महाभारतम्-01-आदिपर्व-173
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ब्राह्मणं प्रति तत्कन्यावाक्यम्।। 1 ।।
बालस्य पुत्रस्य वचनेन पित्रोः किंचिद्धर्षसमये कुन्त्यास्तत्समीपे गमनम्।। 2 ।।
वैशंपायन उवाच। | 1-173-1x |
तयोर्दुःखितयोर्वाक्यमतिमात्रं निशम्य तु। ततो दुःखपरीताङ्गी कन्या तावभ्यभाषत।। | 1-173-1a 1-173-1b |
किमेवं भृशदुःखार्तौ रोरूयेतामनाथवत्। ममापि श्रूयतां वाक्यं श्रुत्वा च क्रियतां क्षमम्।। | 1-173-2a 1-173-2b |
धर्मतोऽहं परित्याज्या युवयोर्नात्र संशयः। त्यक्तव्यां मां परित्यज्य त्राहि सर्वं मयैकया।। | 1-173-3a 1-173-3b |
इत्यर्थमिष्यतेऽपत्यं तारयिष्यति मामिति। अस्मिन्नुपस्थिते काले तरध्वं प्लववन्मया।। | 1-173-4a 1-173-4b |
इह वा तारयेद्दुर्गादुत वा प्रेत्य भारत। सर्वथा तारयेत्पुत्रः पुत्र इत्युच्यते बुधैः।। | 1-173-5a 1-173-5b |
आकाङ्क्षन्ते च दौहित्रान्मयि नित्यं पितामहाः। तत्स्वयं वै परित्रास्ये रक्षन्ती जीवितं पितुः।। | 1-173-6a 1-173-6b |
भ्राता च मम बालोऽयं गते लोकममुं त्वयि। अचिरेणैव कालेन विनश्येत न संशयः।। | 1-173-7a 1-173-7b |
तातेपि हि गते स्वर्गं विनष्टे च ममानुजे। पिण्डः पितॄणां व्युच्छिद्येत्तत्तेषां विप्रियं भवेत्।। | 1-173-8a 1-173-8b |
पित्रा त्यक्ता तथा मात्रा भ्रात्रा चाहमसंशयम्। दुःखाद्दुःखतरं प्राप्य म्रियेयमतथोचिताम्।। | 1-173-9a 1-173-9b |
त्वयि त्वरोगे निर्मुक्तो माता भ्राता च मे शिशुः। सन्तानश्चैव पिण्डश्च प्रतिष्ठास्यत्यसंशयम्।। | 1-173-10a 1-173-10b |
आत्मा पुत्रः सखी भार्या कृच्छ्रं तु दुहिता किल। स कृच्छ्रान्मोचयात्मानं मां च धर्मे नियोजया।। | 1-173-11a 1-173-11b |
अनाथा कृपणा बाला यत्र क्वचन गामिनी। भविष्यामि त्वया तात विहीना कृपणा सदा।। | 1-173-12a 1-173-12b |
अथवाहं करिष्यामि कुलस्यास्य विमोचनम्। फलसंस्था भविष्यामि कृत्वा कर्म सुदुष्करम्।। | 1-173-13a 1-173-13b |
अथवा यास्यसे तत्र त्यक्त्वा मां द्विजसत्तम। पीडिताऽहं भविष्यामि तदवेक्षस्व मामपि।। | 1-173-14a 1-173-14b |
तदस्मदर्थं धर्मार्थं प्रसवार्थं च सत्तम। आत्मानं परिरक्षस्व त्यक्तव्यां मां च संत्यज।। | 1-173-15a 1-173-15b |
अवश्यकरणीये च मा त्वां कालोत्यगादयम्। किं त्वतः परमं दुःखं यद्वयं स्वर्गते त्वयि।। | 1-173-16a 1-173-16b |
याचमानाः परादन्नं परिधावेमहि श्ववत्। त्वयि त्वरोगे निर्मुक्ते क्लेशादस्मात्सबान्धवे। अमृतेव सती लोके भविष्यामि सुखान्विता।। | 1-173-17a 1-173-17b 1-173-17c |
इतः प्रदाने देवाश्च पितरश्चेति नः श्रुतम्। त्वया दत्तेन तोयेन भविष्यति हिताय वै।। | 1-173-18a 1-173-18b |
`इत्येतदुभयं तात निशाम्य तव यद्धितम्। तद्व्यवस्य तथाम्बाया हितं स्वस्य सुतस्य च।। | 1-173-19a 1-173-19b |
मातापित्रोश्च पुत्रास्तु भवितारो गुणान्विताः। न तु पुत्रस्य पितरो पुनर्जातु भविष्यतः।।' | 1-173-20a 1-173-20b |
वैशंपायन उवाच। | 1-173-21x |
एवं बहुविधं तस्या निशम्य परिदेवितम्। पिता माता च सा चैव कन्या प्ररुरुदुस्त्रयः।। | 1-173-21a 1-173-21b |
ततः प्ररुदितान्सर्वान्निशम्याथ सुतस्तदा। उत्फुल्लनयनो बालः कलमव्यक्तमब्रवीत्।। | 1-173-22a 1-173-22b |
मा पिता रुद मा मातर्मा स्वसस्त्विति चाब्रवीत्। प्रहसन्निव सर्वांस्तानेकैकमनुसर्पति।। | 1-173-23a 1-173-23b |
ततः स तृणमादाय प्रहृष्टः पुनरब्रवीत्। अनेनाहं हनिष्यामि राक्षसं पुरुषादकम्।। | 1-173-24a 1-173-24b |
वैशंपायन उवाच। | 1-173-25x |
तथापि तेषां दुःखेन परीतानां निशम्य तत्। बालस्य वाक्यमव्यक्तं हर्षः समभवन्महान्।। | 1-173-25a 1-173-25b |
अयं काल इति ज्ञात्वा कुन्ती समुपसृत्य तान्। गतासूनमृतेनेव जीवयन्तीदमब्रवीत्।। | 1-173-26a 1-173-26b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि बकवधपर्वणि त्रिसप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः।। 173 ।। |
1-173-15 प्रसवार्थं वंशार्थम्।। 1-173-17 अमृतेव जीवन्तीव। इह लोके कीर्तेः सत्त्वात्।। 1-173-18 इतः प्रदाने अस्मिन् राक्षसाहाराय कन्यादाने दुर्दानत्वात् पितुर्दुर्मरणाच्च कन्याया देवाश्च पितरश्च हिताय नेति श्रुतं यद्यपि तथापि त्वया दत्तेनः तोयेन तव मम च हिताय ते भविष्यन्तीत्यर्थः।। 1-173-22 कलं मधुरा।। त्रिसप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः।। 173 ।।
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