महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-127
← आरण्यकपर्व-126 | महाभारतम् तृतीयपर्व महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-127 वेदव्यासः |
आरण्यकपर्व-128 → |
लोमशेन युधिष्ठिरंप्रति मान्धातृपदप्रवृत्तिनिमित्तकथनपूर्वकं मांदातृचरित्रकीर्तनम् ।। 1 ।।
युधिष्ठिर उवाच। | 3-127-1x |
मान्धाता राजशार्दूलस्त्रिषु लोकेषु विश्रुतः। कथं जातो महाब्रह्मन्यौवनाश्वो नृपोत्तमः ।। | 3-127-1a 3-127-1b |
कथं चैनां परां ख्यातिं प्राप्तवानमितद्युतिः। यस्य लोकास्त्रयो वश्या विष्णोरिव महात्मनः ।। | 3-127-2a 3-127-2b |
एतदिच्छाम्यहं श्रोतुं चरितं तस्य धीमतः। `सत्यकीर्तेर्हि मान्धातुः कथ्यमानं त्वयाऽनघ' ।। | 3-127-3a 3-127-3b |
यथा मान्धातृशब्दश्च तस्य शक्रसमद्युते। जन्म चाप्रतिवीर्यस् कुशलो ह्यसि भाषितुम् ।। | 3-127-4a 3-127-4b |
लोमश उवाच। | 3-127-5x |
शृणुष्वावहितो राजन्राज्ञस्तस्य महात्मनः। यथा मान्धातृशब्दो वै लोकेषु परिगीयते ।। | 3-127-5a 3-127-5b |
इक्ष्वाकुवंशप्रभवो युवनाश्वो महीपतिः। सोऽयजत्पृथिवीपालः क्रतुभिर्भूरिदक्षिणैः ।। | 3-127-6a 3-127-6b |
अश्वमेधसहस्रं च प्राप्य धर्मभृतांवरः। अन्यैश्च क्रतुभिर्मुख्यैरयजत्स्वाप्तदक्षिणैः ।। | 3-127-7a 3-127-7b |
अनपत्यस्तु राजर्षिः स महात्मा महाव्रतः। मन्त्रिष्वाधाय तद्राज्यं वनित्यो बभूव ह। शास्त्रदृष्टेन विधिना संयोज्यात्मानमात्मवान् ।। | 3-127-8a 3-127-8b 3-127-8c |
स कदाचिन्नृपो राजन्नुपवासेन दुःखितः। पिपासाशुष्कहृदयः प्रविवेशाश्रमं भृगोः ।। | 3-127-9a 3-127-9b |
तामेव रात्रिं राजेन्द्र महात्मा भृगुनन्दनः। इष्टिं चकार सौद्युम्नेर्महर्षिः पुत्रकारणात् ।। | 3-127-10a 3-127-10b |
संभृतो मन्त्रपूतेन वारिणा कलशो महान्। तत्रातिष्ठत राजेन्द्र पूर्वमेव समाहितः ।। | 3-127-11a 3-127-11b |
यत्प्राश्य प्रसवेत्तस्य पत्नी शक्रसमं सुतम्। `तद्वारि विहितं राजन्यस्मिन्नासीत्सुसंस्कृतम्'। तं न्यस्य वेद्यां कलशं सुषुपुस्ते महर्षयः ।। | 3-127-12a 3-127-12b 3-127-12c |
रात्रिजागरणाच्छ्रान्तान्सौद्युम्निः समतीत्य तान्। शुष्ककण्ठः पिपासार्तः पानीयार्थी भृशं नृपः। तं प्रविश्याश्रमं शान्तः पानीयं सोऽभ्ययाचत ।। | 3-127-13a 3-127-13b 3-127-13c |
तस्य श्रान्तस्य शुष्केण कण्ठेन क्रोशतस्तदा। नाश्रौषीत्कश्चन तदा शकुनेरिव वाशतः ।। | 3-127-14a 3-127-14b |
ततस्तं कलशं दृष्ट्वा जलपूर्णं स पार्थिवः। अभ्यद्रवत वेगेन पीत्वा चाम्भो व्यवासृजत् ।। | 3-127-15a 3-127-15b |
स पीत्वा शीतलं तोयं पिपासार्तो महीपतिः। निर्वाणमगमद्धीमान्सुसुखी चाभवत्तदा ।। | 3-127-16a 3-127-16b |
ततस्ते प्रत्यबुध्यन्त मुनयः सतपोधनाः। निस्तोयं तं च कलशं ददृशुः सर्व एव ते ।। | 3-127-17a 3-127-17b |
कस्य कर्मेदमिति ते पर्यपृच्छन्समागताः। युवनाश्वो ममेत्येवं सत्यं समभिपद्यत ।। | 3-127-18a 3-127-18b |
न युक्तमिति तं प्राह भगवान्भार्गवस्तदा। सुतार्थं स्थापिता ह्यापस्तपसा चैव संभृताः ।। | 3-127-19a 3-127-19b |
मया ह्यत्राहितं ब्रह्म तप आस्थाय दारुणम्। पुत्रार्थं तव राजर्षे महाबलपराक्रम ।। | 3-127-20a 3-127-20b |
महाबलो महावीर्यस्तपोबलसमन्वितः। यः शक्रमपि वीर्येण गमयेद्यमसादनम् ।। | 3-127-21a 3-127-21b |
अनेन विधिना राजन्मयैतदुपपादितम्। अब्भक्षणं त्वया राजन्न युक्तं कृतमद्य वै ।। | 3-127-22a 3-127-22b |
न त्वद्य शक्यमस्माभिरेतत्कर्तुमतोऽनय्था। नूनं दैवकृतं ह्येतद्यदेवं कृतवानसि ।। | 3-127-23a 3-127-23b |
पिपासितेन याः पीता विधिमन्त्रपुरस्कृताः। आपस्त्वया महाराज मत्तपोवीर्यसंभृताः ।। | 3-127-24a 3-127-24b |
ताभ्यस्त्वमात्मना पुत्रमीदृशं जनयिष्यसि। विधास्यामो वयं तत्र तवेष्टिं परमाद्भुताम् ।। | 3-127-25a 3-127-25b |
यथा शक्रसमं पुत्रं जनयिष्यसि वीर्यवान्। `न च प्राणैर्महाराज वियोगस्ते भविष्यति' ।। | 3-127-26a 3-127-26b |
मा खिदस्त्वं हि राजेनद्र दैवं हि बलवत्तरम्'। गर्भधारणजं वाऽपि न खेदं समवाप्स्यसि ।। | 3-127-27a 3-127-27b |
ततो वर्षशते पूर्णे तस्य राज्ञो महात्मनः। वामं पार्श्वं विनिर्भिद्य सुतः सूर्य इव स्थितः ।। | 3-127-28a 3-127-28b |
निश्चक्राम महातेजा न च तं मृत्युराविशत्। युवनाश्वं नरपतिं तदद्भुतमिवाभवत् ।। | 3-127-29a 3-127-29b |
ततः शक्रो महातेजास्तं दिदृक्षुरुपागमत्। ततो देवा महेन्द्रं तमपृच्छन्धास्यतीति किम् ।। | 3-127-30a 3-127-30b |
प्रदेशिनीं ततोऽस्यास्ये शक्रः समभिसंदधे। मामयं धास्यतीत्येवं भाषिते चैव वज्रिणा। मांधातेति च नामास्य चक्रुः सेन्द्रा दिवौकसः ।। | 3-127-31a 3-127-31b 3-127-31c |
प्रदेशिनीं शक्रदत्तामाखाद्य स शिशुस्तदा। अवर्धत महातेजाः किष्कून्राजंस्त्र्योदश ।। | 3-127-32a 3-127-32b |
वेदास्तं सधनुर्वेदा दिव्यान्स्त्राणि चेश्वरम्। उपतस्थुर्महाराजं ध्यातमात्राणि सर्वशः ।। | 3-127-33a 3-127-33b |
धनुराजगवं नाम शराः शृङ्गोद्भवाश्च ये। अभेद्यं कवचं चैव सद्यस्तमुपशिश्रियुः ।। | 3-127-34a 3-127-34b |
सोऽभिषिक्तो भगवता स्वयं शक्रेण भारत। धर्मेण व्यजयल्लोकांस्त्रीन्विष्णुरिव विक्रमैः ।। | 3-127-35a 3-127-35b |
तस्याप्रतिहतं चक्रं प्रावर्तत महात्मनः। रत्नानि चैव राजर्षिं स्वयमेवोपतस्थिरे ।। | 3-127-36a 3-127-36b |
तस्येयं वसुसंपूर्णा वसुधा वसुधाधिप। तेनेष्टं विविधैर्यज्ञैर्बहुभिः स्वाप्तदक्षिणैः ।। | 3-127-37a 3-127-37b |
चितचैत्यो महातेजा धर्मान्प्राप्य च पुष्कलान्। शक्रस्यार्धासनं राजँल्लब्धवानमितद्युतिः ।। | 3-127-38a 3-127-38b |
एकाह्ना पृथिवी तेन धर्मनित्येन धीमता। विजिता शासनादेव सरत्नाकरपत्तना ।। | 3-127-39a 3-127-39b |
तस्य चैत्यैर्महाराज क्रतूनां दक्षिणावताम्। चतुरन्ता मही व्याप्ता नासीत्किंचिदनावृतम् ।। | 3-127-40a 3-127-40b |
तेन पद्मसहस्राणि गवां दश महात्मना। ब्राह्मणेभ्यो महाराज दत्तानीति प्रचक्षते ।। | 3-127-41a 3-127-41b |
तेन द्वादशवार्षिक्यामनावृष्ट्यां महात्मना। वृष्टं सस्यविवृद्ध्यर्थं मिषतो वज्रपाणिनः ।। | 3-127-42a 3-127-42b |
तेन सोमकुलोत्पन्नो गान्धाराधिपतिर्महान्। शर्जन्निव महामेघः प्रमथ्य निहतः शरैः ।। | 3-127-43a 3-127-43b |
प्रजाश्चतुर्विधास्तेन त्राता राजन्कृतात्मना। तेनात्मतपसा लोकास्तापिताश्चातितेजसा ।। | 3-127-44a 3-127-44b |
तस्यैतद्देवयजनं स्थानमादित्यवर्चसः। यस्य पुण्यतमे देशे कुरुक्षेत्रेस्य मध्यतः ।। | 3-127-45a 3-127-45b |
`तथा त्वमपि राजेन्द्र मान्धातेव महीपतिः। धर्मं कृत्वा महीं रक्ष स्वर्गलोकं गमिष्यसि' ।। | 3-127-46a 3-127-46b |
एतत्ते सर्वमाख्यातं मान्धातुश्चरितं महत्। जन्म चाग्र्यं महीपाल यन्मां त्वं परिपृच्छसि ।। | 3-127-47a 3-127-47b |
वैशंपायन उवाच। | 3-127-48x |
एवमुक्तः स कौन्तेयो लोमशेन महर्षिणा। पप्रच्छानन्तरं भूयः सोमकं प्रति भारत ।। | 3-127-48a 3-127-48b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अरण्यपर्वणि तीर्थयात्रापर्वणि सप्तविंशत्यधिकशततमोऽध्यायः ।। 127 ।। |
3-127-1 यौवनाश्वो युवनाश्वपुत्रः। यौवनाश्विर्नृपोत्तम इति क. पाठः ।। 3-127-8 आत्मानं चित्तम्। आत्मवान् जितचित्तः। संयोज्येष्टदेवतया ऐवयं नीत्वा ।। 3-127-10 सौद्युम्नेः युवनाश्वस्य ।। 3-127-14 वाशतः शब्दं कुर्वतः ।। 3-127-16 निर्वाणं तपःफलम् ।। 3-127-25 इष्टिमिच्छितम् ।। 3-127-30 किं धास्यति पास्यति स्तन्याभावात् ।। 3-127-31 मां धास्यति मां धाता। धातेति लुडन्तस्य व्याख्यानं धास्यतीति। प्रदेशिनीं, तर्जनीम् ।। 3-127-32 किष्कून् हस्तान् वितस्तीन्वा ।। 3-127-36 चक्रमाज्ञा 3-127-38 चितचैत्यः कृतचयनक्रतुः ।। 3-127-41 पद्मं शतकोटयस्तेषामपि सहस्राणि दश ।। 3-127-44 चतुर्विधाः सुरनरतिर्यक्स्थावराः ।।
आरण्यकपर्व-126 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आरण्यकपर्व-128 |