महाभारतम्-01-आदिपर्व-054
← आदिपर्व-053 | महाभारतम् प्रथमपर्व महाभारतम्-01-आदिपर्व-054 वेदव्यासः |
आदिपर्व-055 → |
आस्तीकस्य स्वमात्रा सवादः। वासुकेराश्वासनं च।। 1 ।। आस्तीकस्य सर्पसत्रं प्रति गमनम्।। 2 ।।
सौतिरुवाच। | 1-54-1x |
तत आहूय पुत्रं स्वं जरत्कारुर्भुजंगमा। वासुकेर्नागराजस्य वचनादिदमब्रवीत्।। | 1-54-1a 1-54-1b |
अहं तव पितुः पुत्र भ्रात्रा दत्ता निमित्ततः। कालः स चायं संप्राप्तस्तत्कुरुष्व यथातथम्।। | 1-54-2a 1-54-2b |
आस्तीक उवाच। | 1-54-3x |
किंनिमित्तं मम पितुर्दत्ता त्वं मातुलेन मे। तन्ममाचक्ष्व तत्त्वेन श्रुत्वा कर्ताऽस्मि तत्तथा।। | 1-54-3a 1-54-3b |
सौतिरुवाच। | 1-54-4x |
तत आचष्ट सा तस्मै बान्धवानां हितैषिणी। भगिनी नागराजस्य जरत्कारुरविक्लबा।। | 1-54-4a 1-54-4b |
जरत्कारुरुवाच। | 1-54-5x |
पन्नगानामशेषाणां माता कद्रूरिति श्रुता। तया शप्ता रुषितया सुता यस्मान्निबोध तत्।। | 1-54-5a 1-54-5b |
उच्चैः श्रवाः सोऽश्वराजो यन्मिथ्या न कृतो मम। विनतार्थाय पणिते दासभावाय पुत्रकाः।। | 1-54-6a 1-54-6b |
जनमेजयस्य वो यज्ञे धक्ष्यत्यनिलसारथिः। तत्र पञ्चत्वमापन्नाः प्रेतलोकं गमिष्यथ।। | 1-54-7a 1-54-7b |
तां च शप्तवतीं देवः साक्षाल्लोकपितामहः। एवमस्त्विति तद्वाक्यं प्रोवाचानु मुमोद च।। | 1-54-8a 1-54-8b |
वासुकिश्चापि तच्छ्रुत्वा पितामहवचस्तदा। अमृते मथिते तात देवाञ्छरणमीयिवान्।। | 1-54-9a 1-54-9b |
सिद्धार्थाश्च सुराः सर्वे प्राप्यामृतमनुत्तमम्। भ्रातरं मे पुरस्कृत्य पितामहमुपागमन्।। | 1-54-10a 1-54-10b |
ते तं प्रसादयामासुः सुराः सर्वेऽब्जसंभवम्। राज्ञा वासुकिना सार्धं शापोऽसौन भवेदिति।। | 1-54-11a 1-54-11b |
देवा ऊचुः। | 1-54-12x |
वासुकिर्नागराजोऽयं दुःखितो ज्ञातिकारणात्। अभिशापः स मातुस्तु भगवन्न भवेत्कथम्।। | 1-54-12a 1-54-12b |
ब्रह्मोवाच। | 1-54-13x |
जरत्कारुर्जरत्कारुं यां भार्यां समवाप्स्यति। तत्र जातो द्विजः शापान्मोक्षयिष्यति पन्नगान्।। | 1-54-13a 1-54-13b |
एतच्छ्रुत्वा तु वचनं वासुकिः पन्नगोत्तमः। प्रादान्माममरप्रख्य तव पित्रे महात्मने।। | 1-54-14a 1-54-14b |
प्रागेवानागते काले तस्मात्त्व मय्यजायथाः। अयं स कालः संप्राप्तो भयान्नस्त्रातुमर्हसि।। | 1-54-15a 1-54-15b |
भ्रातरं चापि मे तस्मात्त्रातुमर्हसि पावकात्। न मोघं तु कृतं तत्स्याद्यदहं तव धीमते। पित्रे दत्ता विमोक्षार्थं कथं वा पुत्र मन्यसे।। | 1-54-16a 1-54-16b 1-54-16c |
सौतिरुवाच। | 1-54-17x |
एवमुक्तस्तथेत्युक्त्वा सास्तीको मातरं तदा। अब्रवीद्दुःखसंतप्तं वासुकिं जीवयन्निव।। | 1-54-17a 1-54-17b |
अहं त्वां मोक्षयिष्यामि वासुके पन्नगोत्तम। तस्माच्छापान्महासत्त्व सत्यमेतद्ब्रवीमि ते।। | 1-54-18a 1-54-18b |
भव स्वस्थमना नाग न हि ते विद्यते भयम्। प्रयतिष्ये तथा राजन्यथा श्रेयो भविष्यति।। | 1-54-19a 1-54-19b |
न मे वागनृतं प्राह स्वैरेष्वपि कुतोऽन्यथा। तं वै नृपवरं गत्वा दीक्षितं जनमेजयम्।। | 1-54-20a 1-54-20b |
वाग्भिर्मङ्गलयुक्ताभिस्तोषयिष्येऽद्य मातुल। यथा स यज्ञो नृपतेर्निवत्रिष्यति सत्तम।। | 1-54-21a 1-54-21b |
स संभावय नागेन्द्र मयि सर्वं महामते। न ते मयि मनो जातु मिथ्या भवितुमर्हति।। | 1-54-22a 1-54-22b |
वासुकिरुवाच। | 1-54-23x |
आस्तीक परिघूर्णामि हृदयं मे विदीर्यते। दिशो न प्रतिजानामि ब्रह्मदण्डनिपीडितः।। | 1-54-23a 1-54-23b |
आस्तीक उवाच। | 1-54-24x |
न सन्तापस्त्वया कार्यः कथंचित्पन्नगोत्तम। प्रदीप्ताग्नेः समुत्पन्नं नाशयिष्यामि ते भयम्।। | 1-54-24a 1-54-24b |
ब्रह्मदण्डं महाघोरं कालाग्निसमतेजसम्। नाशयिष्यामि माऽत्र त्वं भयंकार्षीः कथंचन।। | 1-54-25a 1-54-25b |
सौतिरुवाच। | 1-54-26x |
ततः स वासुकेर्घोरमपनीय मनोज्वरम्। आधाय चात्मनोऽङ्गेषु जगाम त्वरितो भृशम्।। | 1-54-26a 1-54-26b |
जनमेजयस्य तं यज्ञं सर्वैः समुदितं गुणैः। मोक्षाय भुजगेन्द्राणामास्तीको द्विजसत्तमः।। | 1-54-27a 1-54-27b |
स गत्वाऽपश्यदास्तीको यज्ञायतनमुत्तमम्। वृतं सदस्यैर्बहुभिः सूर्यवह्निसमप्रभैः।। | 1-54-28a 1-54-28b |
स तत्र वारितो द्वास्थैः प्रविशन्द्विजसत्तमः। अभितुष्टाव तं यज्ञं प्रवेशार्थी परंतपः।। | 1-54-29a 1-54-29b |
स प्राप्य यज्ञायतनं वरिष्ठं द्विजोत्तमः पुण्यकृतां वरिष्ठः। तुष्टाव राजानमनन्तकीर्ति- मृत्विक्सदस्यांश्च तथैव चाग्निम्।। | 1-54-30a 1-54-30b 1-54-30c 1-54-30d |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि चतुःपञ्चाशत्तमोऽध्यायः।। 54 ।। |
1-54-4 आचष्ट व्यक्तं कथितवती। अविक्लबा अनाकुला।। 1-54-12 अभिशापः शापः।। 1-54-17 आस्तीक इति पादपूरणार्थः सुलोपः।। 1-54-22 मयि अयमस्मान्मोचयिष्यत्येवरूपो मनःसंकल्पो जातु कदापि मिथ्याऽन्यथा न।। 1-54-23 ब्रह्म वेदः मातृदेवो भवेति मातुराज्ञकरत्वविधानपरस्तदन्यथाकरणप्रयुक्तो दण्डो मातृशापरूपो ब्रह्मदण्डः।। 1-54-26 वासुकेश्चिन्ताज्वरं स्वयं गृहीत्वेत्यर्थः।। चतुःपञ्चाशत्तमोऽध्यायः।। 54 ।।
आदिपर्व-053 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आदिपर्व-055 |