महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-140
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रैभ्ययाज्येन बृहद्द्युम्नेन सत्रे सहायत्वेन वृतयोरर्वावसुपरावस्वोस्तदर्थं गमनम् ।। 1 ।। भार्यादिदृक्षया पुनराश्रमं गतेन परावसुना रात्रौ मृगभ्रमेण कृष्णाजिनसंवीतस्य रैभ्यस्य हननम् ।। 2 ।। परावसुचोदनया बृहद्द्युम्नेन ब्रह्महत्याग्रस्त इति प्रोत्सार्यमाणेनार्वावसुना तपःप्रसादितसूर्यादिदेवेभ्यो रैभ्यभरद्वाजयवक्रीतोत्थानादिवरग्रहणम् ।। 3 ।। देवैर्यवक्रीतदुःखस्य वनोपदेशं वेदाभ्यासफलत्वकथनपूर्वकं रैभ्यादीनामुज्जीवनम् ।। 4 ।।
लोमश उवाच। | 3-140-1x |
एतस्मिन्नेव काले तु बृहद्द्युम्नो महीपतिः। सत्रं तेने महाभागो रैभ्ययाज्यः प्रतापवान् ।। | 3-140-1a 3-140-1b |
तेन रैभ्यस्य वै पुत्रावर्वावसुपरासू। वृतौ सहायौ सत्रार्थं बृहद्द्युम्नेन धीमता ।। | 3-140-2a 3-140-2b |
तत्र तौ समनुज्ञातौ पित्रा कौन्तेय जग्मतुः। आश्रमे त्वभवद्रैभ्यो भार्या चैव परावसोः ।। | 3-140-3a 3-140-3b |
अथावलोककोऽगच्छद्गृहानकः परावसुः। कृष्णाजिनेन संवीतं ददर्श पितरं वने ।। | 3-140-4a 3-140-4b |
जघन्यरात्रे निद्रान्धः सावशेषे तमस्यापि। चरन्तं गहनेऽरण्ये मेने स पितरं मृगम् ।। | 3-140-5a 3-140-5b |
मृगं तु मन्यमानेन पिता वै तेन हिंसितः। अकामयानेन तदा शरीरत्राणमिच्छता ।। | 3-140-6a 3-140-6b |
तस्य स प्रेतकार्याणि कृत्वा सर्वाणि भारत। पुनरागम्य तत्सत्रमब्रवीद्धातरं वचः ।। | 3-140-7a 3-140-7b |
इदं कर्म न शक्तस्त्वं वोढुमेकः कथंचन। मया च हिंसितस्तातो मन्यमानेन वै मृगम् ।। | 3-140-8a 3-140-8b |
सोऽस्मदर्थे व्रतं तात चर त्वं ब्रह्मघातिनाम्। समर्थो ह्यहमेकाकी कर्म कर्तुमिदं मुने ।। | 3-140-9a 3-140-9b |
अर्वावसुरुवाच। | 3-140-10x |
करोतु वै भवान्सत्रं बृहद्द्युम्नस्य धीमतः। ब्रह्महत्यां चरिष्येऽहं त्वदर्थं नियतेन्द्रियः ।। | 3-140-10a 3-140-10b |
लोमश उवाच। | 3-140-11x |
स तस्यब्रह्महत्यायाः पारं गत्वा युधिष्ठिर। अर्वावसुस्तदा सत्रमाजगाम पुनर्मुनिः ।। | 3-140-11a 3-140-11b |
ततः परावसुर्दृष्ट्वा भ्रातरं समुपस्थितम्। बृहद्द्युम्नमुवाचेदं वचनं हर्षगद्गदम् ।। | 3-140-12a 3-140-12b |
एष ते ब्रह्महा यज्ञं मा द्रष्टुं प्रविशेदिति। ब्रह्महा प्रेक्षितेनापि पीडयेत्त्वामसंशयम् ।। | 3-140-13a 3-140-13b |
लोमश उवाच। | 3-140-14x |
तच्छ्रुत्वैव तदा राजा प्रेष्यानाह स विट्पते। प्रेष्यैरुत्सार्यमाणस्तु राजन्नर्वावसुस्तदा। न मया ब्रह्महत्येयं कृतेत्याह पुनःपुनः ।। | 3-140-14a 3-140-14b 3-140-14c |
उच्यमानोऽसकृत्प्रेष्यैर्ब्रह्महा इति भारत। नैवस्म प्रतिजानामि ब्र्हमहत्यां स्वयंकृताम्। मम भ्रात्रा कृतमिदं मया स परिमोक्षितः ।। | 3-140-15a 3-140-15b 3-140-15c |
स तथा प्रवदन्क्रोधात्तैश्च प्रेष्यैः प्रभाषितः। तूष्णीं जगाम ब्रह्मर्षिर्वनमेव महातपाः ।। | 3-140-16a 3-140-16b |
उग्रं तपः समास्थाय दिवाकरमथाश्रितः। रहस्यवेदं कृतवान्सूर्यस्य द्विजसत्तमः ।। | 3-140-17a 3-140-17b |
मूर्तिमांस्तं ददर्शाथ स्वयमग्रभुगव्ययः ।। | 3-140-18a |
प्रीतास्तस्याभवन्देवाः कर्मणाऽर्वावसोर्नृप। तं ते प्रवरयामासुर्निरासुश्च परावसुम् ।। | 3-140-19a 3-140-19b |
ततो देवा वरं तस्मै ददुरग्निपुरोगमाः ।। | 3-140-20a |
स चापि वरयामास पितुरुत्थानमात्मनः। अनागस्त्वं ततो भ्रातुः पितुश्चास्मरणं वधे ।। | 3-140-21a 3-140-21b |
भरद्वाजस्य चोत्थानं यवक्रीतस्य चोभयोः। प्रतिष्ठां चापि वेदस्य सौरस्य द्विजसत्तमः ।। | 3-140-22a 3-140-22b |
एवमस्त्विति तं देवाः प्रोचुश्चापि वरान्ददुः। ततः प्रादुर्बभूवुस्ते सर्व एव युधिष्ठिर ।। | 3-140-23a 3-140-23b |
अथाब्रवीद्यवक्रीतो देवानग्निपुरोगमान्। समधीतं मया ब्रह्म व्रतानि चरितानि च ।। | 3-140-24a 3-140-24b |
कथं च रैभ्यः शक्तो मामदीयानं तपस्विनम्। तथायुक्तेन विधिना निहन्तुममरोत्तमाः ।। | 3-140-25a 3-140-25b |
देवा ऊचुः। | 3-140-26x |
मैवं कृथा यवक्रीत यथा वदसि वै मुने। ऋते गुरुमधीता हि स्वयं वेदास्त्वया पुरा ।। | 3-140-26a 3-140-26b |
अनन तु गुरूनदुःखात्तोषयित्वाऽऽत्मक्रमणा। कालेन महता क्लेशाद्ब्रह्माधिगतमुत्तमम् ।। | 3-140-27a 3-140-27b |
लोमश उवाच। | 3-140-28x |
यवक्रीतमथोक्त्वैवं देवाः साग्निपुरोगमाः। संजीवयित्वा तान्सर्वान्पुनर्जग्मुस्त्रिविष्टपम् ।। | 3-140-28a 3-140-28b |
`ततो वै स यवक्रीतो ब्रह्मचर्यं चचार ह। अष्टादश च वर्षाणि त्रिंशतं च युधिष्ठिर' ।। | 3-140-29a 3-140-29b |
आस्रमस्तस्य पुण्योऽयं सदापुष्पफलद्रुमः। अत्रोष्य राजशार्दूल सर्वपापैः प्रभोक्ष्यसे ।। | 3-140-30a 3-140-30b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अरण्यपर्वणि तीर्थयात्रापर्वणि चत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः ।। 140 ।। |
3-140-4 अवलोककः अवलोकनार्थी। गृहान्भार्याम् ।। 3-140-5 जघानरात्राविति ध. पाठः ।। 3-140-9 चर त्वं ब्रह्मरक्षणे इति ध. पाठः ।। 3-140-14 विट्पते हे प्रजाधीश ।। 3-140-16 प्रभाषितो मिथ्यावाद्यसीत्यधिक्षिप्तः ।। 3-140-17 रहस्यवेदं सूर्यमन्त्रप्रकाशकं वेदम् ।। 3-140-18 मूर्तिमान्सूर्यस्तं द्विजं ददर्शं आत्मानं दर्शयामास ।। 3-140-19 तं देवाः प्रकर्षेण वरयामासुः। निरासुर्निराचक्रुर्यज्ञादिति शेषः ।। 3-140-22 प्रतिष्ठां संप्रदायप्रवृत्तिम्। सौरस्य सूर्यप्रकाशकस्य ।। 3-140-24 समधीतं साम्यक्प्राप्तम्। ब्रह्म वेदः ।।
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