महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-215
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कौशिकंप्रति धर्मव्याधे नभूतपञ्चकगुणनिरूपणपूर्वकमिन्द्रियजयाजययोः सुखदुःखासाधारणकारणताकथनम् ।। 1 ।।
महाभारतस्य पर्वाणि |
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मार्कण्डेय उवाच। | 3-215-1x |
एवमुक्तः स विप्रस्तु धर्मव्याधेन भारत। कथामकथयद्भूयो मनसः प्रीतिवर्धनीम् ।। | 3-215-1a 3-215-1b |
ब्राह्मण उवाच। | 3-215-2x |
महाभूतानि यान्याहुः पञ्च धर्मविदांवर। एकैकस्य गुणान्सम्यक्पञ्चानामपि मे वद ।। | 3-215-2a 3-215-2b |
व्याध उवाच। | 3-215-3x |
भूमिरापस्तथा ज्योतिर्वायुराकाशमेव च। गुणोत्तराणइ सर्वाणि तेषां वक्ष्यामि ते गुणान् ।। | 3-215-3a 3-215-3b |
भूमिः पञ्चगुणा ब्रह्मननुदकं च चतुर्गुणम्। गुणास्त्रयस्तेजसि च त्रयश्चाकाशवातयोः ।। | 3-215-4a 3-215-4b |
शब्दः स्पर्शश्च रूपं च रसो गन्धश्च पञ्चमः। एतेगुणाः पञ्च भूमेः सर्वेभ्यो गुणवत्तराः ।। | 3-215-5a 3-215-5b |
शब्दः स्पर्शश्च रूपं च सरश्चापि द्विजोत्तम। अपामेते गुणा ब्रह्मन्कीर्तितास्तव सुव्रत ।। | 3-215-6a 3-215-6b |
शब्दः स्पर्शश्च रूपं च तेजसोऽथ गुणास्त्रयः। शब्दः स्पर्शश्च वायौ तु शब्दश्चाकाश एव तु ।। | 3-215-7a 3-215-7b |
एते पञ्चदश ब्रह्मन्गुणा भूतेषु पञ्चसु। वर्तन्ते सर्वभूतेषु येषु लोकाः प्रतिष्ठिताः ।। | 3-215-8a 3-215-8b |
अन्योन्यं नातिवर्तन्ते सम्यक्व भवति द्विज। यदा तु विषमं भावमाचरन्ति चराचराः ।। | 3-215-9a 3-215-9b |
तदा देही देहमन्यं व्यतिरोहति कालतः। प्रातिलोम्याद्विनश्यन्ति जायन्ते चानुपूर्वशः ।। | 3-215-10a 3-215-10b |
तत्र तत्रहि दृश्यन्ते धातवः पाञ्चभौतिकाः। यैरावृतमिदं सर्वं जगत्स्थावरजङ्गमम् ।। | 3-215-11a 3-215-11b |
इन्द्रियैर्गृह्यते यद्यत्तत्तद्व्यक्तमिति स्मृतम्। तदव्यक्तमिति ज्ञेयं लिङ्गग्राह्यमतीन्द्रियम् ।। | 3-215-12a 3-215-12b |
यथास्वं ग्राहकान्येषां शब्दादीनामिमानि तु। इन्द्रियाणि तथा देही धारयन्निह तप्यते ।। | 3-215-13a 3-215-13b |
लोके विततमात्मानं लोकं चात्मनि पश्यति। परापरज्ञः सक्तः सन्स तु भूतानि पश्यति ।। | 3-215-14a 3-215-14b |
पश्यतः सर्वभूतानि सर्वावस्थासु सर्वदा। ब्रह्मभूतस् संयोगो नाशुभेनोपपद्यते ।। | 3-215-15a 3-215-15b |
ज्ञानमूलात्मकं क्लेशमतिवृत्तस्य मोहजम्। लोकबुद्धिप्रकाशेन ज्ञेयमार्गेण गम्यते ।। | 3-215-16a 3-215-16b |
अनादिनिधनं जन्तुमात्मयोनिं सदाव्ययम्। अनौपम्यममूर्तं च भगवानाह बुद्धिमान् ।। | 3-215-17a 3-215-17b |
तपोमूलमिदं सर्वं यन्मां विप्रानुपृच्छसि। `तपसा हि समाप्नोति यद्यदेवाभिवाञ्छति'। इन्द्रियाण्येव संयम्य तपो भवति नान्यथा ।। | 3-215-18a 3-215-18b 3-215-18c |
इन्द्रियाण्येव तत्सर्वंयत्स्वर्गनरकावुभौ। निगृहीतविसृष्टानि स्वर्गाय नरकाय च ।। | 3-215-19a 3-215-19b |
एष योगविधिः कृत्स्नो यावदिन्द्रियधारणम्। एतन्मूलं हि तपसः स्वर्गस्य नरकस्य च ।। | 3-215-20a 3-215-20b |
इन्द्रियाणां प्रसङ्गेन दोमार्च्छत्यसंशयम्। सन्नियम्य तु तान्येव ततः सिद्धिं समाप्नुयात् ।। | 3-215-21a 3-215-21b |
षण्णामात्प्रनि योज्यानामैश्वर्यं योऽधितिष्ठति। न स पापैः कुतोऽनर्थैर्युज्यते विजितेन्द्रियः ।। | 3-215-22a 3-215-22b |
रथः शरीरं पुरुषस्य दृष्ट- मात्मा नियन्तेन्द्रियाण्याहुरश्वान्। तैरप्रमत्तः कुशली सदश्वै- र्दान्त सुखं याति रथीव धीरः ।। | 3-215-23a 3-215-23b 3-215-23c 3-215-23d |
षण्णामात्मनियुक्तानामिन्द्रियाणां प्रमाथिनाम्। यो धीरो धारयेद्रश्मीन्स स्यात्परमसारथिः ।। | 3-215-24a 3-215-24b |
इन्द्रियाणां प्रसृष्टानां हयानामिव वर्त्मसु। धृतिं कुर्वीत सारथ्ये धृत्या तानि जयेद्ध्रुवम् ।। | 3-215-25a 3-215-25b |
इन्द्रियाणां विचरतां यन्मनोऽनुविधीयते। तदस् हरते बुद्धिं नावं वायुरिवाम्भसि ।। | 3-215-26a 3-215-26b |
येषु विप्रतिपद्यन्ते षट्स्वमोहात्फलागमम्। तेष्वध्यवसिताध्यायी विन्दते ध्यानजं फलम् ।। | 3-215-27a 3-215-27b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अरण्यपर्वणि मार्कण्डेयसमास्यापर्वणि पञ्चदशाधिकद्विशततमोऽध्यायः ।। 215 ।। |
3-215-3 गुणोत्तराणि उत्तरोत्तरगुणाः पूर्वपूर्वस्मिन्वर्तन्त इत्यर्थः ।। 3-215-10 आनुपूर्व्या विनश्यन्ति इति झ. थ. पाठः ।। 3-215-20 कृत्स्नस्य नरकस्य चेति झ. ध. पाठः ।। 3-215-27 षट्सु मोहात् इति झ. पाठः ।।
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