 1-195-15b |
आयुषा विप्रकृष्टेन यदा नः खेद आविशत्। तदाऽस्माभिर्वधस्तात क्षत्रियैरीप्सितः स्वयम्।। | 1-195-16a 1-195-16b |
निखातं यच्च वै वित्तं केनचिद्गृगुवेश्मनि। वैरायैव तदा न्यस्तं क्षत्रियान्कोपयिष्णुभिः।। | 1-195-17a 1-195-17b |
किं हि वित्तेन नः कार्यं स्वर्गेप्सूनां द्विजोत्तम। यदस्माकं धनाध्यक्षः प्रभूतं धनमाहरत्।। | 1-195-18a 1-195-18b |
यदा तु मृत्युरादातुं न नः शक्नोति सर्वशः। तदाऽस्माभिरयं दृष्ट उपायस्तात संमतः।। | 1-195-19a 1-195-19b |
आत्महा च पुमांस्तात न लोकाँल्लभते शुभान्। ततोऽस्माभिः समीक्ष्यैवं नात्मनात्मा निपातितः।। | 1-195-20a 1-195-20b |
न चैतन्नः प्रियं तात यदिदं कर्तुमिच्छसि। नियच्छेदं मनः पापात्सर्वलोकपराभवात्।। | 1-195-21a 1-195-21b |
मा वधीः क्षत्रियांस्तात न लोकान्सप्त पुत्रक। दूषयन्तं तपस्तेजः क्रोधमुत्पतितं जहि।। | 1-195-22a 1-195-22b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि चैत्ररथपर्वणि पञ्चनवत्यधिकशततमोऽध्यायः।। 195 ।। |
1-195-20 आत्महेति एतेन भृगुपतनादिना मरणं ब्राह्मणेतरविषयं दर्शितम्।। 1-195-22 मावधीरिति क्षत्रियान् तदनियन्तृत्वेनानपराधिनः। सप्तलोकान् भूरादींश्च मावधीः किंतु तपःसंभृतं तेजो दूषयन्तं क्रोधं जहि।। पञ्चनवत्यधिकशततमोऽध्यायः।। 195 ।।
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