महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-044
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उर्वश्यामर्जुनस्य दृष्टिविशेषेण तस्य तस्यामनुरागोत्प्रेक्षिणा शक्रेण चित्रसेनद्वारा तस्यास्तंप्रति यापनम् ।। 1 ।।
तथा स्वप्रार्थनां व्यर्थीकृतवते पार्थाय क्लीबो भवेति शापदानम् ।। 2 ।।
शक्रेण तच्छापस् भाव्यज्ञातवासमत्रोपयोगितया रपर्यवसानम् ।। 3 ।।
वैसंपायन उवाच। | 3-44-1x |
कदाचित्स हि देवेन्द्रश्चित्रसेनं रहोऽब्रवीत्। पार्थस्य चक्षुरुर्वश्यां सक्तं विज्ञाय वासवः ।। | 3-44-1a 3-44-1b |
गन्धर्वराज गच्छाद्य प्रहितोऽप्सरसांवराम्। उर्वशीं पुरुषव्याघ्रं सोपातिष्ठतु फल्गुनम् ।। | 3-44-2a 3-44-2b |
यथा न तामभिसृतां विद्यादस्मन्नियोगतः। तथा त्वया विधातव्यं स्त्रीसंसर्गविशारद ।। | 3-44-3a 3-44-3b |
एवमुक्तस्तथेत्युक्त्वा सोऽनुज्ञां प्राप्य वासवात्। गन्धर्वराजोऽप्सरसमभ्यगादुर्वशीं वराम् ।। | 3-44-4a 3-44-4b |
तां दृष्ट्वा विदितो हृष्टः स्वागतेनार्चितस्तया। सुखासीनः सुखासीनां स्मितपूर्वं वचोऽब्रवीत् ।। | 3-44-5a 3-44-5b |
विदितं तेऽस्तु सुश्रोणि प्रेषितोऽहमिहागतः। त्रिदिवस्यैकराजेन त्वत्प्रसादाभिनन्दिना ।। | 3-44-6a 3-44-6b |
यः स देवमनुष्येषु प्रख्यातः सहजैर्गुणैः। श्रिया शीलेन रूपेण श्रुतेन च बलेन च। प्रख्यातः शौर्यवीर्याभ्यां प्रपन्नः प्रतिभानवान् ।। | 3-44-7a 3-44-7b 3-44-7c |
तेजस्वी सौम्यीलश्च क्षमावाञ्जितमत्सरः। साङ्गोपनिषदान्वेदांश्चतुराख्यानपञ्चमान् ।। | 3-44-8a 3-44-8b |
योऽधीते गुरुशुश्रूषां मेधां चाष्टगुणाश्रयाम्। ब्रह्मचर्येण दाक्ष्येण प्रसवैर्वयसाऽपि च ।। | 3-44-9a 3-44-9b |
एको वै रक्षिता चैव त्रिदिवं मघवानिव। अकत्थनो मानयिता स्थूललक्ष्यः प्रियंवदः ।। | 3-44-10a 3-44-10b |
सुहृदश्चान्नपानेन विविधेनाभिवर्षति। सत्यवागूर्जितो वक्ता रूपवाननहंकृतः ।। | 3-44-11a 3-44-11b |
भक्तानुकम्पी कान्तश्च प्रियश्च स्थिरसंगरः। प्रार्थनीयैर्गुणगणैर्महेन्द्रवरुणोपमः ।। | 3-44-12a 3-44-12b |
विदितस्तेऽर्जुनो वीरः स स्वर्गफलमाप्तवान्। तव शक्राभ्यनुज्ञातः पादावद्यप्रपद्यताम्। | 3-44-13a 3-44-13b |
एवमुक्ता स्मितं कृत्वा स्वात्मानं बहुमान्य च। प्रत्युवाचोर्वशी प्रीता चित्रसेनमनिन्दिता ।। | 3-44-14a 3-44-14b |
यत्त्वस्य कथितः सत्यो गुणोद्देशस्त्वयाऽनघ। तं श्रुत्वाऽन्यं प्रियं नारी वृणुयात्किमतोऽर्जुनं ।। | 3-44-15a 3-44-15b |
तस्य चाहं गुणौघेन फल्गुने जातमन्मथा। गच्छत्वं हि याथाकाममागमिष्याम्यहं सुखम् ।। | 3-44-16a 3-44-16b |
वैशंपायन उवाच। | 3-44-17x |
ततो विसृज्यगन्धर्वं कृतकृत्या शुचिस्मिता। उर्वशी चाकरोत्स्नानं पार्थप्रार्थनलालसा ।। | 3-44-17a 3-44-17b |
स्नानालङ्कारनेपथ्यैर्गन्धमाल्यैश्च शौभनैः। धनंजयस्य रूपेण शरैर्मन्मथचोदितैः ।। | 3-44-18a 3-44-18b |
अतिविद्धेन मनसा मन्मथेन प्रदीपिता। दिव्यास्तरणसंस्तीर्णे विस्तीर्णे शयनोत्तमे ।। | 3-44-19a 3-44-19b |
चित्तसंकल्पभावेन सुचित्ताऽनन्यमानसा। मनोरथेन संप्राप्तं रमयन्तीव फल्गुनम् ।। | 3-44-20a 3-44-20b |
निशाम्य चन्द्रोदयनं विगाढे रजनीमुखे। प्रस्थिता सा पृथुश्रोणी पार्थस्य भवनं महत् ।। | 3-44-21a 3-44-21b |
मृदुकुञ्चितदीर्घेण कुसुमोत्तमधारिणा। केशपाशेन ललना गच्छमाना व्यराजत ।। | 3-44-22a 3-44-22b |
भ्रूक्षेपालापमाधुर्यैः कान्त्या सौम्यतयाऽपि च। शशिनं वक्रचन्द्रेण साऽऽह्वयन्तीव गच्छती ।। | 3-44-23a 3-44-23b |
दिव्याङ्गरागौ सुमुखौ दिव्यचन्दनरूषितौ। गच्छन्त्या हाररुचिरौ स्तनौ तस्या ववल्गतुः ।। | 3-44-24a 3-44-24b |
स्तनोद्वहनसंक्षोभात्ताम्यमाना पदेपदे। त्रिवलीदामचित्रेण मध्येनातीव शेभिना ।। | 3-44-25a 3-44-25b |
रथकूबरविस्तीर्णं नितम्बोन्नतपीवरम्। मन्मथायतनं शुभ्रं रशनादामभूषितम् ।। | 3-44-26a 3-44-26b |
ऋषीणामपि दिव्यानां मनोव्याघातकारणम्। सूक्ष्मवस्त्रधरं भाति जघनं निरवद्यवत् ।। | 3-44-27a 3-44-27b |
गूडगुल्फधरौ पादौ ताम्रायततलाङ्गुली। कूर्मपृष्ठोन्तौ चास्याः शोभेते किङ्किणीकिणौ ।। | 3-44-28a 3-44-28b |
शीधुपानेन चाल्पेन तुष्टा च मदनेन च। विलासितैश्च विविधैः प्रेक्षणीयतराऽभवत् ।। | 3-44-29a 3-44-29b |
सिद्धचारणगन्धर्वैः साध्यैर्याति विलासिनी। बब्वाश्चर्येऽपि वै स्वर्गे दर्शनीयतमाकृतिः ।। | 3-44-30a 3-44-30b |
सुमूक्ष्मेणोत्तरीयेण मेघवर्णेन राजता। तन्वभ्रप्रावृता व्योम्नि चन्द्रलेखेन गच्छति ।। | 3-44-31a 3-44-31b |
ततः प्राप्तातिदुष्प्रापा मनसाऽपि विकर्मभिः। भवनं पाण्डुपुत्रस्य फल्गुनस्य शुचिस्मिता ।। | 3-44-32a 3-44-32b |
तत्र द्वारमनुप्राप्ता द्वारस्थैश्च निवेदिता। अर्जुनस्य नरश्रेष्ठ उर्वशी शुभलोचना ।। | 3-44-33a 3-44-33b |
उपातिष्ठत तद्वेश्म निर्मलं सुमनोहरम्। स शङ्कितमना राजन्प्रत्यगच्छत तां निशि ।। | 3-44-34a 3-44-34b |
दृष्ट्वैव चोर्वशीं पार्थो लज्जासंवृलोचनः। तदाऽभिवादनं कृत्वा गुरुपूजां प्रयुक्तवान् ।। | 3-44-35a 3-44-35b |
अर्जुन उवाच। | 3-44-36x |
अभिवादये त्वां शिरसा प्रवराप्सरसांवरे। किं चागमनकृत्यं ते ब्रूहि सर्वं यथातथम्। किमाज्ञापयसे देवि प्रेष्यस्तेऽहमुपस्थितः ।। | 3-44-36a 3-44-36b 3-44-36c |
अकामं फल्गुनं ज्ञात्वा इङ्गितज्ञा तदोर्वशी। गन्धर्ववचनं सर्वं श्रावयामास फल्गुनम् ।। | 3-44-37a 3-44-37b |
उर्वश्युवाच। | 3-44-38x |
यथा मे चित्रसेनेन कथितं मनुजोत्तम। नत्तेऽहं संप्रवक्ष्यामि यथा चाहमिहागता ।। | 3-44-38a 3-44-38b |
उपस्ताने महेन्द्रस् वर्तमाने मनोरमे। तवागमनतुष्ट्या च स्वर्गस्य परमोत्सवे ।। | 3-44-39a 3-44-39b |
रुद्राणां चैव सान्निध्यमादित्यानां च सर्वशः। समागमेऽश्विनोश्चैव वसूनां च नरोत्तम ।। | 3-44-40a 3-44-40b |
महर्षीणां च सङ्घेषु राजर्षिप्रवरेषु च। सिद्धचारणयक्षेषु महोरगगणेषु च ।। | 3-44-41a 3-44-41b |
उपविष्टेषु सर्वेषु स्थानमानप्रभावतः। ऋद्ध्या प्रज्वलमानेषु अग्निसोमार्कवर्ष्मसु ।। | 3-44-42a 3-44-42b |
वीणासु वाद्यमानासु गन्धर्वैः शक्रनन्दन। दिव्ये मनोरमे गीते प्रवृत्ते पृथुलोचन ।। | 3-44-43a 3-44-43b |
सर्वाप्सरःसु मुख्यासु प्रनृत्तासु कुरूद्वह। त्वं किलानिमिषः पार्थ मामेकां तत्र दृष्टवान् ।। | 3-44-44a 3-44-44b |
तत्र चावभृथे तस्मिन्नुपस्थाने दिवौकसाम्। तव पित्राऽभ्यनुज्ञाता गताः स्वनिलयान्सुराः ।। | 3-44-45a 3-44-45b |
तथैवाप्सरसः सर्वाविशिष्टाः स्वगृहं गताः। अपि चान्याश्च शत्रुघ्न तव पित्रा विसर्जिताः ।। | 3-44-46a 3-44-46b |
ततः शक्रेण संदिष्टश्चित्रसेनो ममान्तिकम्। प्राप्तः कमलपत्राक्ष स च मामब्रवीत्स्वयम् ।। | 3-44-47a 3-44-47b |
त्वत्कृतेऽहं सुरेशेन प्रेषितो वरवर्णिनि। प्रियं कुरु महेन्द्रस्य मम चैवात्मनश्च ह ।। | 3-44-48a 3-44-48b |
शक्रतुल्यं रणे शूरं रूपौदार्यगुणान्वितम्। पार्थं प्रार्थय सुश्रोणि त्वमित्येवं तदाऽब्रवीत् ।। | 3-44-49a 3-44-49b |
ततोऽहं समनुज्ञाता तेन पित्रा च तेऽनघ। तवान्तिकमनुप्राप्ता शुश्रूषितुमरिंदम ।। | 3-44-50a 3-44-50b |
न केवलं हि चक्रेण प्रेषिता चाहमागता। चिराभिलषितो वीर ममाप्येष मनोरथः ।। | 3-44-51a 3-44-51b |
वैशंपायन उवाच। | 3-44-52x |
तां तथा ब्रुवतीं श्रुत्वा भृशं लज्जान्वितोऽर्जुनः। उवाच कर्णौ हस्ताभ्यां पिधाय त्रिदशोपमः ।। | 3-44-52a 3-44-52b |
दुःश्रुतं मेऽस्तु सुभगे यन्मां वदसि भामिनि। गुरुदारैः समाना मे निश्चयेन वरानने ।। | 3-44-53a 3-44-53b |
[यथा कुन्तीमहाभागा यथेन्राणी शची मम। तथा त्वमपि कल्याणीनात्र कार्या विचारणा] | 3-44-54a 3-44-54b |
यच्चेक्षिताऽसि विस्पष्टं विशेषेण मया शुभे। तच्च मे कारणं सर्वं शृणु सत्येन सुस्मिते ।। | 3-44-55a 3-44-55b |
इयं पौरववंशस् जननी सुदतीति ह। त्वामहं दृष्टवांस्तत्र विस्मयोत्फुल्ललोचनः ।। | 3-44-56a 3-44-56b |
न मामर्हसि कल्याणि अन्यथा ध्यात्रमप्सरः। गुरोर्गरुतरा मे त्वं मम त्वं वंशवर्धिनी ।। | 3-44-57a 3-44-57b |
उर्वश्युवाच। | 3-44-58x |
अनावृताश्च सर्वाः स्म देवराजाभिनन्दन। गुरुस्थाने न मां वीर नियोक्तुं त्वमिहार्हसि ।। | 3-44-58a 3-44-58b |
पितरः सोदराः पुत्रा नप्तारो वा त्विहागताः। तपसा रमयन्त्यस्मान्न च तेषां व्यतिक्रमः ।। | 3-44-59a 3-44-59b |
तत्प्रसीद न मामार्तां विसर्जयितुमर्हसि। हृच्छयेन च संतप्तां भक्तां च भज मानद ।। | 3-44-60a 3-44-60b |
अर्जुन उवाच। | 3-44-61x |
शृणु सत्यंवरारोहे यत्त्वां वक्ष्याम्यनिन्दिते। शृण्वन्तु मे दिशश्चैव विदिशश्च सदेवताः ।। | 3-44-61a 3-44-61b |
यथा कुन्ती च माद्री च शची चैव समा इह। तथा च वंशजननी त्वं हि मेऽद्य गरीयसी ।। | 3-44-62a 3-44-62b |
गच्छ मूर्ध्ना प्रपन्नोस्मि पादौ ते वरवर्णिनि। त्वं हि मे मातृवत्पूज्या रक्ष्योऽहं पुत्रवत्त्वया ।। | 3-44-63a 3-44-63b |
वैशंपायन उवाच। | 3-44-64x |
ततोऽवधूता पार्थेन उर्वशी क्रोधमूर्च्छिता। वेपन्ती भ्रुकुटीकक्रा शशापाथ धनंजयम् ।। | 3-44-64a 3-44-64b |
उर्वश्युवाच। | 3-44-65x |
तव पित्राऽभ्यनुज्ञातां स्वयं च गृहमागताम्। यस्मान्मां नाभिनन्देथाः कामबाणवशंगताम् ।। | 3-44-65a 3-44-65b |
तस्मात्त्वं नर्तकः पार्थ स्त्रीमध्ये मानवर्जितः। अपुंस्त्वेन च विख्यातः पण्ढवद्विचरिष्यसि ।। | 3-44-66a 3-44-66b |
एवं दत्त्वाऽर्जुने शापं स्फुरितोष्ठी श्वसन्त्यथ। पुनः प्रत्यागता क्षिप्रमुर्वशी स्वं निवेशनम् ।। | 3-44-67a 3-44-67b |
पार्थोपि लब्ध्वा शापं तं तां निशां दुःखितोऽवसम्। विवक्षुश्चित्रसेनाय प्रातः सर्वमहृष्टवत् ।। | 3-44-68a 3-44-68b |
ततः प्रभाते विमले गन्धर्वाय यथातथम्। निवेदयामास तदा चित्रसेनाय पाण्डवः ।। | 3-44-69a 3-44-69b |
तच्च सर्वं यथावृत्तं शापं चैव यथातथम्। अवेदयच्च शक्रस्य चित्रसेनोऽपि सर्वशः ।। | 3-44-70a 3-44-70b |
तदा त्वानाय्य तनयं विविक्ते हरिवाहनः। सान्त्वयित्वा शुभैर्वाक्यैः स्मयमानोऽभ्यभाषत ।। | 3-44-71a 3-44-71b |
सुपुत्राद्यपृथा तात त्वया पुत्रेण सत्तम। ऋषयोपि हि धैर्येण जिता वै ते महाभुज ।। | 3-44-72a 3-44-72b |
यं च दत्तवती शापमुर्वशी तव मानद। स चापि तेऽर्थकृत्तात साधकश्च भविष्यति ।। | 3-44-73a 3-44-73b |
अज्ञातवासो वस्तव्यो भवद्भिर्भूतलेऽनघ। वर्पे त्रयोदशे वीर तत्र त्वं गमयिष्यसि ।। | 3-44-74a 3-44-74b |
तेन नर्तकवेपेण अपुंस्त्वेन तथैव च। वर्षमेकं विहृत्यैव ततः पुंस्त्वमवाप्स्यसि ।। | 3-44-75a 3-44-75b |
एवमुक्तस्तु शक्रेण फल्गुनः परवीरहा। मुदं परमिकां लेभे न च शापं व्यचिन्तयत् ।। | 3-44-76a 3-44-76b |
चित्रसेनेन सहितो गन्धर्वेण यशस्विना। रेमे स स्वर्गभवने पाण्डुपुत्रो धनंजयः ।। | 3-44-77a 3-44-77b |
य इमां शृणुयान्नित्यं धृतिं पाण्डुसुतस्य वै। न तस्य कामः कामेषु पापकेषु प्रवर्तते ।। | 3-44-78a 3-44-78b |
इदममरवरात्मजस्य घोरं सुचि चरितं विनिशाम्य फल्गुनस्य। व्यपगतमददम्भरागदोषा- स्त्रिदिवगताऽभिरमन्ति मानवेन्द्राः ।। | 3-44-79a 3-44-79b 3-44-79c 3-44-79d |
।। इति श्रीमन्महाभारते अरण्यपर्वणि इन्द्रलोकाभिगमनपर्वणि चतुश्चत्वारिंशोऽध्यायः ।। 44 ।। |
टिप्पणी
सम्पाद्यताम्3-44-7 प्रतिभानं समये स्फूर्तिः ।। 3-44-8 चतुराख्यानपच्चमान् चतुःचतुःसंख्यान्। विभक्तिलोप आर्षः ।। 3-44-9 गुरुशुश्रूषां मेघां च प्रत्येकमष्टगुणां अधीते प्राप्नोति। प्रसवैर्देव मातुः कुलेद्वे पितुस्तैश्चतुर्भिः ।। 3-44-10 स्थूललक्ष्यो दाता ।। 3-44-12 कान्तः सुखदः ।। 3-44-13 स्वर्गफलं त्वत्सङ्गम् ।। 3-44-23 आङ्गयन्ती स्वर्धया युद्धार्थम् ।। 3-44-26 उन्नतः पीवरश्च नितम्बो यस्येति विशेषणं विशेष्येण बहुलमिति बाहुलकात्समासः ।। 3-44-45 अवभृथो यज्ञान्तस्नानं तत्प्राप्ये ।। 3-44-59 पुरोर्वंशे हि ये पुत्रा इति झ. पाठः ।। 3-44-79 इदममरवरात्मजस्यघोरां धृतिमचलां च धनञ्जयस्य श्रुत्वा। अपगतभयदम्भरागरोषास्त्रिदिवगता रमयन्ति मानवेन्द्राः। इति क. ध. पाठः ।।
आरण्यकपर्व-043 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आरण्यकपर्व-045 |