महाभारतम्-01-आदिपर्व-100
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आकाशवाणीश्रवणानन्तरं सपुत्रायाः शकुन्तलाया राज्ञाङ्गीकारः।। १ ।।
भरतेतिनामकरणपूर्वकं पुत्रस्य राज्येऽभिषेकः।। २ ।।
वैशंपायन उवाच। | 1-100-1x |
अथान्तरिक्षे दुष्यन्तं वागुवाचाशरीरिणी। ऋत्विक्पुरोहिताचार्यैर्मन्त्रिभिश्चाभिसंवृतम्।। | 1-100-1a 1-100-1b |
माता भस्त्रा पितुः पुत्रो यस्माज्जातः स एव सः। भरस्व पुत्रं दौष्यन्तिं सत्यमाह शकुन्तला।। | 1-100-2a 1-100-2b |
`सर्वेभ्यो ह्यङ्गमङ्गेभ्यः साक्षादुत्पद्यते सुतः। आत्मा चैव सुतो नाम तेनैव तव पौरव।। | 1-100-3a 1-100-3b |
आहितं ह्यात्मनाऽऽत्मानं परिरक्ष इमं सुतम्। अनन्यां त्वं प्रतीक्षस्व मावमंस्थाः शकुन्तलाम्।। | 1-100-4a 1-100-4b |
स्त्रियः पवित्रमतुलमेतद्दुष्यन्त धर्मतः। मासि मासि रजो ह्यासां दुरितान्यपकर्षति।। | 1-100-5a 1-100-5b |
ततः सर्वाणि भूतानि व्याजह्रस्तं समन्ततः। | 1-100-6a |
देवा ऊचुः। | 1-100-6x |
आहितस्त्वत्तनोरेष मावमंस्थाः शकुन्तलाम्'।। | 1-100-6b |
रेतोधाः पुत्र उन्नयति नरदेव यमक्षयात्। त्वं चास्य धाता गर्भस्य सत्यमाह शकुन्तला।। | 1-100-7a 1-100-7b |
`पतिर्जायां प्रविशति स तस्यां जायते पुनः। अन्योन्यप्रकृतिर्ह्येषा मावमंस्थाः शकुन्तलाम्।।' | 1-100-8a 1-100-8b |
जाया जनयते पुत्रमात्मनोऽङ्गाद्द्विधा कृतम्। तस्माद्भरस्व दुष्यन्त पुत्रं शाकुन्तलं नृप।। | 1-100-9a 1-100-9b |
सुभूतिरेषा न त्याज्या जीवितं जीवयात्मजम्। शाकुन्तलं महात्मानं दुष्यन्त भर पौरवम्।। | 1-100-10a 1-100-10b |
भर्तव्योऽयं त्वया यस्मादस्माकं वचनादपि। तस्माद्भवत्वयं नाम्ना भरतो नाम ते सुतः।। | 1-100-11a 1-100-11b |
`भरताद्भारती कीर्तिर्येनेदं भारतं कुलम्। अपरे ये च पूर्वे च भारता इति तेऽभवन्।। | 1-100-12a 1-100-12b |
वैशंपायन उवाच। | 1-100-13x |
एवमुक्त्वा ततो देवा ऋषयश्च तपोधनाः। पतिव्रतेति संहृष्टाः पुष्पवृष्टिं ववर्षिरे।।' | 1-100-13a 1-100-13b |
तच्छ्रुत्वा पौरवो वाक्यं व्याहृतं वे दिवौकसाम्। `सिंहासनात्समुत्थाय प्रणम्य च दिवौकसः।।' | 1-100-14a 1-100-14b |
पुरोहितममात्यांश्च संप्रहृष्टोऽब्रवीदिदम्। शृण्वन्त्वेतद्भवन्तोऽपि देवदूतस्य भाषितम्।। | 1-100-15a 1-100-15b |
`शृण्वन्तु देवतानां च महर्षीणां च भाषितम्'। अहमप्येवमेवैनं जानामि सुतमात्मजम्।। | 1-100-16a 1-100-16b |
यद्यहं वचनादस्या गृह्णीयामिममात्मजम्। भवेद्धि शङ्का लोकस्य नैवं शुद्धो भवेदयम्।। | 1-100-17a 1-100-17b |
वैशंपायन उवाच। | 1-100-18x |
तां विशोध्य तदा राजा देवैः सह महर्षिभिः। हृष्टः प्रमुदितश्चापि प्रतिजग्राह तं सुतम्।। | 1-100-18a 1-100-18b |
ततस्तस्य तदा राजा पितृकर्माणि सर्वशः। कारयामास मुदितः प्रीतिमानात्मजस्य ह। मूर्ध्नि चैनं समाघ्राय सस्नेहं परिषस्वजे।। | 1-100-19a 1-100-19b 1-100-19c |
सभाज्यमानो विप्रैश्च स्तूयमानश्च बन्दिभिः। मुदं स परमां लेभे पुत्रस्पर्शनजां नृपः।। | 1-100-20a 1-100-20b |
स्वां चैव भार्यां धर्मज्ञः पूजयामास धर्मतः। अब्रवीच्चैव तां राजा सान्त्वपूर्वमिदं वचः।। | 1-100-21a 1-100-21b |
लोकस्यायं परोक्षस्तु संबन्धो नौ पुराऽभवत्। कृतो लोकसमक्षोऽद्य संबन्धो वै पुनः कृतः।। | 1-100-22a 1-100-22b |
तस्मादेतन्मया तस्य तन्निमित्तं प्रभाषितम्।। | 1-100-23a |
शङ्केत वाऽयं लोकोऽथ स्त्रीभावान्मयि संगतम्। तस्मादेतन्मया चापि तच्छुद्ध्यर्थं विचारितम्।। | 1-100-24a 1-100-24b |
`ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्याः शूद्राश्चैव पृथग्विधाः। त्वां देवि वूजयिष्यन्ति निर्विशङ्कां पतिव्रताम्'।। | 1-100-25a 1-100-25b |
पुत्रश्चायं वृतो राज्ये त्वमग्रमहिषी भव।। | 1-100-26a |
यच्च कोपनयात्यर्थं त्वयोक्तोऽस्म्यप्रियं प्रिये। प्रणयिन्या विशालाक्षितत्क्षान्तं ते मया शुभे।। | 1-100-27a 1-100-27b |
`अनृतं वाप्यनिष्टं वा दुरुक्तं वातिदुष्कृतम्। त्वयाप्येवं विशालाक्षि क्षन्तव्यं मम दुर्वचः। क्षान्त्या पतिकृते नार्यः पातिव्रत्यं व्रजन्ति ताः।। | 1-100-28a 1-100-28b 1-100-28c |
एवमुक्त्वा तु राजर्षिस्तामनिन्दितगामिनीम्। अन्तःपुरं प्रवेश्याथ दुष्यन्तो महिषीं प्रियाम्।। | 1-100-29a 1-100-29b |
वासोभिरन्नपानैश्च पूजयित्वा तु भारत। `स मातरमुपस्थाय रथन्तर्यामभाषत।। | 1-100-30a 1-100-30b |
मम पुत्रो वने जातस्तव शोकप्रणशनः। ऋणादद्य विमुक्तोऽहं तव पौत्रेण शोभने।। | 1-100-31a 1-100-31b |
विश्वामित्रसुता चेयं कण्वेन च विवर्धिता। स्नुषा तव महाभागे प्रसीदस्व शकुन्तलाम्।। | 1-100-32a 1-100-32b |
पुत्रस्य वचनं श्रुत्वा पौत्रं सा परिषस्वजे। पादयोः पतितां तत्र रथन्तर्या शकुन्तलाम्।। | 1-100-33a 1-100-33b |
परिष्वज्य च बाहुभ्यां हर्षादश्रुण्यवर्तयत्। उवाच वचनं सत्यं लक्षये लक्षणानि च।। | 1-100-34a 1-100-34b |
तव पुत्रो विशालाक्षि चक्रवर्ती भविष्यति। तव भर्ता विशालाक्षि त्रैलोक्यविजयी भवेत्।। | 1-100-35a 1-100-35b |
दिव्यान्भोगाननुप्राप्ता भव त्वं वरवर्णिनि। एवमुक्ता रथ्तर्या परं हर्षमवाप सा।। | 1-100-36a 1-100-36b |
शकुन्तलां तदा राजा शास्त्रोक्तेनैव कर्मणा। ततोऽग्रमहिषीं कृत्वा सर्वाभरणभूषिताम्।। | 1-100-37a 1-100-37b |
ब्राह्मणेभ्यो धनं दत्त्वा सैनिकानां च भूपतिः। दौष्यन्तिं च ततो राजा पुत्रं शाकुन्तलं तदा'।। | 1-100-38a 1-100-38b |
भरतं नामतः कृत्वा यौवराज्येऽभ्यषेचयत्। `भरते भारमावेश्य कृतकृत्योऽभवन्नृपः।। | 1-100-39a 1-100-39b |
ततो वर्षशतं पूर्णं राज्यं कृत्वा नराधिपः। गत्वा वनानि दुष्यन्तः स्वर्गलोकमुपेयिवान्।।' | 1-100-40a 1-100-40b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि संभवपर्वणि शततमोऽध्यायः।। 100 ।। |
आदिपर्व-099 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आदिपर्व-101 |