महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-003
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युधिष्ठिरेण ब्राह्मणभरणाय धौम्यचोदनया सूर्यस्तुतिः ।। 1 ।। स्तोत्रैः प्रसन्नेन सूर्येण युधिष्ठिरायाक्षयपात्रदानम् ।। 2 ।।
वैशंपायन उवाच। | 3-3-1x |
शौनकेनैवमुक्तस्तु कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिः। `प्रणम्य द्विजशार्दूलं पूज्यवाक्यं सुभाषितम्।' पुरोहितमुपागम्य भ्रातृमध्येऽब्रवीषिदम् ।। | 3-3-1a 3-3-1b 3-3-1c |
प्रस्थिताननुयातारो ब्राह्मणा वेदपारनाः। न चास्मि पोषणे शक्तो बहुदुःखसमन्वितः ।। | 3-3-2a 3-3-2b |
परित्यक्तुं न शक्नोमि दानशक्तिश्च नास्ति मे। कथमत्र मया कार्यं तद्बूहि भगवन्मम ।। | 3-3-3a 3-3-3b |
वैशंपायन उवाच। | 3-3-4x |
मुहूर्तमिव स ध्यात्वा धर्मेणान्वीक्ष्य तां गतिम्। युधिष्ठिरमुवाचैदं धौम्यो धर्मभृतां वरः ।। | 3-3-4a 3-3-4b |
पुरा सृष्टानि भूतानि पीड्यन्ते क्षुधया भृशम्। ततोऽनुकम्पंयां तेषां सविता स्वपिता यथा ।। | 3-3-5a 3-3-5b |
गत्वोत्तसयणं तेजो रसानुद्धृत्य रश्मिभिः। दक्षिणायनमावृत्तो महीं वर्षति वारिणा ।। | 3-3-6a 3-3-6b |
क्षेत्रभूते ततस्तस्मिन्नोषधीरोषधीयतिः। रवेस्तेजः समुद्धृत्य जनयामास वारिणा ।। | 3-3-7a 3-3-7b |
निषिक्तश्चन्द्रतेजोभिः सूयते जगतो रविः। ओषध्यः षड्रसा मेध्यास्तदन्नं प्राणिनां भुवि ।। | 3-3-8a 3-3-8b |
एवं भानुमयं ह्यन्नं भूतानां प्राणधारणम्। नाथोऽयं सर्वभूतानां तस्मात्तं शरणं व्रज ।। | 3-3-9a 3-3-9b |
राजानो हि महात्मानो योनिकर्मविशोधिताः। उद्धरन्ति प्रजाः सर्वास्तप आस्थाय पुष्कलम् ।। | 3-3-10a 3-3-10b |
भौमेन कार्तवीर्येण वैन्येन नहुषेण च। तपोयोगसमाधिस्थैरुद्धृता ह्यापदः प्रजाः ।। | 3-3-11a 3-3-11b |
तथा त्वमपि धर्मात्मन्कर्मणा च विशोधितः। तप आस्थाय धर्मेण द्विजातीन्भर भारत ।। | 3-3-12a 3-3-12b |
वैशंपायन उवाच। | 3-3-13x |
एवमुक्तस्तु धौम्येन तत्कालसदृशं वचः। ततस्त्वध्यापयामास मन्त्रं सर्वार्थसाधकम्। अष्टाक्षरं परं मन्त्रमार्तस्य सततं प्रियम् ।। | 3-3-13a 3-3-13b 3-3-13c |
[विप्रत्यागसमाधिस्थः संयतात्मा दृढव्रतः। धर्मराजो विशुद्धात्मा तप आतिष्ठदुत्तमम् ।।] | 3-3-14a 3-3-14b |
पुष्पोपहारैर्बलिभिरर्चयित्वा दिवाकरम्। सोऽवगाह्य जलं राजा देवस्याभिमुखोऽभवत् ।। | 3-3-15a 3-3-15b |
गाङ्गेयं वार्युपस्पृश्य प्राणायामेन तस्थिवान्। [शुचिः प्रयतवाग्भूत्वा स्तोत्रमारब्धवांस्ततः | 3-3-16a 3-3-16b |
युधिष्ठिर उवाच। | 3-3-17x |
त्वं भानो जगतश्चक्षुस्त्वमात्मा सर्वदेहिनाम्। त्वं योनिः सर्वभूतानां त्वमाचारः क्रियावतां ।। | 3-3-17a 3-3-17b |
त्वं गतिः सर्वसाङ्ख्यानां योगिनां त्वं परायणम्। अनावृतार्गलद्वारं त्वं गतिस्त्वं मुमुक्षताम् ।। | 3-3-18a 3-3-18b |
त्वया संधार्यते लोकस्त्वया लोकः प्रकाश्यते। त्वयापवित्रीक्रियते निर्व्याजं पाल्यते त्वया ।। | 3-3-19a 3-3-19b |
त्वामुपस्थाय काले तु ब्राह्मणा वेदपारगाः। स्वशाखाविहितैर्मन्त्रैरर्चन्त्यृषिगणार्चित ।। | 3-3-20a 3-3-20b |
तव दिव्यं रथं यान्तमनुयान्ति वरार्थिनः। सिद्धचारणगन्धर्वा यक्षगुह्यकपन्नगाः ।। | 3-3-21a 3-3-21b |
त्रयस्त्रिंशच्च वै देवास्तथा वैमानिका गणाः। सोपेन्द्राः समहेन्द्राश्च त्वामिष्ट्वासिद्धिमागताः ।। | 3-3-22a 3-3-22b |
उपयान्त्यर्चयित्वा तु त्वां वै प्राप्तमनोरथाः। दिव्यमन्दारमालाभिस्तूर्णं विद्याधरोत्तमाः ।। | 3-3-23a 3-3-23b |
गुह्याः पितृगणाः सप्त ये दिव्या ये च मानुषाः। ते पूजयित्वा त्वामेव गच्छन्त्याशु प्रधानताम् ।। | 3-3-24a 3-3-24b |
वसवो मरुतो रुद्रा ये च साध्या मरीचिपाः। वालखिल्यादयः सिद्धाः श्रेष्ठत्वं प्राणिनां गताः ।। | 3-3-25a 3-3-25b |
सब्रह्मकेषु लोकेषु सप्तस्वप्यखिलेषु च। न तद्भूतमहं मन्ये यदर्कादतिरिच्यते ।। | 3-3-26a 3-3-26b |
सन्ति चान्यानि सत्वानिवीर्यवन्ति महान्ति च। न तु तेषां तथा दीप्तिः प्रभावो वायथा तव ।। | 3-3-27a 3-3-27b |
ज्योतीषित्वयि सर्वाणि त्वं सर्वज्योतिषां पतिः। त्वयिसत्त्वं च सत्त्वं च सर्वेभावाश्च सात्त्विकाः ।। | 3-3-28a 3-3-28b |
त्वत्तेजसा कृतंचक्रं सुनाभं विश्वकर्मणा। देवारीणां मदो येन नाशितः शार्ङ्गधन्वना ।। | 3-3-29a 3-3-29b |
त्वमादायांशुभिस्तेजो निदाघे सर्वदेहिनाम्। सर्वौषधिरसानां च पुनर्वर्षासु मुञ्चसि ।। | 3-3-30a 3-3-30b |
तपन्त्यन्ते दहन्त्यन्ये गर्जन्त्यन्ये तथा घनाः। विद्योतन्ते प्रवर्षन्ति तव प्रावृषि रश्मयः ।। | 3-3-31a 3-3-31b |
न तथा सुखयत्यग्निर्न प्रावारा न कम्बलाः। शीतवातार्दितं लोकं यथा तव मरीचयः ।। | 3-3-32a 3-3-32b |
त्रयोदशद्वीपवतीं गोभिर्भासयसे महीम्। त्रयाणामपि लोकानां हितायैकः प्रवर्तसे ।। | 3-3-33a 3-3-33b |
तव यद्युदयो न स्यादन्धं जगदिदं भवेत्। न च धर्मार्थकामेषु प्रवर्तेरन्मनीषिणः ।। | 3-3-34a 3-3-34b |
आधानपशुबन्धेष्टिमन्त्रयज्ञतपःक्रियाः। त्वत्प्रसादादवाप्यन्ते ब्रह्मक्षत्रविशां गणैः ।। | 3-3-35a 3-3-35b |
यदहर्ब्रह्मणः प्रोक्तं सहस्रयुगसंमितम्। तस्य त्वमादिरन्तश्च कालज्ञैः परिकीर्तितः ।। | 3-3-36a 3-3-36b |
मनूनां मनुपुत्राणां जगतोऽमानवस्य च। मन्वन्तराणां सर्वेषामीश्वराणां त्वमीश्वरः ।। | 3-3-37a 3-3-37b |
संहारकाले संप्राप्ते तव क्रोधविनिःसृतः। संवर्तकाग्निस्त्रैलोक्यं भस्मीकृत्यावतिष्ठते ।। | 3-3-38a 3-3-38b |
त्वद्दीधितिसमुत्पन्ना नानावर्ण महाघनाः। सैरावताः साशनयः कुर्वन्त्याभूतसंप्लवम् ।। | 3-3-39a 3-3-39b |
कृत्वा द्वादशधाऽऽत्मानं द्वादशादित्यतां गतः। संहृत्यैकार्णवं सर्वं त्वं शोषयसि रश्मिभिः ।। | 3-3-40a 3-3-40b |
त्वामिन्द्रमाहुस्त्वं रुद्रस्त्वं विष्णुस्त्वं प्रजापतिः। त्वमग्निस्त्वं मनः सूक्ष्मं प्रभुस्त्वं ब्रह्मशाश्वतं ।। | 3-3-41a 3-3-41b |
त्वं हंसः सविता भानुरंशुमाली वृषाकपिः। विवस्वान्मिहिरः पूषा मित्रो धर्मस्तथैव च ।। | 3-3-42a 3-3-42b |
सहस्ररश्मिरादित्यस्तपनस्त्वं गवां पतिः। मार्तण्डोऽर्को रविः सूर्यः शरण्यो दिनकृत्तथा ।। | 3-3-43a 3-3-43b |
दिवाकरः सप्तसप्तिर्धामकेशी विरोचनः। आशुगामी तमोघ्नश्च हरिताश्वश्च कीर्त्यसे ।। | 3-3-44a 3-3-44b |
सप्तम्यागथवा षष्ठ्यां भक्त्या पूजां करोति यः। अनिर्विण्णोऽनहंकारी तं लक्ष्मीर्भजते नरम् ।। | 3-3-45a 3-3-45b |
न तेषामापदः सन्ति नाधयो व्याधयस्तथा। ये तवानन्यमनसा कुर्वन्त्यर्चनवन्दनम् ।। | 3-3-46a 3-3-46b |
सर्वरोगैर्विरहिताः सर्वपापाविवर्जिताः। त्वद्भावभक्ताः सुखिनो भवन्ति चिरजीविनः ।। | 3-3-47a 3-3-47b |
त्वं ममापन्नकामस्य सर्वातिथ्यं चिकीर्षतः। अन्नमन्नपते दातुमभितः श्रद्धयाऽर्हसि ।। | 3-3-48a 3-3-48b |
येच तेऽनुचराः सर्वे पादोपान्तं समाश्रिताः। माठरारुणदण्डाद्यास्तांस्तान्वन्देऽशनिक्षुभान् ।। | 3-3-49a 3-3-49b |
क्षुभया सहिता मैत्री याश्चान्या भूतमातरः। ताश्च सर्वा नमस्यामि पान्तु मां शरणागतम् ।।] | 3-3-50a 3-3-50b |
वैशंपायन उवाच। | 3-3-51x |
कण्ठदघ्ने जले स्थित्वा मन्त्रैः स्तोत्रैश्च तोषितः। ततो दिवाकरः प्रीतो दर्शयामास पाण्डवम्। दीप्यमानः स्ववपुषा ज्वलन्निव हुताशनः ।। | 3-3-51a 3-3-51b 3-3-51c |
विवस्वानुवाच। | 3-3-52x |
यत्तेऽभिलषितं किंचित्तत्त्वं सर्वमवाप्स्यसि। अहमन्नं प्रदास्यामि सप्त पञ्च च ते समाः ।। | 3-3-52a 3-3-52b |
गृह्णीष्व पिठरं ताम्रं मया दत्तं नराधिप। यावद्वर्त्स्यति पाञ्चाली पात्रेणानेन सुव्रत ।। | 3-3-53a 3-3-53b |
फलमूलामिषं शाकं संस्कृतं यन्महानसे। चतुर्विधं तदन्नाद्यमक्षय्यं ते भविष्यति। इतश्चतुर्दशे वर्षे भूयो राज्यमवाप्स्यसि ।। | 3-3-54a 3-3-54b 3-3-54c |
वैशंपायन उवाच। | 3-3-55x |
एवमुक्त्वा तु भगवांस्तत्रैवान्तरधीयत ।। | 3-3-55a |
लब्ध्वा वरं तु कौन्तेयो जलादुत्तीर्य धर्मवित्। जग्राह पादौ धौम्यस्य भ्रातॄंश्च परिषस्वजे ।। | 3-3-56a 3-3-56b |
द्रौपद्या सह-संगम्य पश्यमानोऽपयात्प्राभुः। महानसे तदान्नं तु साधयामास पाण्डवः ।। | 3-3-57a 3-3-57b |
संस्कृतं प्रसवं याति स्वल्पमन्नं चतुर्विधम्। अक्षय्यं वर्धते चान्नं तेनाभोजयत द्विजान् ।। | 3-3-58a 3-3-58b |
भुक्तवत्सु च विप्रेषु भोजयित्वाऽनुजानपि। शेषं विघससंज्ञं तुपश्चाद्भुङ्क्ते युधिष्ठिरः ।। | 3-3-59a 3-3-59b |
युधिष्ठिरं भोजयित्वा शेषमश्नाति पार्षती। [द्रौपद्यां भुज्यमानायां तदन्नं क्षयमेति च ।।] | 3-3-60a 3-3-60b |
एवं दिवाकरात्प्राप्य दिवाकरसमप्रभः। कामान्मनोभिलषितान्ब्राह्मणेभ्योऽददात्प्रभुः ।। | 3-3-61a 3-3-61b |
पुरोहितपुरोगाश्च तिथिनक्षत्रपर्वसु। इज्यार्थे संप्रवर्तन्ते विधिमन्त्रप्रमाणतः ।। | 3-3-62a 3-3-62b |
ततः कृतस्वस्त्ययना धौम्येन सह पाण्डवाः। द्विजसङ्घैः परिवृताः प्रययुः काम्यकं वनम् ।। | 3-3-63a 3-3-63b |
`जनमेजय उवाच। | 3-3-64x |
पुष्पोपहारबलिभिर्बहुशश्च यथाविधि। सर्वात्मभूतं संपूज्य यतप्राणो जितेन्द्रियः ।। | 3-3-64a 3-3-64b |
स्तवेन केन विप्रर्षे स तु राजा युधिष्ठिरः। विप्रार्थमाराधितवान्सूर्यमद्भुतविक्रमम् ।। | 3-3-65a 3-3-65b |
मयि स्नेहोऽस्ति चेद्ब्रह्मन्यद्यनुग्रहभागहम्। भगवन्नास्ति चेद्गुद्यं तच्च मे ब्रूहि सांप्रतम् ।।' | 3-3-66a 3-3-66b |
वैशंपायन उवाच। | 3-3-67x |
शृणुष्वांवहितो राजञ्शुचिर्भूत्वा समाहितः। क्षणं च कुरु राजेन्द्र गुह्यं वक्ष्यामि ते हितम् ।। | 3-3-67a 3-3-67b |
धौम्येन तु यथाप्रोक्तं पार्थाय सुमहात्मने। नाम्नामष्टोत्तरं पुण्यं शतं तच्छृणु भूपते ।। | 3-3-68a 3-3-68b |
सूर्योऽर्यभा भगस्त्वष्टा पूषाऽर्कः सविता रविः। गभस्तिमानजः कालो मृत्युर्धाता प्रभाकरः ।। | 3-3-69a 3-3-69b |
पृथिव्यापश्च तेजश्च खं वायुश्च परायणम्। सोमो बृहस्पतिः शुक्रो बुधोऽङ्गारक एव च ।। | 3-3-70a 3-3-70b |
इन्द्रो विवस्वान्दीप्तांशुः शुचिः शौरिः शनैश्चरः। ब्रह्मा विष्णुश्च रुद्रश्च स्कन्दो वैश्रवणो यमः ।। | 3-3-71a 3-3-71b |
वैद्युतो जाठरश्चाग्निरैन्धनस्तेजसां पतिः। धर्मध्वजो वेदकर्ता वेगाङ्गो वेदवाहनः ।। | 3-3-72a 3-3-72b |
कृतं त्रेता द्वापरश्च कलिः सर्वामराश्रयः। कला काष्ठा मुहूर्ताश्च पक्षा मासा ऋतुस्तथा ।। | 3-3-73a 3-3-73b |
संवत्सरकरोऽश्वत्थः कालचक्रो विभावसुः। पुरुषः शाश्वतो योगी व्यक्ताव्यक्तः सनातनः ।। | 3-3-74a 3-3-74b |
लोकाध्यक्षः सुराध्यक्षो विश्वकर्मा तमोनुदः। वरुणः सागरोंशश्च जीमूतो जीवनोऽरिहा ।। | 3-3-75a 3-3-75b |
भूताश्रयो भूतपति- सर्वभूतनिषेवितः। `मणिः सुवर्णो भूतात्मा कामदः सर्वतोमुखः।' [स्रष्टा संवर्तको वह्निः सर्वस्यादिरलोलुपः | 3-3-76a 3-3-76b 3-3-76c |
अनन्तः कपिलो भानुः कामदः सर्वतोमुखः।] जयो विशालो वरदः सर्वधातुनिषेचिता ।। | 3-3-77a 3-3-77b |
मनः सुपर्णो भूतादिः शीघ्रगः प्राणधारकः। धन्वन्तरिर्धूमकेतुरादिदेवोऽदितेः सुतः ।। | 3-3-78a 3-3-78b |
द्वादशात्माऽरविन्दाक्षः पिता माता पितामहः। स्वर्गद्वारं प्रजाद्वारं मोक्षद्वारं त्रिविष्टपम् ।। | 3-3-79a 3-3-79b |
देवकर्ता प्रशान्तात्मा विश्वात्मा विश्वतोमुखः। चराचरात्मा सूक्ष्मात्मा मैत्रेण वपुषाऽन्वितः ।। | 3-3-80a 3-3-80b |
एतद्वै कीर्तनीयस्य सूर्यस्यामिततेजसः। नाम्नामष्टशतं पुण्यं शक्रेणोक्तं महात्मना ।। | 3-3-81a 3-3-81b |
शक्राच्च नारदः प्राप्तो धौम्यश्च तदन्तरम्। धौम्याद्युधिष्ठरः प्राप्य सर्वान्कमानवाप्तवान् ।। | 3-3-82a 3-3-82b |
सुरगणपितृयक्षसेवितं ह्यसुरनिशाचरसिद्धवन्दितम्। वरकनकहुताशनप्रभं त्वमपि मनस्यभिधेहि भास्करम् ।। | 3-3-83a 3-3-83b 3-3-83c 3-3-83d |
सूर्योदये यः सुसमाहितः पठे- त्त पुत्रदारान्धनरत्नसंचयान्। लभेत जातिस्मरतां नरः सदा धृतिं च मेधां च स विन्दते पुमान् ।। | 3-3-84a 3-3-84b 3-3-84d 3-3-84c |
[इमं स्तवं देववरस्य यो नरः प्रकीर्तयेच्छुचिसुमनाः समाहितः। स मुच्यते शोकदवाग्निसागरा- ल्लभेत कामान्मनसा यथेप्सितान् ।। | 3-3-85a 3-3-85b 3-3-85c 3-3-85d |
[इमं स्तवं प्रयतमनाः समाधिना पछेदिहान्योऽपि वरं समर्थयन्। तत्त्स्य दद्याच्च रविर्मनीषितं तदाऽऽप्नुयाद्यद्यपि तत्सुदुर्लभम् ।। | 3-3-86a 3-3-86b 3-3-86c 3-3-86d |
यश्चेदं धारयेन्नित्यं शृणुयाद्वाप्यभीक्ष्णशः। पुत्रार्थी लभते पुत्रं धनार्थी लभते धनम्। विद्यार्थी लभते विद्यां पुरुषोप्यथवा स्त्रियः ।। | 3-3-87a 3-3-87b 3-3-87c |
उभे संध्ये पठेन्नित्यं नारी वा पुरुषो यदि। आपदं प्राप्य मुच्येत बद्धो मुच्येत बन्धनात् ।। | 3-3-88a 3-3-88b |
संग्रामे च जयेन्नित्यं विपुलं चाप्नुयाद्वसु। मुच्यते सर्वपापेभ्यः सूर्यलोकं स गच्छति ।।] | 3-3-89a 3-3-89b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अरण्यपर्वणि किर्मीरवधपर्वणि तृतीयोऽध्यायः ।। 3 ।। |
3-3-4 धर्मेण योगमयेन ।। 3-3-6 तेजो रसान् जलानि। उद्धृत्य आदाय ।। 3-3-7 ओषधीपतिश्चन्द्रः ।। 3-3-11 तपोयोगः व्रतस्वीकारः तत्पूर्वकः समाधिर्ध्यानं तत्स्थैः ।। 3-3-14 विप्रत्यागसमाधिस्थः विप्रेभ्यस्त्यागः त्यज्यमानमन्नं तदर्थं समाधिस्थः नियमस्थः ।। 3-3-18 सांख्यानां ज्ञाननिष्ठानाम्। योगिनां चित्तनिरोधकानाम्। आवृणोतीत्यावृतं कपाटम्। कर्तरिक्तः। अर्गला कपाटविष्टम्भकं तिर्यक्काष्ठं तदुभयरहितं मुक्तिद्वारं त्वं मुमुक्षतां गतिः प्राप्यं पदम् ।। 3-3-28 सत्त्यं सत् पृथिव्यप्तेजांसि। त्यत् वाय्वाकाशौ तदात्मकं सत्त्यम्। सत्त्वं बुद्धिसत्त्वम्। सात्विका भावाः धर्मो ज्ञानं विराग ऐश्वर्यमित्याद्याः ।। 3-3-29 सुनाभं सुदर्शनम् ।। 3-3-32 प्रावाराः वस्त्रविशेषाः ।। 3-3-33 गोभिः रश्मिभिः ।। 3-3-39 सैरावताः मेघस्योपरि यो मेघः स ऐरावतस्तत्सहिताः। आभूतं यावच्चतुर्विधभूतग्रामं तस्य संप्लवः जलेनाभिप्लावनम् ।। 3-3-42 हन्ति गच्छति विश्वं संहरतीति वा हंसः वृषाकपिः हरो हरिर्वा ।। 3-3-43 गवां रश्मीनाम् ।। 3-3-44 सप्तसप्तिः सप्ताश्वः। धामकेशी ज्योतिर्मयकिरणवान् ।। 3-3-45 अनिर्विण्णः पूजने आसक्तः ।। 3-3-47 त्वद्भावभक्ताः सूर्यएव सर्वत्रास्तीति भावो भावना तत्र भक्ता आदृताः ।। 3-3-48 श्रद्धया आतिथ्यं चिकीर्षत इति संबन्धः ।। 3-3-49 अशनिक्षुभान् विद्युदशन्यादिप्रवर्तकान् ।। 3-3-50 क्षुभामैत्र्यौ निग्रहानुग्रहकर्त्र्यौ देवते ।। 3-3-53 पिठरं परिवेषणपात्रम्। ताम्रं ताम्रमयम्। वर्त्स्यति वृत्तिं जनजीविकांरूपां करिष्यति। पात्रेण पात्रप्रसूतेनान्नेन ।। 3-3-57 महानसे पाकशालायाम्। साघयामास कारयामास अन्नमिति शेषः ।। 3-3-58 संस्कृतं पक्वम्। वन्यमन्नं चतुर्विधमिति क. पाठः ।। 3-3-60 पार्षती पृषतः द्रुपदपितुः गोत्रापत्यम् ।। 3-3-62 प्रवर्तन्ते निःसरन्ति। विधिमन्त्रप्रमाणतः। विधिर्वसन्ते वसन्ते ज्योतिषा यजेतेत्यादिरज्ञापनरूपः। मन्त्रः अनुष्ठेयार्थस्मारक इषेत्वेत्यादिः। तावेव प्रमाणे ताभ्यामित्यर्थः ।। 3-3-76 सर्वलोकनमस्कृत इति झ. पाठः ।। 3-3-80 मैत्रेयः करुणान्वित इति झ. पाठः ।। 80
आरण्यकपर्व-002 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आरण्यकपर्व-004 |