महाभारतम्-01-आदिपर्व-005
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भृगुवंशकथनम्।। 1 ।। पौलोमोपाख्यानम्।। 2 ।। पुलोमापहारः।। 3 ।। पुलोमाग्निसंवादः।। 4 ।।
शौनक उवाच। | 1-5-1x |
पुराणमखिलं तात पिता तेऽधीतवान्पुरा। `भारताध्ययनं सर्वं कृष्णद्वैपायनात्तदा।' कच्चित्त्वमपि तत्सर्वमधीषे रौमहर्षणे।। | 1-5-1a 1-5-1b 1-5-1c |
पुराणे हि कथा दिव्या आदिवंशाश्च धीमताम्। कथ्यन्ते ये पुराऽस्माभिः श्रुतपूर्वाः पितुस्तव।। | 1-5-2a 1-5-2b |
तत्र वंशमहं पूर्वं श्रोतुमिच्छामि भार्गवम्। कथयस्व कथामेतां कल्याः स्मः श्रवणे तव।। | 1-5-3a 1-5-3b |
सौतिरुवाच। | 1-5-4x |
यदधीतं पुरा सम्यग्द्विजश्रेष्ठैर्महात्मभिः। वैशंपायनविप्राग्र्यैस्तैश्चापि कथितं यथा।। | 1-5-4a 1-5-4b |
यदधीतं च पित्रा मे सम्यक्कैव ततो मया। तावच्छृणुष्व यो देवैः सेन्द्रैः सर्षिमरुद्गणैः।। | 1-5-5a 1-5-5b |
पूजितः प्रवरो वंशो भार्गवो भृगुनन्दन। इमं वंशमहं पूर्वं भार्गवं ते महामुने।। | 1-5-6a 1-5-6b |
निगदामि यथायुक्तं पुराणाश्रयसंयुतम्। भृगुर्महर्षिर्भगवान्ब्रह्मणा वै स्वयंभुवा।। | 1-5-7a 1-5-7b |
वरुणस्य क्रतौ जातः पावकादिति नः श्रुतम्। भृगोः सुदयितः पुत्रश्च्यवनो नाम भार्गवः।। | 1-5-8a 1-5-8b |
च्यवनस्य च दायादः प्रमतिर्नाम धार्मिकः। प्रमतेरप्यभूत्पुत्रो घृताच्यां रुरुरित्युत।। | 1-5-9a 1-5-9b |
रुरोरपि सुतो जज्ञे शुनको वेदपारगः। प्रमद्वरायां धर्मात्मा तव पूर्वपितामहः।। | 1-5-10a 1-5-10b |
तपस्वी च यशस्वी च श्रुतवान्ब्रह्मवित्तमः। धार्मिकः सत्यवादी च नियतो नियताशनः।। | 1-5-11a 1-5-11b |
शौनक उवाच। | 1-5-12x |
सूतपुत्र यथा तस्य भार्गवस्य महात्मनः। च्यवनत्वं परिख्यातं तन्ममाचक्ष्व पृच्छतः।। | 1-5-12a 1-5-12b |
सौतिरुवाच। | 1-5-13x |
भृगोः सुदयिता भार्या पुलोमेत्यभिविश्रुता। तस्यां समभवद्गर्भो भृगुवीर्यसमुद्भवः।। | 1-5-13a 1-5-13b |
तस्मिन्गर्भेऽथ संभूते पुलोमायां भृगूद्वह। समये समशीलिन्यां धर्मपत्न्यां यशस्विनः।। | 1-5-14a 1-5-14b |
अभिषेकाय निष्क्रान्ते भृगौ धर्मभृतां वरे। आश्रमं तस्य रक्षोऽथ पुलोमाऽभ्याजगाम ह।। | 1-5-15a 1-5-15b |
तं प्रविश्याश्रमं दृष्ट्वा भृगोर्भार्यामनिन्दिताम्। हृच्छयेन समाविष्टो विचेताः समपद्यत।। | 1-5-16a 1-5-16b |
अभ्यागतं तु तद्रक्षः पुलोमा चारुदर्शना। न्यमन्त्रयत वन्येन फलमूलादिना तदा।। | 1-5-17a 1-5-17b |
तां तु रक्षस्तदा ब्रह्मन्हृच्छयेनाभिपीडितम्। दृष्ट्वा हृष्टमभूद्राजञ्जिहीर्षुस्तामनिन्दिताम्।। | 1-5-18a 1-5-18b |
जातमित्यब्रवीत्कार्यं जिहीर्षुर्मुदितः शुभाम्। सा हि पूर्वं वृता तेन पुलोम्ना तु शुचिस्मिता।। | 1-5-19a 1-5-19b |
तस्य तत्किल्बिषं नित्यं हृदि वर्तति भार्गव।। | 1-5-20a 1-5-20b |
इदमन्तरमित्येवं हर्तुं चक्रे मनस्तदा। अथाग्निशरणेऽपश्यज्ज्वलन्तं जातवेदसम्।। | 1-5-21a 1-5-21b |
तमपृच्छत्ततो रक्षः पावकं ज्वलितं तदा। शंस मे कस्य भार्येयमग्ने पृच्छे ऋतेन वै।। | 1-5-22a 1-5-22b |
मुखं त्वमसि देवानां वद पावक पृच्छते। मया हीयं वृता पूर्वं भार्यार्थे वरवर्णिनी।। | 1-5-23a 1-5-23b |
पश्चादिमां पिता प्रादाद्भृगवेऽनृतकारकः। सेयं यदि वरारोहा भृगोर्भार्या रहोगता।। | 1-5-24a 1-5-24b |
तथा सत्यं समाख्याहि जिहीर्षाम्याश्रमादिमाम्। स मन्युस्तत्र हृदयं प्रदहन्निव तिष्ठति।। | 1-5-25a 1-5-25b |
मत्पूर्वभार्यां यदिमां भृगुराप सुमध्यमाम्। `असंमतमिदं मेऽद्य हरिष्याम्याश्रमादिमाम्'।। | 1-5-26a 1-5-26b |
सौतिरुवाच। | 1-5-27x |
एवं रक्षस्तमामन्त्र्य ज्वलितं जातवेदसम्। शङ्कमानं भृगोर्भार्यां पुनःपुनरपृच्छत।। | 1-5-27a 1-5-27b |
त्वमग्ने सर्वभूतानामन्तश्चरसि नित्यदा। साक्षिवत्पुण्यपापेषु सत्यं ब्रूहि कवे वचः।। | 1-5-28a 1-5-28b |
मत्पूर्वभार्याऽपहृता भृगुणाऽनृतकारिणा। सेयं यदि तथा मे त्वं सत्यमाख्यातुमर्हसि।। | 1-5-29a 1-5-29b |
श्रुत्वा त्वत्तो भृगोर्भार्यां हरिष्याम्याश्रमादिमाम्। जातवेदः पश्यतस्ते वद सत्यां गिरं मम।। | 1-5-30a 1-5-30b |
सौतिरुवाच। | 1-5-31x |
तस्यैतद्वचनं श्रुत्वा सप्तार्चिर्दुःखितोऽभवत्। `सत्यं वदामि यदि मे शापः स्याद्ब्रह्मवित्तमात्।। | 1-5-31a 1-5-31b |
असत्यं चेदहं ब्रूयां पतिष्ये नरकान्ध्रुवम्।' भीतोऽनृताच्च शापाच्च भृगोरित्यब्रवीच्छनैः।। | 1-5-32a 1-5-32b |
त्वया वृता पुलोमेयं पूर्वं दानवनन्दन। किं त्वियं विधिना पूर्वं मन्त्रवन्न वृता त्वया।। | 1-5-33a 1-5-33b |
पित्रा तु भृगवे दत्ता पुलोमेयं यशस्विनी। ददाति न पिता तुभ्यं वरलोभान्महायशाः।। | 1-5-34a 1-5-34b |
अथेमां वेददृष्टेन कर्मणा विधिपूर्वकम्। भार्यामृषिर्भृगुः प्राप मां पुरस्कृत्य दानव।। | 1-5-35a 1-5-35b |
सेयमित्यवगच्छामि नानृतं वक्तुमुत्सहे। नानृतं हि सदा लोके पूज्यते दानवोत्तम।। | 1-5-36a 1-5-36b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि पौलोमपर्वणि पञ्चमोऽध्यायः।। 5 ।। |
1-5-3 कल्याः समर्थाः। तव त्वत्तः श्रोतुमिति संबन्धः।। 1-5-7 यथायुक्तं कथायुक्तं इत्यपि पाठः। पुराणस्य आश्रयः उपोद्धातःतत्संयुतं।। 1-5-19 बाल्ये किल रुदतीं कन्यां रोदनानिवृत्त्यर्थं भीषयितुं पित्रोक्तं रे रक्ष एनां गृहाणेति। तावतैव गृहे सन्निहितेन रक्षसा वृता ममेयं भार्येति।। 1-5-27 शङ्कमानं छलवचनेन पूर्वं मह्यं दत्ता पश्चाद्विधिपूर्वकं भृगवे दत्ताऽतो मम वा भृगोर्वा भार्येति सन्दिहानम्।। 1-5-28 कवे सर्वज्ञ।। पञ्चमोऽध्यायः।। 5 ।।
शौनक उवाच॥
पुराणमखिलं तात पिता तेऽधीतवान्पुरा |
कच्चित्त्वमपि तत्सर्वमधीषे लोमहर्षणे ॥१॥
पुराणे हि कथा दिव्या आदिवंशाश्च धीमताम् |
कथ्यन्ते ताः पुरास्माभिः श्रुताः पूर्वं पितुस्तव ॥२॥
तत्र वंशमहं पूर्वं श्रोतुमिच्छामि भार्गवम् |
कथयस्व कथामेतां कल्याः स्म श्रवणे तव ॥३॥
सूत उवाच॥
यदधीतं पुरा सम्यग्द्विजश्रेष्ठ महात्मभिः |
वैशम्पायनविप्राद्यैस्तैश्चापि कथितं पुरा ॥४॥
यदधीतं च पित्रा मे सम्यक्चैव ततो मया |
तत्तावच्छृणु यो देवैः सेन्द्रैः साग्निमरुद्गणैः ॥५॥
पूजितः प्रवरो वंशो भृगूणां भृगुनन्दन ॥५॥
इमं वंशमहं ब्रह्मन्भार्गवं ते महामुने |
निगदामि कथायुक्तं पुराणाश्रयसंयुतम् ॥६॥
भृगोः सुदयितः पुत्रश्च्यवनो नाम भार्गवः |
च्यवनस्यापि दायादः प्रमतिर्नाम धार्मिकः ॥७॥
प्रमतेरप्यभूत्पुत्रो घृताच्यां रुरुरित्युत ॥७॥
रुरोरपि सुतो जज्ञे शुनको वेदपारगः |
प्रमद्वरायां धर्मात्मा तव पूर्वपितामहात् ॥८॥
तपस्वी च यशस्वी च श्रुतवान्ब्रह्मवित्तमः |
धर्मिष्ठः सत्यवादी च नियतो नियतेन्द्रियः ॥९॥
शौनक उवाच॥
सूतपुत्र यथा तस्य भार्गवस्य महात्मनः |
च्यवनत्वं परिख्यातं तन्ममाचक्ष्व पृच्छतः ॥१०॥
सूत उवाच॥
भृगोः सुदयिता भार्या पुलोमेत्यभिविश्रुता |
तस्यां गर्भः समभवद्भृगोर्वीर्यसमुद्भवः ॥११॥
तस्मिन्गर्भे सम्भृतेऽथ पुलोमायां भृगूद्वह |
समये समशीलिन्यां धर्मपत्न्यां यशस्विनः ॥१२॥
अभिषेकाय निष्क्रान्ते भृगौ धर्मभृतां वरे |
आश्रमं तस्य रक्षोऽथ पुलोमाभ्याजगाम ह ॥१३॥
तं प्रविश्याश्रमं दृष्ट्वा भृगोर्भार्यामनिन्दिताम् |
हृच्छयेन समाविष्टो विचेताः समपद्यत ॥१४॥
अभ्यागतं तु तद्रक्षः पुलोमा चारुदर्शना |
न्यमन्त्रयत वन्येन फलमूलादिना तदा ॥१५॥
तां तु रक्षस्ततो ब्रह्मन्हृच्छयेनाभिपीडितम् |
दृष्ट्वा हृष्टमभूत्तत्र जिहीर्षुस्तामनिन्दिताम् ॥१६॥
अथाग्निशरणेऽपश्यज्ज्वलितं जातवेदसम् |
तमपृच्छत्ततो रक्षः पावकं ज्वलितं तदा ॥१७॥
शंस मे कस्य भार्येयमग्ने पृष्ट ऋतेन वै |
सत्यस्त्वमसि सत्यं मे वद पावक पृच्छते ॥१८॥
मया हीयं पूर्ववृता भार्यार्थे वरवर्णिनी |
पश्चात्त्विमां पिता प्रादाद्भृगवेऽनृतकारिणे ॥१९॥
सेयं यदि वरारोहा भृगोर्भार्या रहोगता |
तथा सत्यं समाख्याहि जिहीर्षाम्याश्रमादिमाम् ॥२०॥
मन्युर्हि हृदयं मेऽद्य प्रदहन्निव तिष्ठति |
मत्पुर्वभार्यां यदिमां भृगुः प्राप सुमध्यमाम् ॥२१॥
तद्रक्ष एवमामन्त्र्य ज्वलितं जातवेदसम् |
शङ्कमानो भृगोर्भार्यां पुनः पुनरपृच्छत ॥२२॥
त्वमग्ने सर्वभूतानामन्तश्चरसि नित्यदा |
साक्षिवत्पुण्यपापेषु सत्यं ब्रूहि कवे वचः ॥२३॥
मत्पूर्वभार्यापहृता भृगुणानृतकारिणा |
सेयं यदि तथा मे त्वं सत्यमाख्यातुमर्हसि ॥२४॥
श्रुत्वा त्वत्तो भृगोर्भार्यां हरिष्याम्यहमाश्रमात् |
जातवेदः पश्यतस्ते वद सत्यां गिरं मम ॥२५॥
तस्य तद्वचनं श्रुत्वा सप्तार्चिर्दुःखितो भृशम् |
भीतोऽनृताच्च शापाच्च भृगोरित्यब्रवीच्छनैः ॥२६॥1.5.30
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